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बबबबब बबबबब / Boudh Philosophy अअअअअअअ 1 अअअअअ अअअअअ / Boudh Philosophy 2 अअअअअअअअअ 3 अअअअअअअअअअअअअअअअ 4 अअअअअअअअअअअअअ 5 अअअअअअ अअ अअअअअअअअअअअ 6 अअअअअअ अअ अअअअअअ 7 अअअअअअअअ 8 अअअअअअअअअ 9 अअअअअअअअअ अअ अअअअअ 10 अअअअअअअअअअअ 11 अअअअअअअअअअ 12 अअअअअअअ अअअअअ

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बौद्ध दर्श�न / Boudh Philosophyअनुक्रम

1 बौद्ध दर्श�न / Boudh Philosophy 2 श्रावकयान 3 प्रत्येकबुद्धयान 4 बोधि�सत्त्वयान 5 महायान की व्युत्पत्ति� 6 हीनयान और महायान 7 महाकरुणा 8 बोधि�चि#� 9 पारधिमताओं की सा�ना 10 तथागतगुह्यक 11 दर्शभूमीश्वर

12 वैभाषि.क दर्श�न

भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित2त होने पर भी बौद्ध दर्श�न कोई एक दर्श�न नहीं, अषिपतु दर्श�नों का समूह है। कुछ बातों में षिव#ार साम्य होने पर भी परस्पर अत्यन्त मतभेद हैं। र्शब्द साम्य होने पर भी अथ� भेद अधि�क हैं। अनेक र्शाखोपर्शाखाओं में षिवभक्त होने पर भी दार्श�षिनक मान्यताओं में साम्य की दृधिC से बौद्ध षिव#ारों का #ार षिवभागों में वगDकरण षिकया गया है, यथा-

1. वैभाषि.क, 2. सौत्रान्तिन्तक,

3. योगा#ार एवं 4. माध्यधिमक।

यद्यषिप अठारह षिनकायों का वैभाषि.क दर्श�न में संग्रह हो जाता है और अठारह षिनकायों में स्थषिवरवाद भी संगृहीत है, जागषितक षिवषिव� दु:खों के दर्श�न से तथागत र्शाक्यमुषिन भगवान बुद्ध में सव�प्रथम महाकरुणा का उत्पाद हुआ। तदनन्तर उस महाकरुणा से पे्ररिरत होने की वजह से 'मैं इन दु:खी प्रात्तिणयों को दु:ख से मुक्त करने और उन्हें सुख से अन्तिन्वत करने का भार अपने कन्धों पर लेता हूँ और इसके चिलए बुद्धत्व प्राप्त करंूगा'- इस प्रकार का उनमें बोधि�चि#� उत्पन्न हुआ।

उनकी देर्शनाए ंतीन षिपटकों और तीन यानों में षिवभक्त की जाती हैं।

1. सूत्र,

2. षिवनय और

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3. अत्तिभ�म�- ये तीन षिपटक हैं। 4. श्रावकयान,

5. प्रत्येक बुद्धयान और 6. बोधि�सत्त्वयान- ये तीन यान हैं।

श्रावकयान और प्रत्येकबुद्धयान को हीनयान और बोधि�सत्त्वयान को महायान कहते हैं।

श्रावकयानजो षिवनेय जन दु:खमय संसार-सागर को देखकर तथा उससे उषिद्वग्न होकर तत्काल उससे मुचिक्त की अत्तिभला.ा तो रखते हैं, षिकन्तु तात्काचिलक रूप से सम्पूण� प्रात्तिणयों के षिहत और सुख के चिलए सम्यक सम्बुद्धत्व की प्रान्तिप्त का अध्यार्शय (इच्छा) नहीं रखते- ऐसे षिवनेय जन श्रावकयानी कहलाते हैं। उनके चिलए प्रथम �म�#क्र का प्रवत�न करते हुए भगवान ने #ार आय�सत्व और उनके अषिनत्यता आदिद सोलह आकारों की देर्शना की और इनकी भावना करने से पुद्गलनैरात्म्य का साक्षात्कार करके क्लेर्शावरण का समूल प्रहाण करते हुए अह�त्त्व की और षिनवा�ण की प्रान्तिप्त का माग� उपदिदC षिकया।

प्रत्येकबुद्धयानश्रावक और प्रत्येकबुद्ध के लक्ष्य में भेद नहीं होता। प्रत्येक बुद्ध भी स्वमुचिक्त के ही अत्तिभला.ी होते हैं। श्रावक और प्रत्येकबुद्ध के ज्ञान में और पुण्य सं#य में थोड़ा फक� अवश्य होता है। प्रत्येकबुद्ध केवल ग्रह्यर्शून्यता का बो� होता है, ग्राहकरू्शन्यता का नहीं। पुण्य भी श्रावक की अपेक्षा उनमें अधि�क होता है। प्रत्येकबुद्ध उस काल में उत्पन्न होते हैं, जिजस समय बुद्ध का नाम भी लोक में प्र#चिलत नहीं होता। वे षिबना आ#ाय� या गुरु के ही, पूव�जन्मों की स्मृषित के आ�ार पर अपनी सा�ना प्रारम्भ करते हैं और प्रत्येकबुद्ध-अह�त्त्व और षिनवा�ण पद प्राप्त करते हैं। इनकी यह भी षिवर्शे.ता है षिक ये वाणी के द्वारा �मoपदेर्श नहीं करते तथा संघ बनाकर नहीं रहते अथा�त एकाकी षिव#रण करते हैं।

बोधि�सत्त्वयानजो षिवनेय जन सम्पूण� सत्त्वों के षिहत और सुख के चिलए सम्यक सम्बुद्धत्व प्राप्त करना #ाहते हैं, ऐसे षिवनेय जन बोधि�सत्त्वयानी कहलाते हैं। उन लोगों के चिलए भगवान ने बोधि�चि#� का उत्पाद कर छह या दस पारधिमताओं की सा�ना का उपदेर्श दिदया तथा पुद्गलनैरात्म्य के साथ �म�नैरात्म्य का भी षिवत्तिभन्न युचिक्तयों से प्रषितवे� कर क्लेर्शावरण और ज्ञेयावरण दोनों के प्रहाण द्वारा सम्यक सम्बुद्धत्व की प्रान्तिप्त के माग� का उपदेर्श षिकया। इसे महायान भी कहते हैं।

महायान की वु्यत्पधि�'यायते अनेनेषित यानम्' अथा�त जिजससे जाया जाता है, यह 'यान' है। इस षिवग्रह के अनुसार माग�, जिजससे गन्तव्य स्थान तक जाया जाता है, 'यान' है। अथा�त यान-र्शब्द माग� का वा#क है। 'यायते अस्मिस्मधिन्नषित यानम्' अथा�त जिजसमें जाया जाता है, यह भी 'यान' है। इस दूसरे षिवग्रह के अनुसार 'फल' भी यान कहलाता है। फल ही गन्तव्य स्थान होता है। इस तरह यान-र्शब्द फलवा#क भी होता है। 'महच्च तद ्यानं महायानम्' अथा�त वह यान भी है और बड़ा भी है, इसचिलए महायान कहलाता है।

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हीनयान और महायानवैभाषि.क और सौत्रान्तिन्तक दर्श�न हीनयानी तथा योगा#ार और माध्यधिमक महायान दर्श�न हैं इसमें कुछ सत्यांर्श होने पर भी दर्श�न-भेद यान-भेद का षिनयामक कतई नहीं होता, अषिपतु उदे्दश्य-भेद या जीवनलक्ष्य का भेद ही यानभेद का षिनयामक होता है। उदे्दश्य की अधि�क व्यापकता और अल्प व्यापकता ही महायान और हीनयान के भेद का अ�ार है। यहाँ 'हीन' र्शब्द का अथ� 'अल्प' है, न षिक तुच्छ, नी# या अ�म आदिद, जैसा षिक आजकल षिहन्दी में प्र#चिलत है। महायान का सा�क समस्त प्रात्तिणयों को दु:ख से मुक्त करके उन्हें षिनवा�ण या बुद्धत्व प्राप्त कराना #ाहता है। वह केवल अपनी ही दु:खों से मुचिक्त नहीं #ाहता, बस्मिल्क सभी की मुचिक्त के चिलए व्यचिक्तगत षिनवा�ण से षिनरपेक्ष रहते हुए अप्रषितधिxत षिनवा�ण में स्थिस्थत होता है। जो व्यचिक्त व्यचिक्तगत षिनवा�ण प्राप्त करता हे, वह भी कोई छोटा नहीं, अषिपतु महापुरु. होता है। इतना सौभाग्य भी कम लोगों को प्राप्त होता है। बडे़ पुण्यों का फल है यह। प्राय: सभी बौदे्धतर दर्श�नों का भी अन्तिन्तम लक्ष्य स्वमुचिक्त ही है। अत: यह लक्ष्य श्रेx नहीं है, षिफर भी अपने षिनवा�ण को स्थषिगत करके सभी प्रात्तिण-मात्र को दु:खों से मुचिक्त को लक्ष्य बनाना और उसके चिलए प्रयास और सा�ना करना, अवश्य ही अधि�क श्रेx है।

महाकरुणादु:ख करुणा का आलम्बन होता है तथा दु:ख को सहन नहीं कर पाना इसका आकार होता है। षिवषिव� प्रकार की चिर्शरोवेदना आदिद र्शारीरिरक वेदनाए ंदु:ख-दु:ख हैं। वत�मान में सुखवत् प्रतीत होने पर भी परिरणाम में दु:खदायी �म� षिवपरिरणाम दु:ख कहलाते हैं। सभी अषिनत्यों से षिवयोग दु:खप्रद होता है, इसचिलए सभी अषिनत्य �म� संस्कार-दु:ख हें। करुणा भी प्रारम्भ में 'सत्वालम्बना' होती है। अथा�त प्रात्तिणयों को और उनके दु:खों को आलम्बन बनाती है। षिकन्तु भावना के बल से षिवकचिसत होकर बाद में '�मा�लम्बना' हो जाती है। बौद्ध दर्श�न के अनुसार पुद्गल की स�ा नहीं होती, वह जड़ और #ेतना का पंुजमात्र होता है, षिफर भी दु:खों से मुक्त करने की अत्तिभला.ा '�मा�लम्बना' करुणा होती है। वस्तुत: प्रज्ञा द्वारा षिव#ार करने पर सभी �म� षिन:स्वभाव (रू्शन्य) होते हैं। वस्तुत: सभी सत्त्व और उनके दु:ख भी षिन:स्वभाव ही हैं, षिफर भी अथा�त् रू्शन्यता का अवबो� रखते हुए भी करुणावर्श बुद्ध एवं बोधि�सत्त्व दु:खी प्रात्तिणयों के दु:ख को दूर करने का प्रयास करते हैं। उनकी ऐसी करुणा 'षिनरालम्ब' करुणा कहलाती है।

बोधि�धि$�बोधि�चि#� ही महायान में प्रवेर्श कर द्वार होता है। बोधि�चि#� के उत्पाद के साथ व्यचिक्त महायानों और बोधि�सत्त्व कहलाने लगता है तथा बोधि�चि#� से भ्रC होने पर महायान से च्युत हो जाता है। 'बुद्धो भवेयं जगतो षिहताय*' अथा�त सभी प्रात्तिणयों को दु:खों से मुक्त करने के चिलए मैं बुद्धत्व प्राप्त करँूगा-ऐसी अकृषित्रम अत्तिभला.ा 'बोधि�चि#�' कहलाती है। इस प्रकार बुद्धत्व महायान के अनुसार साध्य नहीं, अषिपतु सा�नमात्र है। साध्य तो समस्त प्रात्तिणयों की दु:खों से मुचिक्त ही है। बोधि�चि#� भी प्रत्तिणधि� और प्रस्थान के भेद से षिद्वषिव� होता है। ऊपर जो बुद्धत्व प्रान्तिप्त की अकृषित्रम अत्तिभला.ा को बोधि�चि#� कहा गया है, वह 'प्रत्तिणधि�-बोधि�चि#�' है। इसके उत्पन्न हो जाने पर सा�क महायान-संवर ग्रहण करके ब्रह्मषिवहार, संग्रहवस्तु एवं पारधिमता आदिद की सा�ना में प्रवृ� होता है, यह 'प्रस्थान-बोधि�चि#�' कहलाता है। र्शास्त्रों में प्रत्तिणधि�-बोधि�चि#� का भी षिवपुल फल और महती अनुर्शंसा वर्णिण2त है।

पारमिमताओं की सा�ना

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पारधिमताए ंदस होती हैं, षिकन्तु उनका छह में भी अन्तभा�व षिकया जाता है। दान, र्शील, क्षान्तिन्त, वीय�, ध्यान एवं प्रज्ञा-ये छह पारधिमताए ंहैं। उपाय कौर्शल पारधिमता, प्रत्तिण�ान पारधिमता, बल पारधिमता एवं ज्ञान पारधिमता-इन #ार को धिमलाकर पारधिमताए ंदस भी होती हैं। र्शास्त्रों में अधि�कतर छह पारधिमताओं की ##ा� की उपलब्ध होती है। इन छह पारधिमताओं में छठवीं प्रज्ञापारधिमता ही 'प्रज्ञा' है तथा र्शे. पां# पारधिमताए ं'पुण्य' कहलाती हैं। इन पां#ों को एक र्शब्द द्वारा 'करुणा' भी कहते हैं। प्रज्ञा और करुणा ये दोनों बुद्धत्व प्रान्तिप्त के उ�म उपाय हैं। अभ्यास या भावना के द्वारा षिवकास की पराकाxा को प्राप्त कर ये दोनों बुद्धत्व अवस्था में समरस होकर स्थिस्थत होती हैं। प्रज्ञा और करुणा की यह सामरस्यावस्था ही बुद्धत्व है। षित्रकायात्मक बुद्धत्व की प्रान्तिप्त, षिबना इन पारधिमताओं के, सम्भव नहीं है।

1. �म�काय, 2. सम्भोगकाय और 3. षिनमा�णकाय- ये तीन काय� हैं। बुद्धत्व की प्रान्तिप्त के साथ इन तीन काय� की प्रान्तिप्त होती है।

महायान के पारधिमतानय के अनुसार अभ्यास द्वारा प्रज्ञा षिवकचिसत होते हुए अन्त में बुद्ध के ज्ञान-�म�काय के रूप में परिरणत हो जाती है। षिकन्तु सम्भोग और षिनमा�ण काय� की प्रान्तिप्त पुण्य अथा�त र्शे. पां# पारधिमताओं के बल से ही होती है। इसीचिलए बोधि�सत्त्व बुद्धत्व की प्रान्तिप्त के चिलए तीन असंख्येय कल्प पय�न्त ज्ञान और पुण्य सम्भारों का अज�न करता है।

महायान सूत्रों में व्रत, उपवास, स्नान, मन्त्र आदिद का षिव�ान है, जिजसके द्वारा पापों का प्रक्षालन और मुचिक्त की प्रान्तिप्त का उल्लेख है, जैसा षिक ब्राह्मण �म� में है- यह आके्षप भी षिनतान्त ही सारहीन है। क्योंषिक अनन्तद्वार�ारणी की सा�ना के अनुसार इस �ारणी की भावना करने वाला सा�क (बोधि�सत्व) संस्कृत और असंस्कृत षिकसी भी �म� की कल्पना नहीं करता, केवल बुद्धानुस्मृषित की भावना करता है।

नागराजपरिरपृच्छासूत्र में भी कहा गया है षिक सभी �म� आदिदत: षिवरु्शद्ध हैं, इसचिलए �ारणी में स्थिस्थत बोधि�सत्व र्शून्यस्वरूप बीजाक्षरों का अनुसरण करता है, उनकी खोज करता है और उनमें स्थिस्थत होता है, जिजससे उसमें राग, दे्व., मोह आदिद उत्पन्न नहीं होते। यह सा�ना भी वैसे ही है, जैसे अषिनत्यता, अर्शुचि# आदिद की भावना अथा�त �ारणीमन्त्र और षिवद्यामन्त्र का तथागत के उपदेर्शानुसार जप, ध्यान एवं भावना करने से पाप का क्षय तथा चि#� सन्तषित र्शान्त होती है। यह माग� सत्य की भावना के समान ही है। �ारणीमन्त्र के जप के समय सा�क में पाप से उत्पन्न होने वाले षिवपाक के प्रषित भय तथा पाप कम� के प्रषित हेयता का भाव होता है और अन्त में उस पाप की पुनरावृत्ति� न हो, ऐसी प्रषितज्ञा करना अषिनवाय� होता है। ये सब पाप प्रायत्ति�� के अंग हैं।

अठारहों षिनकायों को दार्श�षिनक षिवभाजन के अवसर पर वैभाषि.क कहने की बौद्ध दार्श�षिनकों की परम्परा रही है। इसचिलए हम भी वैभाषि.क, सौत्रान्तिन्तक, योगा#ार और माध्यधिमक इन प्रचिसद्ध #ार बौद्ध दर्श�नों के षिव#ारों को ही तुलनात्मक दृधिC से प्रस्तुत करेंगे। यह भी ज्ञात है षिक वैभाषि.क और सैत्रान्तिन्तकों को हीनयान तथा योगा#ार और माध्यधिमकों को महायान कहने की परम्परा है। यद्यषिप हीनयान और महायान के षिवभाजन का आ�ार दर्श�न षिबलकुल नहीं है।

वस्तुस�ावैभाषि.क बाह्याथ�वादी हैं। वे आन्तरिरक एवं बाह्य सभी पदाथ� की वस्तुस�ा स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिन्तक भी बाह्याथ�वादी है और स्वभावस�ावादी भी। सौत्रान्तिन्तक आ#ाय� रु्शभगुप्त ने 'बाह्याथ�चिसद्धकारिरका' नामक अपने ग्रन्थ में बडे़ षिवस्तार से युचिक्तपूव�क षिवज्ञानवादिदयों का खण्डन करके बाह्याथ� की स�ा चिसद्ध की है। बाह्याथ� को चिसद्ध करने में सौत्रान्तिन्तकों ने अभूतपूव� एवं स्तुत्य प्रयास षिकया है। षिवज्ञानवादी षिनबा�ह्याथ�वादी हैं। इनके मत में

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बाह्याथ� परिरकस्थिल्पत मात्र हैं अथा�त बाह्याथ� खपुष्पवत अलीक है। वे केवल षिवज्ञान-परिरणाम की ही द्रव्यत: स�ा स्वीकार करते हैं। चि#�-#ैतचिसकों के बाहर कोई �म� नहीं है। परमाणु की स�ा का उन्होंने बडे़ जोरदार ढंग से षिन.े� षिकया है। फलत: परमाणुओं से संचि#त सू्थल बाह्याथ� का षिन.े� अपने-आप हो जाता है।परमाणु

वैभाषि.क परमाणुवादी हैं। यद्यषिप परमाणु के स्वरूप के बारे में उनमें परस्पर अनेकषिव� मतभेद हें, तथाषिप सभी परमाणु की स�ा स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिन्तक भी परमाणु मानते हैं। बाह्यथ�वादिदयों के चिलए परमाणु मानना आवश्यक भी है। षिवज्ञानवादी परमाणु नहीं मानते। बाह्याथ� का अभाव एवं षिवज्ञान की स�ा चिसद्ध करने के चिलए परमाणु का षिन.े� करना आवश्यक होता है। इसीचिलए आ#ाय� वसुबनु्ध ने विव2चिर्शका में षिनरवयव परमाणु का जोरदार खण्डन षिकया है।

प्रासंषिगक माध्यधिमक भी वैभाषि.कों की भाँषित परमाणुवादी हैं, तथाषिप दोनों के मत में मौचिलक अन्तर है। सभी प्रकार के वैभाषि.क षिनरवयव परमाणु मानते हैं। प्रासंषिगक परमाणु को कस्थिल्पत मानते हैं। वह कस्थिल्पत परमाणु भी उनके मतानुसार षिनरवयव नहीं हो सकते, अषिपतु सावयव होते हैं। वे कहते हैं षिक जैसे व्यवहार में घट, पट आदिद की स�ा है, उसी प्रकार परमाणु का भी अस्मिस्तत्व है।

आलयविवज्ञान

स्थषिवरवादी यद्यषिप आलयषिवज्ञान नहीं मानते, षिफर भी कम�, कम�फल, पुनज�न्म आदिद की व्यवस्था के चिलए एक 'भवाङ्ग' नामक चि#� स्वीकार करते हैं। इनके मतानुसार भावाङ्ग ही व्यचिक्तत्व है, जो कुछ अवस्थाओं को छोड़कर समुद्र की भाँषित भीतर ही भीतर षिनरन्तर प्रवाषिहत होता रहता है। जैसे आलयषिवज्ञान जब तक बुद्धत्व प्राप्त नहीं होता, तब तक षिनरन्तर अषिवस्थिच्छन्न रूप से प्रवृ� होता रहता है, वैसे ही भवाङ्ग चि#� भी अह�त के षिनरूपधि�र्शे. षिनवा�ण�ातु में लीन होते तक प्रवृ� होता रहता है। समुद्र से तरङ्गों की भांषित आलयषिवज्ञान से जैसे सात प्रवृत्ति�षिवज्ञानों की की प्रवृत्ति� होती है और अन्त में वे उसी में षिवलीन हो जाते हैं, वैसे ही भवाङ्ग चि#� से छह प्रवृत्ति�षिवज्ञानों (वीचिथचि#�ो) की प्रवृत्ति� होती है और प्रवृ� होकर उसी में षिवलीन हो जाते हैं। *षिवज्ञानवादी आलयषिवज्ञान को जैसे कुर्शल, अकुर्शल का षिवपाक मानते हैं, स्थषिवरवादिदयों के मत में भवाङ्ग चि#� भी कुर्शल, अकुर्शल कम� का षिवपाक होता है। आलयषिवज्ञान की भांषित भवाङ्ग चि#� भी प्रषितसन्धिन्ध (पुनज�न्म ग्रहण) और च्युषित (मरण) कृत्य करता है। आलयषिवज्ञान और भवाङ्ग दोनों संस्कृत और क्षत्तिणक होते हैं। षिवज्ञानवाद के अनुसार आलयषिवज्ञान में कुर्शल, अकुर्शल, अव्याकृत सभी चि#�ों की वासनाए ंषिनषिहत रहती हैं। वह समस्त �म� के बीजों का आ�ार होता है, वैसे भवाङ्ग चि#� से भी .ड् षिवज्ञानवीचिथयाँ उत्पन्न होती हैं और अन्त में उसी में पषितत हो जाती हैं। फलत: वह भी वासनाओं का आ�ार हो जाता है।

विनवा�ण

वैभाषि.क षिनरो� को षिनवा�ण मानते हैं। वह भी प्रषितसंख्याषिनरो� और अप्रषितसंख्याषिनरो� के भेद से षिद्वषिव� हैं। इन दोनों में प्रषितसंख्याषिनरो� ही मुख्य है। षिनरुपधि�र्शे.षिनवा�ण की अवस्था में सभी संस्कृत �म� षिनरुद्ध हो जाते हैं और वह (संस्कृत �म� का षिनरो�) अप्रषित संख्या षिनरो� स्वरूप होता है। वह असंस्कृत होता है और द्रव्यत: सत होता है।

सौत्रान्तिन्तकों के मत में षिनवा�ण अभावमात्र (प्रसज्यप्रषित.े�स्वरूप) होता है, जो समस्त क्लेर्शों से रषिहत मात्र है।

षिवज्ञानवादिदयों के मत में षिनवा�णयद्रव्यत: सत नहीं है। वह क्लेर्शावरण का अभावमात्र है। महाषिनवा�ण भी क्लेर्शावरण और ज्ञेयावरण दोनों का अभावमात्र ही है और वह एक षिनत्य �म� है। महायानषिनवा�ण की अवस्था बुद्धत्व की अवस्था है। इस अवस्था में यद्यषिप सास्त्रव पं# स्कन्ध अथा�त सास्त्रव र्शरीर एवं

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चि#�सन्तषित षिवद्यमान नहीं होते, तथाषिप अनास्त्रव पं# स्कन्ध षिवद्यमान होते हैं, जो समस्त जीवों का कल्याण चिसद्ध करते हैं। माध्यधिमक भी ऐसी ही मानते हैं।

बुद्धव$नवैभाषि.क महायानसूत्रों को बुद्धव#न नहीं मानते, क्योंषिक उनमें वर्णिण2त षिव.य उन्हें अभीC नहीं हैं। वे केवल हीनयानी षित्रषिपटक को ही बुद्धव#न मानते हैं। प्रा#ीन या आगमानुयायी सौत्रान्तिन्तक महायानसूत्रों को बुद्धव#न नहीं मानते थे, षिकन्तु �म�कीर्तित2 के बाद के अवा�#ीन या युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिन्तक महायानी आ#ाय� के प्रभाव से महायानसूत्रों को बुद्धव#न मानने लगे, षिफर भी वे उनका अथ� प्रकारान्तर से लेते थे। महायानी आ#ाय� हीनयानी और महायानी सभी सूत्रों को बुद्धव#न मानते हैं। �म�$क्र

वैभाषि.क और सौत्रान्तिन्तक एक �म�#क्र ही मानते हैं, जिजसकी देर्शना भगवान ने ऋषि.पतन मृगदाव में की थीं इसके षिवनेय जन श्रावकवगDय लोग हैं, जो स्वलक्षण और बाह्यस�ा पर आ�ृत #तुर्तिव2� आय�सत्य के पात्र हैं। पुद्गल-नैरात्म्य के साक्षात्कार द्वारा षिनवा�ण प्राप्त कर लेना, इसका लक्ष्य है। श्रावक-वगDय लोगों की दृधिC से यह नीताथ� देर्शना है। योगा#ार और माध्यधिमक लोगों की दृधिC से यह नेयाथ� देर्शना है।

महायानी तीन �म�#क्र प्रवत�न मानते हैं। पहला ऋषि.पतन मृगदाव में, दूसरा गृध्रकूट पव�त पर तथा तीसरा वैर्शाली में षिद्वतीय �म�#क्र के षिवनेय जन महायानी लोग हैं तथा र्शून्यता, अनुत्पाद, अषिनरो� आदिद इसकी षिव.यवस्तु हैं। षिवज्ञानवादी लोग इस षिद्वतीय �म�#क्र को नेयाथ� मानते हैं, नीताथ� नहीं। इसमें प्रमुखता: प्रज्ञापारधिमतासूत्र देचिर्शत हैं, जिजनसे माध्यधिमक दर्श�न षिवकचिसत हुआ है। इसकी नेयनीताथ�ता के बारे में स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमकों एवं प्रासंषिगक माध्यधिमकों में थोड़ा-बहुत मतभेद है। आ#ाय� भावषिववेक, ज्ञानगभ�, र्शान्तरत्तिक्षत आदिद स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमकों के अनुसार प्रज्ञापारधिमतासूत्रों में आय�र्शतसाहन्धिस्त्रका प्रज्ञापारधिमता आदिद कुछ सूत्र नीताथ� हैं, क्योंषिक इनमें सभी �म� की परमाथ�त: षिन:स्वभावता षिनर्दिद2C है। भगवती प्रज्ञापारधिमताहृदयसूत्र आदिद यद्यषिप षिद्वतीय �म�#क्र में संगृहीत हैं, तथाषिप वे नीताथ� नहीं माने जा सकते, क्योंषिक इनके द्वारा जिजस प्रकार की सव��म�षिन:स्वभावता प्रषितपादिदत की गई है उस प्रकार की षिन:स्वभावता स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमकों को इC नहीं हैं यद्यषिप इन सूत्रों का अत्तिभप्राय परमाथ�त: षिन:स्वाभावता ही है, तथाषिप उनमें 'परमाथ�त:' यह षिवर्शे.ण अधि�क स्पC नहीं है जो षिक स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमकों के अनुसार नीताथ�सूत्र होने के चिलए परमावश्यक है। क्योंषिक ये लोग व्यवहार में वस्तु की स्वलक्षण स�ा स्वीकार करते हैं।

प्रासंषिगक माध्यधिमकों के अनुसार षिद्वतीय �म�#क्र नीताथ� देर्शना है। वे 'परमाथ�त: षिवरे्श.ण को षिनरथ�क मानते हैं। इनमे मत में जिजस सूत्र का मुख्य षिव.य र्शून्यता है, वह सूत्र नीताथ� है। जिजसका मुख्य षिव.य संवृषित सत्य है, वह नेयाथ� सूत्र है। अत: इनके मत में भगवती प्रज्ञापारधिमताहृदयसूत्र आदिद सूत्र भी नीताथ� ही हैं।

तृतीय �म�#क्र का स्थान वैर्शाली हैं श्रावक एवं महायानी दोनों इसके षिवनेय जन हैं। आय� सन्धिन्धषिनमo#न आदिद इसके प्रमुख सूत्र हैं। षिवज्ञानवादिदयों के अनुसार यह नीताथ� देर्शना हैं यद्यषिप षिद्वतीय और तृतीय दोनों �म�#क्रों में रू्शन्यता प्रषितपादिदत है, तथाषिप षिद्वतीय �म�#क्र में समस्त �म� को समान रूप से षिन:स्वभाव कहा गया है। उसमें यह भेद नहीं षिकया गया है षिक अमुक �म� षिन:स्वभाव हैं और अमुक �म� षिन:स्वभाव नहीं है, अषिपतु सस्वभाव हैं षिवज्ञानवादी समस्त �म� को समानरूप से षिन:स्वभाव नहीं मानते, अषिपतु पदाथ� में से कुछ षिन:स्वभाव हैं और कुछ सस्वभाव। अत: वे षिद्वतीय �म�#क्र को नीताथ� नहीं मानते। उनके मतानुसार जो सूत्र �म� की सस्वभावता और षिन:स्वभावता का सम्यग् षिवभाजन करते हैं, वे ही नीताथ� माने जा सकते हैं। जिजन सूत्रों में उक्त प्रकार का षिवभाजन स्पC नहीं है, उन्हें षिवज्ञानवादी नेयाथ� ही मानते हैं।

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वि-विवज नैरात्म्य

षिवज्ञानवाद के अनुसार पुद्गलनैरात्म्य का स्वरूप पञ्# स्कन्धों से द्रव्यत: त्तिभन्न, षिनत्य, र्शाश्वत आत्मा का षिन.े�मात्र है, वैभाषि.क, सौत्रान्तिन्तक आदिद हीनयानी और स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक भी ऐसा ही मानते हैं। षिवज्ञानवाद के अनुसार बाह्याथ� से र्शून्यता या ग्राह्य-ग्राहकद्वय से र्शून्यता �म�नैरात्म्य है तथा स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमकों के अनुसार �म� की परमाथ�त: षिन:स्वभावता �म�नैरात्म्य है। प्रसंषिगक ऐसा नहीं मानते। उनके मत में यद्यषिप उक्त प्रकार की आत्मा का अस्मिस्तत्व मान्य नहीं है, तथाषिप उक्त प्रकार के पुद्गलनैरात्म्य के ज्ञान से सव�षिव� आत्मदृधिC का षिन.े� नहीं होता। उक्त ज्ञान केवल परिरकस्थिल्पत आत्मृधिC का ही प्रषितपक्ष है, जो (आत्मा) केवल चिसद्धान्तषिवर्शे. से पे्ररिरत लोगों में ही होती है। सहज आत्मदृधिC की इससे कुछ भी हाषिन नहीं होती। इसके मतानुसार नैरात्म्य की स्थापना पुद्गल तथा �म� के भेद से की जाती हैं पुद्गलषिन:स्वभावनता पुद्गलनैरात्म्य तथा घटादिद षिन:स्वभावता �म�नैरात्म्य है।

वि-विव� आवरण

सभी महायानी दर्श�नों में षिद्वषिवधि� आवरणों की व्यवस्था है, यथा –

क्लेर्शावरण एवं

1. ज्ञेयावरण।

क्रमर्श: प्रथम आवरण मुचिक्त की प्रान्तिप्त में मुख्य बा�क है तथा दूसरा आवरण सव�ज्ञता की प्रान्तिप्त में मुख्य बा�क है।

षिवज्ञानवाद के अनुसार पुद्गलात्मदृधिC तथा उससे सम्बद्ध क्लेर्श 'क्लेर्शावरण' है। बाह्याथ�दृधिC तथा उसकी वासनाए ं'ज्ञेयावरण' हैं स्वातान्तिन्त्रक माध्यधिमकमता में क्लेर्शावरण का स्वरूप षिवज्ञानवादिदयों से त्तिभन्न नहीं है, षिकन्तु उनके मतानुसार �म� की सत्यत: स�ादृधिC ज्ञेयावरण है। प्रासंषिगक माध्यधिमक मतानुसार पुद्गलात्मदृधिC तथा �मा�त्मदृधिC सभी क्लेर्शावरण हैं, क्योंषिक सभी स्वभावसद-्दृधिC क्लेर्श होती है। स्वभावसद-्दृधिC मुचिक्त की प्रान्तिप्त में मुख्य बा�क है। अत: मोक्षप्रान्तिप्त के चिलए षिन:स्वभावता का ज्ञान अषिनवाय� है। अत: श्रावक तथा प्रत्येकबुद्ध आय� के चिलए षिन:स्वभावता का ज्ञाता होना षिनत्ति�त होता है। स्वभावसद-्दृधिC की वासना ज्ञेयावरण है। यही सव�ज्ञज्ञान की प्रान्तिप्त में मुख्य बा�क है। उसके प्रहाण के चिलए महाकरुणा से संगृहीत सम्भारों तथा पारिरमताओं की आवश्यकता होती है। यह प्रासषिङ्गकों की षिवचिर्शC मान्यता है।

वि-विव� सत्य

दो सत्यों की ##ा� हीनयानी ग्रन्थों में भी उपलब्ध होती है। पाचिल-अट्ठकथा एवं अत्तिभ�म�कोर्श में इनके लक्षण वर्णिण2त हैं, षिकन्तु महायान में इनकी पुष्कल ##ा� हुई है। नागाजु�न इसके प्रवत�क माने जाते हैं। सौत्रान्तिन्तक परमाथ�त: अथ�षिक्रयासमथ� को परमाथ�सत्य कहते हैं। षिनबा�ह्याथ�ता या ग्राह्य-ग्राहक दै्वत से रषिहतता योगा#ार मत में परमाथ�सत्य है। स्वातन्तिन्त्रक और प्रासषिङ्गक माध्यधिमक का सत्यद्वय के बारे में जो सूक्ष्म दृधिCभेद है, उसे जान लेना आवश्यक है।

भावषिववेक के मत में परमाथ�त: षिन:स्वभावता 'परमाथ�सत्य' है। केवल षिन:स्वभावता परमाथ�सत्य नहीं मानी जाती, क्योंषिक उनके मत में स्वभावस�ा होती है।

प्रासषिङ्गक माध्यमों के मतानुसार षिन:स्वभावता ही 'परमाथ�सत्य' है। उनके अनुसार 'परमाथ�त:' यह षिवर्शे.ण षिनरथ�क है।

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दोनों के मत में संवृषित के दो प्रकार हैं। भावषिववेक षिव.य की दृधिC से तथ्यसंवृषित और धिमथ्यासंवृषित – ये दो भेद मानते हैं। परन्तु प्रासषिङ्गक मत के अनुसार षिव.य दो प्रकार के नहीं हो सकते, क्योंषिक सभी षिव.य धिमथ्या ही होते हैं षिव.यी (ज्ञान) दो प्रकार का होता है। यह लोकव्यवस्था के अनुकूल भी है। प्रासषिङ्गक की अपनी दृधिC से तो सभी ज्ञान धिमथ्या ही हैं, क्योंषिक उनकी दृधिC से सभी सांवृत ज्ञान भ्रान्त होते हैं। षिफर भी लोकव्यवस्था के अनुसार ज्ञान के दो प्रकार हैं

प्रमाण विव$ार

प्रमाणों की दो संक्ष्या के बारे में प्राय: सभी बौद्ध एकमत है। प्रमाणों के बारे में सौत्रान्तिन्तकों ने षिवस्तृत षिव#ार षिकया है। प्रमाण दो हैं – प्रत्यक्ष और अनुमान। सौत्रान्तिन्तक प्रत्यक्ष प्रमाण को #तुर्तिव2� मानते हैं। योगा#ार दार्श�षिनक भी सौत्रान्तिन्तकों के समान ही मानते हैं। परन्तु प्रासषिङ्गक माध्यधिमक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं मानते। वैभाषि.क भी ऐसा ही मानते हैं। इनके मत में प्रत्यक्ष षित्रषिव� ही है, तथा –

1. इजिन्द्रयप्रत्यक्ष,

2. मानसप्रत्यक्ष और 3. योषिगप्रत्यक्ष।

कुछ षिवद्वानों का कहना है षिक प्रासषिङ्गक केवल दो ही प्रमाण नहीं मानते, अषिपतु प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और आगम- इन #ार प्रमाणों को मानते हैं वे अपने बात की पुधिC के चिलए प्रसन्नपदा के एक श्लोक को उद्धतृ भी करते हैं।

आ#ाय� #ोंखापा का कहना है षिक प्रसन्नपदा का व#न षिवग्रहव्यावत�नी पर आ�ृत है, वह #ार प्रमाण होने का सबूत नहीं है। क्योंषिक उपमान और आगम का अनुमान में ही अन्तभा�व हो जाता है।

प्रमाणवार्तित2क में आगम को षिकतनी सीमा तक तथा षिकस प्रकार परीत्तिक्षत होने पर गृहीत षिकया जा सकता हे और आप्त चिलङ्ग की व्यवस्था तथा उसका स्वरूप क्या है? इन सबका स्पCतया वण�न षिकया गया है।

षिनष्क.�त: प्रासषिङ्गक षिद्वषिव� प्रमाणवादी हैं। 'मानं षिद्वषिव�ं मेयदै्वषिवध्यात्' (प्रमाणवार्तित2क, प्रत्यक्षपरिरचे्छद) इन षिनयम को प्रासषिङ्गक भी मानते हैं।

वि1काय व्यवस्था

बुद्धत्व महायान का अन्तिन्तम प्राप्तव्य पद है। महायान के अनुसार षिनरुपधि�र्शे. षिनवा�ण प्राप्त होने पर भी व्यचिक्त की रूपसन्तषित एवं चि#�सन्तषित का षिनरो� नहीं होता, जैसे षिक हीनयानी दर्श�नों के अनुसार होता है। महायाषिनयों का कहना है षिक षिनरुपधि�र्शे. षिनवा�ण होने पर व्यचिक्त की केवल स्थिक्लC सन्तषित का ही षिनरो� होता है। अनास्त्रव पञ्#स्कन्ध सन्तषित तो सवदा� प्रवहमान होती ही रहती है।

बोधि�सत्व जब बुद्धत्व प्राप्त करता है तो बुद्धत्व-प्रान्तिप्त के साथ ही तीन काय� की प्रान्तिप्त होती है, यथा -

1. �म�काय,

2. सम्भोग काय एवं

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3. षिनमा�ण काय।

�म�काय

जैसे एक सामान्य व्यचिक्त में चि#� (#ेतनांर्श) और र्शरीर (जडांर्श) दोनों होते हैं, वैसे ही बुद्ध की अवस्था में भी ये दोनों होते हैं। उनमें से चि#� (#ेतनांर्श) �म�काय है तथा उनके सम्भोग काय और षिनमा�णकाय ये र्शरीरस्थानीय हैं। सांसारिरक अवस्था में व्यचिक्त के #क्षुर्तिव2ज्ञान आदिद षिवज्ञान रूप, र्शब्द आदिद षिवत्तिभन्न षिव.यों में प्रवृत्ति� होते रहते हैं। उसका आलयषिवज्ञान समस्त वासनाओं और दौxुल्यों का आश्रय हुआ करता है। स्थिक्लC मनोषिवज्ञान, जो एक षिव.म षिवज्ञान है, वह सव�दा आलयषिवज्ञान को आत्मत्वेन ग्रहण करता रहता है। बुद्धावस्था में इन समस्त षिवज्ञानों की समान्तिप्त हो जाती है और उनके स्थान पर नए-नए षिवज्ञानों का उत्पाद हो जाता है। इस प्रषिक्रया को ही 'आश्रयपरावृत्ति�' कहते हैं। जैसे सांसारिरक अवस्था में आलयषिवज्ञान समस्त षिवज्ञानों का आश्रय हुआ करता है, उसी तरह बुद्धावस्था में सव�ज्ञज्ञान ही उनके समस्त ज्ञानों का आ�ार होता है और उसमें ही समस्त बुद्धगण षिवद्यमान रहते हैं। आलयषिवज्ञान के स्थान पर बुद्धावस्था में सव�ज्ञज्ञान उत्पन्न होता है, जो अप्रषितधिxत षिनवा�ण का आ�ार होता है। स्थिक्लC मनोषिवज्ञान के स्थान पर समता ज्ञान का उत्पाद होता है, जो समस्त �म� को समानरूप से र्शून्य जानता है। सांसारिरक अवस्था #क्षुरादिदषिवज्ञानों के स्थान पर अषितषिवरु्शद्ध #कु्षरादिदषिवज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो एक-एक भी समस्त �म� और उनकी र्शून्यता को जानते हैं। ये समस्त ज्ञान *सामूषिहक रूप से 'ज्ञान �म�काय' कहलाते हैं। इस ज्ञानकाय में सव�ज्ञज्ञान ही प्रमुख है।

सव�ज्ञज्ञान में स्थिस्थत आवरणों का क्षय भी �म�काय है, उसे 'आगन्तुक षिवर्शुद्ध स्वभाव �म�काय' कहते हैं। षिवज्ञानवादी मत में �म�काय तीन प्रकार का नहीं माना जा जाता, जैसा ऊपर कहा गया है, अषिपतु दो ही प्रकार का माना जाता है, यथा-

1. ज्ञान�म�काय एवं 2. आगन्तुक षिवर्शुद्ध स्वभाव�म�काय।

इस मत में स्वभाषिवरु्शद्ध स्वभाव�म�काय नहीं होता, क्योंषिक सव�ज्ञज्ञान में स्थिस्थत बाह्याथ�र्शून्यता इन षिवज्ञानवादिदयों के मत में �म�काय नहीं है। इसका कारण यह है षिक सव�ज्ञज्ञान में स्थिस्थत बाह्याथ�र्शून्यता उस सव�ज्ञज्ञान के षिव.य रूप आदिद की भी बाह्याथ�र्शून्यता है। ज्ञातव्य है षिक इस मत में रूप और रूप को जानने वाला #क्षुर्तिव2ज्ञान ये दोनों रूप के परतन्त्रलक्षण हैं और दोनों की र्शून्यता एक ही है। इसीचिलए रूप को जानने वाला सव�ज्ञज्ञान भी रूप का परतन्त्रलक्षण है और उसमें स्थिस्थत र्शून्यता रूप की भी र्शून्यता है। ऐसी स्थिस्थषित में जब षिक सव�ज्ञज्ञान में स्थिस्थत रू्शन्यता रूप में भी षिवद्यमान है, तो वह कैसे �म�काय हो सकती है। अथा�त सव�ज्ञज्ञान में स्थिस्थत र्शून्यता �म�काय नहीं है।

यह चिसद्धान्त माध्यधिमक मत से बहुत त्तिभन्न है। माध्यधिमकों के मत में एक �म� की र्शून्यता दूसरे �म� की रू्शन्यता कथमषिप नहीं हो सकती। फलत: उनके मत में सव�ज्ञज्ञान में जो रू्शन्यता स्थिस्थत है, वह �म�काय होती है, जिजसे 'स्वभावषिवर्शुद्ध स्वभाव�म�काय' कहते हैं। ऐसा होने के कारण माध्यधिमकों के मत में षित्रषिव� �म�काय होते हैं, यथा- षिद्वषिव�स्वभाव �म�काय और ज्ञान�म�काय। षिद्वषिव� स्वभाव �म�काय ये हैं- स्वभावषिवर्शुद्ध स्वभाव �म�काय एवं आगन्तुक षिवर्शुद्ध स्वभाव�म�काय।

सम्भोग काय

सांसारिरक अवस्था में बोधि�सत्त्व का जो सास्त्रव र्शरीर होता है, वह दर्श भूधिमयों की अवस्था में क्रमर्श: रु्शद्ध होता जाता है। आखिखरी जन्म में बोधि�सत्त्व '#रमभषिवक बोधि�सत्त्व' कहलाता है। वह #रमभषिवक बोधि�सत्त्व अपने आखिखरी जन्म में काम�ातु और रूप�ातु के स्थानों में उत्पन्न नहीं होता, अषिपतु केवल अकषिनx घनके्षत्र में

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ही जन्मग्रहण करता है। वहाँ उसका र्शरीर अत्यन्त दिदव्य होता है और कम�-क्लेर्शों का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। उसी दिदव्य जन्म में वह बुद्ध हो जाता है। बुद्ध होते ही व्यचिक्त सम्भोगकाय हो जाता है और उसका र्शरीर 32 महापुरु. लक्षणों और 80 अनुव्यजंनों से षिवभूषि.त हो जाता है। वह सम्भोगकाय षिनम्न पाँ# षिवषिनयतों से युक्त होता है।

1. स्थानषिवषिनयत- वह सव�दा केवल अकषिनx घनके्षत्र में ही स्थिस्थत रहता है। 2. कायषिवषिनयत-उसका र्शरीर 32 महापुरु.लक्षण और 80 अनुव्यञ्जनों से सव�दा युक्त रहता हे। 3. परिरवारषिवषिनयत- उनके परिरवार में केवल महायानी आय� बोधि�सत्त्व ही रहते हैं। 4. वाग्-षिवषिनयत- यह सदा महायान �म� का ही उपदेर्श देते हैं। 5. कालषिवषिनयत- वह यावत्-संसार अथा�त जब तक संसार है, तब तक उसी रूप में स्थिस्थत रहते हैं। 6. षिनमा�ण काय

सम्भोगकाय सव�दा अकषिनx घनक्षेत्र में ही स्थिस्थत रहता है, तथाषिप वह सकल जगत के कल्याणाथ� समस्त के्षत्रों में र्शाक्यमुषिन गौतम बुद्ध आदिद के रूप में अनेक बुद्धों का षिनमा�ण करता है। ऐसे बुद्धों को 'षिनमा�णकाय' कहते है। इनके स्थान आदिद षिनयत नहीं होते। वाराणसी, मग� आदिद अनेक स्थलों में वे भ्रमण करते रहते हैं। वे षिनमा�णकाय पर्शु, पक्षी, पृथग्जन आदिद सभी जीवों के दृधिCगो#र होते हैं तथा समस्त षिवनेय जनों के कल्याणाथ� श्रावक, प्रत्येक बुद्ध बोधि�सत्त्व आदिद सभी योनों का उपदेर्श करते हैं। षिनमा�णकाय तीन प्रकार के होते हैं, यथा :

उ�म षिनमा�णकाय— उ�म षिनमा�णकाय का सम्भोगकाय से साक्षात सम्बन्ध होता है। वे जम्बूद्वीप आदिद षिवत्तिभन्न लोकों में द्वादर्श(12)#रिरत (लीला) प्रदर्शिर्श2त करते हैं। इन #रिरतों के द्वारा वे षिवनेय जनों का कल्याण चिसद्ध करते हैं। यह काय भी 32 महापुरु.लक्षण और 80 अनुव्यजनों से षिवभूषि.त होता है। र्शाक्यमुषिन गौतम बुद्ध इसके षिनदर्श�न (उदाहरण) हैं।

द्वादर्श #रिरत इस प्रकार हैं-

1. तुषि.त लोक से च्युषित,

2. मातृकुत्तिक्ष में प्रवेर्श,

3. लुन्धिम्बनी उद्यान में अवतरण,

4. चिर्शल्प कला में षिनपुणता एवं कौमायoचि#त लचिलत क्रीडाए,ं

5. राषिनयों के परिरवार के साथ राज्यग्रहण,

6. #ार षिनधिम�ों (वृद्ध, रोगी, मृत आदिद) को देखकर ससंवेग प्रव्रज्या, 7. नेरजंना नदी के तट पर छह व.� तक कठोर तप�रण,

8. बोधि�वृक्ष के मूल में उपस्थिस्थषित,

9. मान की सम्पूण� सेना का दमन,

10. वैर्शाख पूर्णिण2मा के दिदन बोधि� की प्रान्तिप्त,

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11. ऋषि.पतन मृगदाव (सारनाथ) में �म�#क्र-प्रवत�न एवं 12. कुर्शीनगर में महापरिरषिनवा�ण।

र्शैल्पि6पक विनमा�णकाय

उ�म षिनमा�णकाय को आ�ार बनाकर उ�म कलाकार के रूप में प्रकट होना 'रै्शस्थिल्पक षिनमा�णकाय' कहलाता है। एक समय र्शाक्यमुषिन ने अपनी कला के अत्तिभमानी गन्धव�राज प्रमुदिदत का दमन करने के चिलए स्वयं को वीणावादक के रूप में प्रकट षिकया था। यह 'रै्शस्थिल्पक षिनमा�णकाय' का उदाहरण है।

नैया�णिणक विनमा�णकाय

उ�म षिनमा�णकाय एवं र्शैस्थिल्पक षिनमा�णकाय के अषितरिरक्त बुद्ध का अन्य सत्त्व के रूप में जन्म लेना 'नैया�त्तिणक षिनमा�णकाय' कहलाता है। उ�म षिनमा�णकाय के रूप में राजा र्शुद्धोदन के पुत्र होने के पहले बुद्ध तुषि.त के्षत्र में देवपुत्र सच्छ्वेतकेतु के रूप में उत्पन्न हुए थें उनका यह जन्म नैया�त्तिणक षिनमा�णकाय का उदाहरण है।

एकयानवाद

संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है, जो षिकसी न षिकसी दिदन बुद्धत्व प्राप्त न कर लेगा। श्रावक और प्रत्येकबुद्ध भी, जिजन्होंने षिनरुपधि�रे्श. षिनवा�ण भी प्राप्त कर चिलया है, यह सम्भव है षिक अनेक कल्पों तक वे षिनवा�ण�ातु में लीन रहें, षिफर भी उनका एक न एक दिदन महायान में प्रवेर्श होगा और वे अवश्य बुद्धत्व प्राप्त करेंगे। आ#ाय� �म�कीर्तित2 ने प्रमाणवार्तित2क में जीवों की चि#�सन्तषित को अनादिद एवं अनन्त चिसद्ध षिकया है*। इससे चिसद्ध होता है षिक षिनरुपधि�रे्श.षिनवा�ण की अवस्था में भी चि#�सन्तषित षिवद्यमान होती है। जब चि#�सन्तषित का उचे्छद नहीं होता, तब कोई कारण नहीं षिक बुद्धत्व प्राप्त न षिकया जा सके। दोनों प्रकार के षिवज्ञानवादिदयों में आलयषिवज्ञान का मानना या न मानना ही सबसे बड़ा अन्तर है। षिकन्तु आलयषिवज्ञान मानने वाले षिवज्ञानवादी एकयानवादी ने होकर षित्रयानवादी होते हैं, यह भी बड़ा अन्तर है। षिवज्ञानवाद की स्थापना या षिवज्ञन्तिप्तमात्रता चिसद्ध करने में भी यद्यषिप दोनों के युचिक्तयों में भेद है, तथाषिप यह र्शैलीगत भेद है, मान्यताओं में नहीं।

तथागतगुह्यक प्रारस्मिम्भक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत धिमलते-जुलते हैं। उदाहरणाथ� मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के

अन्तग�त 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रचिसद्ध है। षिवद्वानों की राय है षिक तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अCादर्शपटल तीनों एक ही हैं। अथा�त ग्रन्थ

में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण धिमलते हैं, वे गुह्यसमाज से त्तिभन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अथा�त त्तिभन्न-त्तिभन्न हैं।

'अCादर्श' इस नाम से यह प्रकट होता है षिक इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिरचे्छद हैं। तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधि�सत्त्व प्रत्तिण�ान करता है षिक श्मर्शान में स्थिस्थत उसके मृत र्शरीर का

षितय�ग योषिन में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिरभोग की वजह से वे स्वग� से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिरषिनवा�ण का भी हेतु हो। आगे षिवस्तार में पढ़ें:- तथागतगुह्यक

दर्शभूमीश्वर

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गण्डव्यूह की भाँषित यह सूत्र भी अवतंसक का एक भाग माना जाता है। इसमें बोधि�सत्त्व की दस आय�भूधिमयों का षिवस्तृत वण�न है, जिजन भूधिमयों पर क्रमर्श: अधि�रोहण करते हुए बुद्धत्व अवस्था तक सा�क पहँु#ता है। 'महावस्तु' में इस चिसद्धान्त का पूव�रूप उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में उक्त चिसद्धान्त का परिरपाक हुआ है।

महायान में इस सूत्र का अत्युच्च स्थान है। इसे दर्शभूधिमक, दर्शभूमीश्वर एवं दर्शभूमक नाम से भी जाना जाता है।

आय� असंग ने 'दर्शभूमक' र्शब्द का ही प्रयोग षिकया है। इसकी लोकषिप्रयता एवं प्रामात्तिणकता में यह प्रमाण है षिक अत्यन्त प्रा#ीनकाल में ही इसके षितब्बती, #ीनी, जापानी एव मंगोचिलयन अनुवाद हो गये थे।

श्री �म�रक्ष ने इसका #ीनी अनुवाद ई. सन 297 में कर दिदया था। इसके प्रषितपादन की रै्शली में लम्बे-लम्बे समस्त पद एवं रूपकों की भरमार है।

धिमचिथला षिवद्यापीठ ने डॉ. जोनेस राठर के संस्करण के आ�ार पर इसका पुन: संस्करण षिकया है। ज्ञात है षिक महायान में दस आय�भूधिमयाँ मानी जाती हैं, यथा- प्रमुदिदता, षिवमला, प्रभाकरी, अर्शि#2ष्मती,

सुदज�या, अत्तिभमुखी, दूरङ्गमा, अ#ला, सा�ुमती एवं �म�मे�ा। आया�वस्था से पूव� जो पृथग्जन भूधिम होती है, उसे 'अधि�मुचिक्त#या�भूधिम' कहते हैं। महायान में पाँ# माग�

होते हैं- सम्भारमाग�, प्रयोगमाग�, दर्श�नमाग�, भावनामाग� एवं अर्शैक्षमाग�। दर्श�नमाग� प्राप्त होने पर बोधि�सत्त्व 'आय�' कहलाने लगता है। उपयु�क्त दस भूधिमयाँ आय� की भूधिमयाँ हैं। दर्श�न माग� की प्रान्तिप्त से पूव� बोधि�सत्व पृथग्जन होता है। सम्भारमाग� एवं प्रयोगमाग� पृथग्जनमाग� हैं और उनकी भूधिम अधि�मुचिक्त#या�भूधिम कहलाती है।

महायान गोत्रीय व्यचिक्त बोधि�चि#� का उत्पाद कर महायान में प्रवेर्श करता है। पृथग्जन अवस्था में सम्भार माग� एवं प्रयोगमाग� का अभ्यास कर दर्श�न माग� प्राप्त करते ही आय� होकर प्रथम प्रमुदिदता भूधिम को प्राप्त करता है। आगे षिवस्तार में पढ़ें :- दर्शभूमीश्वर

वैभावि>क दर्श�न इनका बहुत कुछ साषिहत्य नC हो गया है। इनका षित्रषिपटक संस्कृत में था। इनके अत्तिभ�म� में प्रमुख रूप

में सात ग्रन्थ हैं, जो प्राय: मूल रूप में अनुपलब्ध हैं या आंचिर्शक रूप में उपलब्ध हैं। #ीनी भा.ा में इनका और इनकी षिवभा.ा टीका का अनुवाद उपलब्ध है। वे सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-

1. ज्ञानप्रस्थान,

2. प्रकरणपाद,

3. षिवज्ञानकाय,

4. �म�स्कन्ध,

5. प्रज्ञन्तिप्तर्शास्त्र,

6. �ातुकाय एवं

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7. संगीषितपया�य।

वैभाषि.क और सवा�स्मिस्तवादी दोनों अत्तिभ�म� को बुद्धव#न मानते हैं।

गौतम बुद्ध / Buddhaगौतम बुद्ध का नाम चिसद्धाथ� था। सिस2हली, अनुश्रुषित, खारवेल के अत्तिभलेख, अर्शोक के सिस2हासनारोहण की षितचिथ, कैण्टन के अत्तिभलेख आदिद के आ�ार पर महात्मा बुद्ध की जन्म षितचिथ 563 ई.पूव� स्वीकार की गयी है। इनका जन्म र्शाक्यवंर्श के राजा रु्शद्धोदन की रानी महामाया के गभ� से लुन्धिम्बनी में माघ पूर्णिण2मा के दिदन हुआ था। र्शाक्य गणराज्य की राज�ानी कषिपलवस्तु के षिनकट लंुषिबनी में उनका जन्म हुआ। चिसद्धाथ� के षिपता र्शाक्यों के राजा र्शुद्धो�न थे। बुद्ध को र्शाक्य मुविन भी कहते हैं। चिसद्धाथ� की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है षिक षिफर एक ऋषि. ने कहा षिक वे या तो एक महान राजा बनेंगे, या षिफर एक महान सा�ु। लुंषिबनी में, जो दत्तिक्षण मध्य नेपाल में है, सम्राट अर्शोक ने तीसरी र्शताब्दी ईसा पूव� में बुद्ध के जन्म की स्मृषित में एक स्तम्भ बनवाया था। मथुरा में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तित2याँ धिमली हैं। जो मौय� काल और कु.ाण काल में मथुरा की अषित उन्नत मूर्तित2 कला की अमूल्य �रोहर हैं।

यह षिव�ाता की लीला ही थी षिक लुन्धिम्बनी में जन्म लेने वाले बुद्ध को कार्शी में �म� प्रव��न करना पड़ा। षित्रषिपटक तथा जातकों से कार्शी के तत्कालीन राजनैषितक महत्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्रा#ीन बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँ#वी र्शताखिब्द ई.पूव�) कार्शी की गणना #म्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौर्शाम्बी जैसे प्रचिसद्ध नगरों में होती थी।

पारदर्शD #ीवर �ारण षिकए हुए बुद्धत्तिभक्षु यर्शदिदन्न द्वारा षिनर्मिम2त स्थाषिपत बुद्ध प्रषितमा, मथुराBuddha

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पुत्र जन्म से पहले उनकी माता ने षिवचि#त्र सपने देखे थे। षिपता र्शुद्धोदन ने 'आठ' भषिवष्य वक्ताओं से उनका अथ� पूछा तो सभी ने कहा षिक महामाया को अद्भतु पुत्र रत्न की प्रान्तिप्त होगी। यदिद वह घर में रहा तो #क्रवतD सम्राट बनेगा और यदिद उसने गृह त्याग षिकया तो संन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकार्श से समस्त षिवश्व को आलोषिकत कर देगा। र्शुद्धोदन ने चिसद्धाथ� को #क्रवतD सम्राट बनाना #ाहा, उसमें क्षषित्रयोचि#त गुण उत्पन्न करने के चिलये समुचि#त चिर्शक्षा का प्रबं� षिकया, विक2तु चिसद्धाथ� सदा षिकसी सि#2ता में डूबा दिदखायी देता था। अंत में षिपता ने उसे षिववाह बं�न में बां� दिदया। एक दिदन जब चिसद्धाथ� रथ पर र्शहर भ्रमण के चिलये षिनकले थे तो उन्होंने माग� में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिदर्शा ही बदल डाली। एक बार एक दुब�ल वृद्ध व्यचिक्त को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक र्शव को देख कर वे संसार से और भी अधि�क षिवरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचि#� संन्यासी को देखा। उसके #ेहरे पर र्शांषित और तेज की अपूव� #मक षिवराजमान थी। चिसद्धाथ� उस दृश्य को देख-कर अत्यधि�क प्रभाषिवत हुए।

उनके मन में षिनवृत्ति� माग� के प्रषित षिन:सारता तथा षिनवृषित मण� की ओर संतो. भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन का यह सत्य चिसद्धाथ� के जीवन का दर्श�न बन गया। षिववाह के दस व.� के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्रान्तिप्त हुई। पुत्र जन्म का समा#ार धिमलते ही उनके मँुह से सहसा ही षिनकल पड़ा- 'राहु'- अथा�त बं�न। उन्होंने पुत्र का नाम राहुल रखा। इससे पहले षिक सांसारिरक बं�न उन्हें चिछन्न-षिवस्थिच्छन्न करें, उन्होंने सांसारिरक बं�नों को चिछन्न-त्तिभन्न करना प्रारंभ कर दिदया और गृहत्याग करने का षिन�य षिकया। एक महान राषित्र को 29 व.� के युवक चिसद्धाथ� ज्ञान प्रकार्श की तृष्णा को तृप्त करने के चिलये घर से बाहर षिनकल पडे़।

कुछ षिवद्वानों का मत है षिक गौतम ने यज्ञों में हो रही विह2सा के कारण गृहत्याग षिकया। कुछ अन्य षिवद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ा था।

गृहत्याग के बाद चिसद्धाथ� ज्ञान की खोज में भटकने लगे। विब2षिबसार, उद्रक, आलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेर्शकों से धिमल कर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँ#े। वहाँ उन्हें कौंषिडल्य आदिद पाँ# सा�क धिमले। उन्होंने ज्ञान-प्रान्तिप्त के चिलये घोर सा�ना प्रारंभ कर दी। विक2तु उसमें असफल होने पर वे गया के षिनकट एक वटवृक्ष के नी#े आसन लगा कर बैठ गये और षिन�य कर चिलया षिक भले ही प्राण षिनकल जाए, मैं तब तक समाधि�स्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात दिदन और सात राषित्र व्यतीत होने के बाद, आठवें दिदन वैर्शाख पूर्णिण2मा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिदन वे तथागत हो गये। जिजस वृक्ष के नी#े उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधि�वृक्ष' के नाम से षिवख्यात है। ज्ञान प्रान्तिप्त के समय उनकी अवस्था 35 व.� थी। ज्ञान प्रान्तिप्त के बाद तपस्सु तथा कास्थिल्लक नामक दो रू्शद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिदया और बौद्ध �म� का प्रथम अनुयायी बनाया।

बुद्ध, कुर्शीनगर Buddha, Kushinagar

बो�गया से #ल कर वे सारनाथ पहुँ#े तथा वहाँ अपने पूव�काल के पाँ# साचिथयों को उपदेर्श दे कर अपना चिर्शष्य बना दिदया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेर्श '�म�#क्र प्रव��न' नाम से षिवख्यात है। महात्मा बुद्ध ने कहा षिक इन दो अषितयों से ब#ना #ाषिहये-

काम सुखों में अधि�क चिलप्त होना तथा

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र्शरीर से कठोर सा�ना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम माग� मैंने खोजा है, उसका सेवन करना #ाषिहये।* यही '�म�#क्र प्रवत�न' के रूप में पहला उपदेर्श था। अपने पाँ# अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँ#े। यहाँ उन्होंने एक श्रेधिx पुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूण�रुप से '�म� प्रव��न' में जुट गये। अब तक उ�र भारत में इनका काफ़ी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई बाद महाराज र्शुद्धोदन ने इन्हें देखने के चिलये कषिपलवस्तु बुलवाना #ाहा लेषिकन जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेर्श सुन कर इनका अनुयायी बन जाता था।

इनके चिर्शष्य घूम-घूम कर इनका प्र#ार करते थे। इनके �म� का इनके जीवन काल में ही काफ़ी प्र#ार हो गया था क्योंषिक उन दिदनों कम�कांड का जोर काफ़ी बढ़ #ुका था और पर्शुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस षिनरथ�क हत्या को रोकने तथा जीव मात्र पर दया करने का उपदेर्श दिदया। प्राय: 44 व.� तक षिबहार तथा कार्शी के षिनकटव�D प्रांतों में �म� प्र#ार करने के उपरांत अंत में कुर्शीनगर के षिनकट एक वन में र्शाल वृक्ष के नी#े वृद्धावस्था में इनका परिरषिनवा�ण अथा�त र्शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूव� उन्होंने कुर्शीनारा के परिरव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिन्तम उपदेर्श दिदया।

उनके मुख से विनकले अंवितम र्शब्द थेहे त्तिभक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ षिक जिजतने भी संस्कार हैं, सब नार्श होने वाले हैं, प्रमाद रषिहत हो कर अपना कल्याण करो। यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी व.� के थे।*

वीचिथका

चिसर षिवहीन बुद्ध प्रषितमाHeadless Image of Buddha

बुद्ध मस्तकHead Of Buddha

बुद्ध मूर्तित2,कुर्शीनगरBuddha Statue, Kushinagar

बुद्ध मूर्तित2 का �ड़

Torso Of Buddha Image

बुद्ध मूर्तित2, कुर्शीनगर

Buddha Statue, Kushinagar

ध्यानावस्थिस्थत बुद्ध

Buddha In Meditation

बुद्धBuddha

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बुद्ध गुणअनुक्रम[छुपा]

1 बुद्ध गुण 2 भगवान बुद्ध की चिर्शक्षा 3 षित्रषिव� �म�#क्र प्रवत�न 4 �म�#क्रों की नेयनीताथ�ता 5 बुद्ध की चिर्शक्षा की साव�भौधिमकता

6 सम्बंधि�त सिल2क

बुद्ध में अनन्तानन्त गुण होते हैं। उन्हें #ार भागों में वगDकृत षिकया जाता है, यथा-

1. काय गुण, 2. वाग-गुण,

3. चि#� गुण एवं 4. कम� गुण।

काय-गुण— 32 महापुरु.लक्षण एवं 80 अनुव्यजंन बुद्ध के कायगुण हैं। उनमें से प्रत्येक यहाँ तक षिक प्रत्येक रोम भी सभी ज्ञेयों का साक्षात दर्श�न कर सकता है। बुद्ध षिवश्व के अनेक ब्रह्याण्डों में एक-साथ काधियक लीलाओं का प्रदर्श�न कर सकते हैं। इन लीलाओं द्वारा वे षिवनेयजनों को सन्माग� में प्रषितधिxत करते हैं।

वाग-गुण— बुद्ध की वाणी न्धिस्नग्� वाक्, मृदुवाक, मनोज्ञवाक्, मनोरम वाक्, आदिद कहलाती है। इस प्रकार बुद्ध की वाणी के 64 अंग होते हैं, जिजन्हें 'ब्रह्मस्वर' भी कहते हैं। ये सब बुद्ध के वाग्-गुण हैं।

चि#�-गुण— बुद्ध के चि#�-गुण ज्ञानगत भी होते हैं और करुणागत भी। कुछ गुण सा�ारण भी होते हैं, जो श्रावक और प्रत्येकबुद्ध में भी होते हैं। कुछ गुण असा�ारण होते हैं, जो केवल बुद्ध में ही होते हैं। दर्श बल, #तुवैर्शारद्य, तीन असस्मिम्भन्न स्मृत्युपस्थान, तीन अगुप्त नास्मिस्त मुषि.तस्मृषितता, सम्यक् प्रषितहतवासनत्व, महाकरुणा, अCादर्श आवेत्तिणक गुण आदिद बुद्ध के ज्ञानगत गुण हैं। दु:खी सत्त्वों को देखकर बुद्ध की महाकरुणा अनायास स्वत: प्रवृ� होने लगती है। महाकरुणा के इस अजस्र प्रवाह से जगत का अषिवस्थिच्छन्न रूप से कल्याण होता रहता है। यह उनका करुणागत गुण है।

कम�-गुण— ये दो प्रकार के होते हैं, यथा-

1. षिनराभोग कम� और 2. अषिवस्थिच्छन्न कम�।

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षिनराभोग कम� से तात्पय� उन कम� से है, जो षिबना प्रयत्न या संकल्प के सूय� से प्रकार्श की भांषित स्वत: अपने-आप प्रवृ� होते हैं।

बुद्ध के कम� षिबना काचिलक अन्तराल के लगातार सव�दा प्रवृ� होते रहते हैं, अत: ये अषिवस्थिच्छन्न कम� कहलाते हैं।

भगवान बुद्ध की णिर्शक्षामनुष्य जिजन दु:खों से पीषिड़त है, उनमें बहुत बड़ा षिहस्सा ऐसे दु:खों का है, जिजन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, ग़लत ज्ञान या धिमथ्या दृधिCयों से पैदा कर चिलया हैं उन दु:खों का प्रहाण अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, षिकसी के आर्शीवा�द या वरदान से उन्हें दूर नहीं षिकया जा सकता। सत्य या यथाथ�ता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। अत: सत्य की खोज दु:खमोक्ष के चिलए परमावश्यक है। खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है। यदिद सत्य षिकसी र्शास्त्र, आगम या उपदेर्शक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज नहीं। अत: बुद्ध ने अपने पूव�वतD लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिदया और अपने चिलए नए चिसरे से उसकी खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रषितबद्ध नहीं हुए और न तो अपने चिर्शष्यों को उन्होंने कहीं बां�ा। उन्होंने कहा षिक मेरी बात को भी इसचिलए #ुप#ाप न मान लो षिक उसे बुद्ध ने कही है। उस पर भी सन्देह करो और षिवषिव� परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से धिमलान करो, यदिद तुम्हें सही जान पडे़ तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। यही कारण था षिक उनका �म� रहस्याडम्बरों से मुक्त, मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एवं हृदय को सी�े स्पर्श� करता था।

वि1विव� �म�$क्र प्रवत�नभगवान बुद्ध प्रज्ञा व करुणा की मूर्तित2 थे। ये दोनों गुण उनमें उत्क.� की पराकाxा प्राप्त कर समरस होकर स्थिस्थत थे। इतना ही नहीं, भगवान बुद्ध अत्यन्त उपायकुर्शल भी थे। उपाय कौर्शल बुद्ध का एक षिवचिर्शC गुण है अथा�त वे षिवषिव� प्रकार के षिवनेय जनों को षिवषिव� उपायों से सन्माग� पर आरूढ़ करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे यह भलीभाँषित जानते थे षिक षिकसे षिकस उपाय से सन्माग� पर आरूढ़ षिकया जा सकता है। फलत: वे षिवनेय जनों के षिव#ार, रूचि#, अध्यार्शय, स्वभाव, क्षमता और परिरस्थिस्थषित के अनुरूप उपदेर्श दिदया करते थे। भगवान बुद्ध की दूसरी षिवर्शे.ता यह है षिक वे सन्माग� के उपदेर्श द्वारा ही अपने जगत्कल्याण के काय� का सम्पादन करते हैं, न षिक वरदान या ऋजिद्ध के बल से, जैसे षिक चिर्शव या षिवष्णु आदिद के बारे में अनेक कथाए ंपुराणों में प्र#चिलत हैं। उनका कहना है षिक तथागत तो मात्र उपदेCा हैं, कृत्यसम्पादन तो स्वयं सा�क व्यचिक्त को ही करना है। वे जिजसका कल्याण करना #ाहते हैं, उसे �म� (पदाथ�) की यथाथ�ता का उपदेर्श देते थे। भगवान बुद्ध ने त्तिभन्न-त्तिभन्न समय और त्तिभन्न-त्तिभन्न स्थानों में षिवनेय जनों को अनन्त उपदेर्श दिदये थे। सबके षिव.य, प्रयोजन और पात्र त्तिभन्न-त्तिभन्न थे। ऐसा होने पर भी समस्त उपदेर्शों का अन्तिन्तम लक्ष्य एक ही था और वह था षिवनेय जनों को दु:खों से मुचिक्त की ओर ले जाना। मोक्ष या षिनवा�ण ही उनके समस्त उपदेर्शों का एकमात्र रस है।

�म�$क्रों की नेयनीताथ�ताषिवज्ञानवाद और स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमकों के अनुसार नीताथ�सूत्र वे हैं, जिजनका अत्तिभप्राय यथारुत (र्शब्द के अनुसार) ग्रहण षिकया जा सकता है तथा नेयाथ� सूत्र वे हैं, जिजनका अत्तिभप्राय र्शब्दर्श: ग्रहण नहीं षिकया जा सकता, अषिपतु उनका अत्तिभप्राय खोजना पड़ता है, जैसे- माता और षिपता की हत्या करने से व्यचिक्त षिनष्पाप होकर षिनवा�ण प्राप्त करता है। मातर षिपतरं हत्वा....अनीघो याषित ब्राह्मणो* इस व#न का अथ� र्शब्दर्श: ग्रहण नहीं षिकया जा सकता, अषिपतु यहाँ षिपता का अत्तिभप्राय कम�भव और माता का अत्तिभप्राय तृष्णा से है। इस प्रकार की देर्शना आत्तिभप्राधियकी या नेयाथा� कहलाती है। प्रासंषिगक माध्यधिमकों के मत में नेयाथ� और नीताथ� की

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व्याख्या उपयु�क्त व्याख्या से षिकस्थिञ्#त त्तिभन्न है। उनके अनुसार जिजन सूत्रों का प्रषितपाद्य षिव.य परमाथ� सत्य अथा�त र्शून्यता, अषिनधिम�ता, अनुत्पाद, अषिनरो� आदिद हैं, वे नीताथ� सूत्र हैं तथा जिजन सूत्रों का प्रषितपाद्य षिव.य संवृषित सत्य है, वे नेयाथ� सूत्र हैं। नेयाथ�ता और नीताथ�ता की व्यवस्था वे आय� –अक्षयमषितषिनद«र्शसूत्र के अनुसार करते हैं।

प्रथम �म�$क्रप्रवत�न

काल की दृधिC से यह प्रथम है। वाराणसी का ऋषि.पतन मृगदाव इसका स्थान है। इसके षिवनेय जन (पात्र) श्रावकवगDय वे लोग हैं, जो स्वलक्षण और बाह्याथ� की स�ा पर आ�ृत #तुर्तिव2� आय� सत्यों की देर्शना के पात्र (भव्य) हैं स्वलक्षण स�ा एवं बाह्य स�ा के आ�ार पर #ार आय�सत्यों की स्थापना इस प्रथम �म�#क्र की षिव.यवस्तु है। श्रावकवगDय लोगों की दृधिC से यह नीताथ� देर्शना है। योगा#ार और माध्यधिमक इसे नेयाथ� देर्शना मानते हैं।

वि-तीय �म�$क्र प्रवत�न

काल की दृधिC से यह मध्यम है। इसका स्थान प्रमुखत: गृध्रकूट पव�त है। इसके षिवनेय जन महायानी पुद्गल हैं। रू्शन्यता, अषिनधिम�ता, अनुत्पाद, अषिनरो� आदिद उसके प्रमुख प्रषितपाद्य षिव.य हैं। इस देर्शना के द्वारा समस्त �म� षिन:स्वभाव प्रषितपादिदत षिकये गये हैं। षिवज्ञानवादी इसे नेयाथ� देर्शना मानते हैं। आ#ाय� भावषिववेक, ज्ञानगभ�, र्शान्तरत्तिक्षत, कमलर्शील आदिद स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमकों का इस देर्शना की नेयाथ�ता और नीताथ�ता के बारे में प्रासषिङ्गक माध्यधिमकों से मतभेद हैं। उनके अनुसार आय� र्शतसाहन्धिस्त्रका प्रज्ञापारधिमता आदिद कुछ सूत्र नीताथ� सूत्र हैं, क्योंषिक इनमें समस्त �म� की परमाथ�त: षिन:स्वभावता षिनर्दिद2C है। भगवती प्रज्ञापारधिमता हृदयसूत्र आदिद कुछ सूत्र यद्यषिप षिद्वतीय �म�#क्र के अन्तग�त संगृहीत हैं, तथाषिप वे नीताथ� नहीं माने जाते, क्योंषिक इनके द्वारा जिजस प्रकार की सव��म�षिन:स्वभावना प्रषितपादिदत की गई है, उस प्रकार की षिन:स्वभावता स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमकों को मान्य नहीं है। यद्यषिप इन सूत्रों का अत्तिभप्राय भी परमाथ�त: षिन:स्वभावता है, तथाषिप उनमें 'परमाथ�त:' यह षिवरे्श.ण स्पCतया उस्थिल्लखिखत नहीं है, जो षिक उनके मतानुसार नीताथ� सूत्र होने के चिलए परमावश्यक है।

तृतीय �म�$क्रप्रवत�न

काल की दृधिC से यह अन्तिन्तम है। इसका स्थान वैर्शाली आदिद प्रमुख हैं। श्रावक एवं महायानी दोनों प्रकार के पुद्गल इसके षिवनेय जन हैं। रू्शन्यता, अनुत्पाद, अषिनरो� आदिद इसके षिव.यवस्तु हैं। षिवज्ञानवादिदयों के अनुसार यह नीताथ� देर्शना है। यद्यषिप षिद्वतीय और तृतीय दोनों �म�#क्रो में र्शून्यता प्रषितपादिदत की गई है, तथाषिप षिद्वतीय �म�#क्र में समस्त �म� को समान रूप से षिन:स्वभाव कहा गया है, जबषिक इस तृतीय �म�#क्र में यह भेद षिकया गया है षिक अमुक �म� अमुक दृधिC से षिन:स्वभाव है और अमुक �म� षिन:स्वभाव नहीं, अषिपतु सस्वभाव है। इसी के आ�ार पर षिवज्ञानवादी दर्श�न प्रषितधिxत है। इस कारण षिवज्ञानवादी समस्त �म� को समानरूप से षिन:स्वभाव नहीं मानते। उनके अनुसार �म� में से कुछ षिन:स्वभाव हैं और कुछ सस्वभाव हैं। अत: वे समान रूप से सव��म�षिन:स्वभावता प्रषितपादक षिद्वतीय �म�#क्र को नीताथ� नहीं मानते। उनके मतानुसार जो सूत्र �म� की षिन:स्वभावता और सस्वभावता का सम्यक षिवभाजन करते हैं, वे ही नीताथ� माने जाते हैं। इनमें आय�सन्धिन्धषिनमo#नसूत्र प्रमुख है।

भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित2त होने पर भी बौद्ध दर्श�न कोई एक दर्श�न नहीं, अषिपतु दर्श�नों का समूह है। षिवत्तिभन्न दार्श�षिनक मुद्दों पर उनमें परस्पर मतभेद भी है। कोई परमाणुवादी हैं तो कोई परमाणु की स�ा नहीं मानते। कोई साकार ज्ञानवादी हैं तो कोई षिनराकार ज्ञानवादी। कुछ बातों में षिव#ारसाम्य होने पर भी मतभेद अधि�क हैं। र्शब्दसाम्य होने पर भी अथ�भेद अधि�क हैं। अनेक र्शाखोपर्शाखाओं के होने पर

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भी दार्श�षिनक मान्यताओं के साम्य की दृधिC से बौद्ध षिव#ारों का #ार षिवभागों में वगDकरण षिकया गया है, यथा-

1. वैभाषि.क,

2. सौत्रान्तिन्तक,

3. योगा#ार (षिवज्ञानवाद) और 4. माध्यधिमक (रू्शन्यवाद)।

दार्श�षिनक मन्तव्यों को समझने से पहले भगवान बुद्ध की उन सामान्य चिर्शक्षाओं की ##ा� करना #ाहते हैं, जो सभी #ारों दार्श�षिनक प्रस्थानों में समानरूप से मान्य हैं, यद्यषिप उनकी व्याख्या में मतभेद हैं।

बुद्ध की णिर्शक्षा की साव�भौमिमकताभा>ा

भगवान बुद्ध ने षिकस भा.ा में उपदेर्श दिदए, इसे जानने के चिलए हमारे पास पुष्कल प्रामात्तिणक सामग्री का अभाव है, षिफर भी इतना षिनत्ति�त है षिक उनके उपदेर्शों की भा.ा कोई लोकभा.ा ही थी। इसके अनेक कारण हैं।

1. पहला यह षिक वह अपना सन्देर्श जन-जन तक पहँु#ाना #ाहते थे, न षिक षिवचिर्शC जनों तक ही। इसके चिलए आवश्यक था षिक वे जनभा.ा में ही उपदेर्श देते।

2. दूसरा यह षिक भा.ा षिवरे्श. की पषिवत्रता पर उनका षिवश्वास न था। वे यह नहीं मानते थे षिक रु्शद्ध भा.ा के उच्चारण से पुण्य होता है। बुद्ध ने कहा षिक मैं अपनी-अपनी भा.ा में उन्हें संगृहीत करने की अनुमषित प्रदान करता हूँ- 'अनुजानाधिम त्तिभक्खवे, सकाय षिनरुत्ति�या बुद्धव#नं परिरयापुत्तिणतंु षित*'। फलत: उनके उपदेर्श पैर्शा#ी, संस्कृत, अपभं्रर्श, माग�ी आदिद अनेक भा.ाओं में संकचिलत हुए।

मानव-समता

भगवान बुद्ध के अनुसार �ार्मिम2क और आध्यान्धित्मक के्षत्र में सभी स्त्री एवं पुरु.ों में समान योग्यता एवं अधि�कार हैं। इतना ही नहीं, चिर्शक्षा, चि#षिकत्सा और आजीषिवका के क्षेत्र में भी वे समानता के पक्ष�र थे। उनके अनुसार एक मानव का दूसरे मानव के साथ व्यवहार मानवता के आ�ार पर होना #ाषिहए, न षिक जाषित, वण�, चिलङ्ग आदिद के आ�ार पर। क्योंषिक सभी प्राणी समानरूप से दु:खी हैं, अत: सब समान हैं। दु:ख प्रहाण ही उनके �म� का प्रयोजन है। अत: संवेदना और सहानुभूषित ही इस समता के आ�ारभूत तत्त्व हैं। उन्होंने कहा षिक जैसे सभी नदिदयाँ समुद्र में धिमलकर अपना नाम, रूप और षिवर्शे.ताए ंखो देती हैं, उसी प्रकार मानवमात्र उनके संघ में प्रषिवC होकर जाषित, वण� आदिद षिवरे्श.ताओं को खो देते हैं और समान हो जाते हैं। षिनवा�ण ही उनके �म� का एकमात्र रस है।

मानवश्रेष्ठता

बुद्ध के अनुसार मानवजन्म अत्यन्त दुल�भ है। मनुष्य में वह बीज षिनषिहत है, जिजसकी वजह से यदिद वह #ाहे तो अभ्युदय एवं षिन:श्रेयस अथा�त् षिनवा�ण और बुद्धत्व जैसे परम पुरु.ाथ� भी चिसद्ध कर सकता है। देवता श्रेx नहीं हैं, क्योंषिक वे व्यापक तृष्णा के के्षत्र के बाहर नहीं हैं। अत: मनुष्य उनका दास नहीं है, अषिपतु उनके उद्धार का

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भार भी मनुष्य के ऊपर ही हैं। इसीचिलए उन्होंने कहा षिक त्तिभकु्षओं, बहुजन के षिहत और सुख के चिलए तथा देव और मनुष्यों के कल्ण के चिलए लोक में षिव#रण करो। ऋषि.पतन मृगदाव (सारनाथ) में अपने प्रथम व.ा�वास के अनन्तर त्तिभक्षुओं को उनका यह उपदेर्श मानवीय स्वतन्त्रता और मानवश्रेxता का अप्रषितम उद.्ो. है।

व्यावहारिरकता

बुद्ध की चिर्शक्षा अत्यन्त व्यावहारिरक थी। उसमें षिकसी भी तरह के रहस्यों और आडम्बरों के चिलए कोई स्थान न थां उनका चि#न्तन प्रात्तिणयों के व्यापक दु:खों के कारण की खोज से प्रारम्भ होता है, न षिक षिकसी अत्यन्त षिनगूढ, गुहाप्रषिवC तत्त्व की खोज से। वे यावज्जीवन दु:खों के अत्यन्त षिनरो� का उपाय ही बताते रहे। उन्होंने ऐसे प्रश्नों का उ�र देने से इन्कार कर दिदया और उन्हें अव्याकरणीय (अव्याख्येय) करार दिदया, जिजनके द्वारा यह पूछा जाता था षिक यह लोक र्शाश्वत है षिक अर्शाश्वत; यह लोक अनन्त है षिक सान्त अथवा तथागत मरण के प�ात होते हैं या नहीं- इत्यादिद। उनका कहना था षिक ऐसे प्रश्न और उनका उ�र न अथ�संषिहत है और न �म�संषिहत।

मध्यमा प्रवितपदा

भगवान बुद्ध ने जिजस �म�#क्र का प्रवत�न षिकया अथवा जिजस माग� का उन्होंने उपदेर्श षिकया, उसे 'मध्यमा प्रषितपदा' कहा जाता है। परस्पर-षिवरो�ी दो अन्तों या अषितयों का षिन.े� कर भगवान ने मध्यम माग� प्रकाचिर्शत षिकया है। मनुष्य का स्वभाव है षिक वह बड़ी आसानी से षिकसी अन्त में पषितत हो जाता है और उस अन्त को अपना पक्ष बनाकर उसके प्रषित आग्रहर्शील हो जाता है। यह आग्रहर्शीलता ही सारे मानवीय षिवभेदों, संघ.� और दु:खों का मूल है। मध्यमा प्रषितपद ्अनाग्रहर्शीलता है और समस्याओं से मुचिक्त का सवo�म राजपथ हैं इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है और इसमें अनन्त सम्भावनाए ंषिनषिहत है। सामाजिजक, आर्शिथ2क और राजनीषितक समस्याओं के समा�ान में भी इसकी उपयोषिगता सम्भाषिवत हैं, षिकन्तु अभी तक उन दिदर्शाओं में इसका अध्ययन और प्रयोग नहीं षिकया जा सका। र्शील, समाधि� और प्रज्ञा या दर्श�न के क्षेत्र में ही उसकी प्रा#ीन व्याख्याए ंउपलब्ध होती हैं। लीनता और उद्धव (औद्धत्व) ये दोनों दो. हैं, जो समाधि� के बा�क हैं। समाधि� चि#� का समप्रवाह है। यह समाधि� की दृधिC से मध्यमप्रषितपदा है। प्रज्ञा की दृधिC से र्शार्शवतवाद (षिनत्यता के प्रषित आग्रह) एक अन्त है और उचे्छदवाद (ऐषिहकवाद) दूसरा अन्त है। इन दोनों अन्तों का षिनरास मध्यमा प्रषितपद ्है। यही सम्यग् दृधिC है। इसके षिबना अभ्युदय और षिन:श्रेयस कोई भी पुरु.ाथ� चिसद्ध नहीं षिकया जा सकता। सभी बौद्ध दार्श�षिनक मध्यम-प्रषितपदा स्वीकार करते हैं, षिकन्तु वे र्शाश्वत और उचे्छद अन्त की त्तिभन्न-त्तिभन्न व्याख्याए ंकरते हैं।

प्रतीत्यसमुत्पाद

प्रतीत्यसमुत्पाद सारे बुद्ध षिव#ारों की रीढ़ है। बुद्ध पूर्णिण2मा की राषित्र में इसी के अनुलोम-प्रषितलोम अवगाहन से बुद्ध ने बुद्धत्व का अधि�गत षिकया। प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान ही बोधि� है। यही प्रज्ञाभूधिम है। अनेक गुणों के षिवद्यमान होते हुए भी आ#ाय� ने बड़ी श्रद्धा और भचिक्तभाव से ऐसे भगवान बुद्ध का स्तवन षिकया है, जिजन्होंने अनुपम और अनु�र प्रतीत्यसमुत्पाद की देर्शना की है। #ार आय�सत्य, अषिनत्यता, दु:खता, अनात्मता क्षणभङ्गवाद, अनात्मवाद, अनीश्वरवाद आदिद बौद्धों के प्रचिसद्ध दार्श�षिनक चिसद्धान्त इसी प्रतीत्यसमुत्पाद के प्रषितफलन हैं।

कम�स्वातन्त्र्य

बौद्धों का कम�-चिसद्धान्त भारतीय परम्परा में ही नहीं, अषिपतु षिवश्व की �ार्मिम2क परम्परा में बेजोड़ एवं सबसे त्तिभन्न है। प्राय: सभी लोग कम� को जड़ मानते हैं, अत: कम� के कता� को उन कम� के फल से अन्तिन्वत करने के चिलए

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एक अषितरिरक्त #ेतन या ईश्वर के अस्मिस्तत्व की आवश्यकता महसूस करते हैं। उनके अनुसार ऐसे अषितरिरक्त #ेतन के अभाव में कम�-कम�फल व्यवस्था बन नहीं सकेगी और सारी व्यवस्था अस्तव्यस्त हो जाएगी। जबषिक बौद्ध लोग कम� को जड़ ही नहीं मानते। भगवान बुद्ध ने कम� को '#ेतना' कहा है* कम� क्योंषिक #ेतना है, अत: वह अपने फल को स्वयं अंगीकार या आकृC कर लेती है। #ेतना-प्रवाह में कम�-कम�फल की सारी व्यवस्था सु#ारुतया सम्पन्न हो जाती है। इसचिलए फल देने के चिलए एक अषितरिरक्त #ेतन या ईश्वर को मानने की उन्हें कतई आवश्यकता नहीं हैं इसीचिलए षिवश्व के सारे आध्यान्धित्मक �म� के बी# में बौद्ध एकमात्र अनीश्वरवादिदयों में प्रमुख हैं।

अपने सुख-दु:खों के चिलए प्राणी स्वयं ही उ�रदायी हैं। अपने अज्ञान और धिमथ्यादृधिCयों से ही उन्होंने स्वयं अपने चिलए दु:खों का उत्पाद षिकया है, अत: कोई दूसरी र्शचिक्त ईश्वर या महेश्वर उन्हें मुक्त नहीं कर सकता। इसके चिलए उन्हें स्वयं प्रयास करना होगा। षिकसी के वरदान या कृपा से दु:खमुचिक्त असम्भव है। कोई महापुरु., जिजसने अपने दु:खों का प्रहाण कर चिलया हो, अपने अनुभव के आ�ार पर दु:खमुचिक्त का माग� अवश्य बता सकता है, षिकन्तु उसकी बातों की परीक्षा कर, सही प्रतीत होने पर उस माग� पर प्राणी को स्वयं #लना होगा। इस कम� चिसद्धान्त के द्वारा मानव-स्वतन्त्रता और आत्म-उ�रदाधियत्व का षिवचिर्शC बो� प्रषितफचिलत होता है। यह भारतीय संस्कृषित में बौद्धों का अनुपम योगदान है।

महाकविव अश्वघो> / Ashvaghoshसंस्कृत में बौद्ध महाकाव्यों की र#ना का सूत्रपात सव�प्रथम महाकषिव अश्वघो. ने ही षिकया था। अत: महाकषिव अश्वघो. संस्कृत के प्रथम बौद्धकषिव हैं। #ीनी अनुश्रुषितयों तथा साषिहन्तित्यक परम्परा के अनुसार महाकषिव अश्वघो. सम्राट कषिनष्क के राजगुरु एवम् राजकषिव थे। इषितहास में कम से कम दो कषिनष्कों का उल्लेख धिमलता है। षिद्वतीय कषिनष्क प्रथम कषिनष्क का पौत्र था। दो कषिनष्कों के कारण अश्वघो. के समय असंदिदग्� रूप से षिनणDत नहीं था।

षिवण्टरषिनत्स के अनुसार कषिनष्क 125 ई॰ में सिस2हासन पर आसीन हुआ था। तदनुसार अश्वघो. का स्थिस्थषितकाल भी षिद्वतीय र्शती ई॰ माना जा सकता है। परन्तु अधि�कांर्श षिवद्वानों की मान्यता है षिक कषिनष्क र्शक संवत का प्रवत�क है। यह संवत्सर 78 ई॰ से प्रारम्भ हुआ था। इसी आ�ार पर कीथ अश्वघो. का समय 100 ई॰ के लगभग मानते हैं। कषिनष्क का राज्यकाल 78 ई॰ से 125 ई॰ तक मान लेने पर महाकषिव अश्वघो. का स्थिस्थषितकाल भी प्रथम र्शताब्दी माना जा सकता है।

बौद्ध �म� के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक प्रमाण धिमलते हैं, जिजनके आ�ार पर अश्वघो., सम्राट कषिनष्क के समकालीन चिसद्ध होते हैं। #ीनी परम्परा के अनुसार सम्राट कषिनष्क के द्वारा काश्मीर के कुण्डलव में आयोजिजत अनेक अन्त:साक्ष्य भी अश्वघो. को कषिनष्क का समकालीन चिसद्ध करते हैं।

अश्वघो. कृत 'बुद्ध#रिरत' का #ीनी अनुवाद ईसा की पां#वीं र्शताब्दी का उपलब्ध होता है। इससे षिवदिदत होता है षिक भारत में पया�प्त रूपेण प्र#ारिरत होने के बाद ही इसका #ीनी अनुवाद हुआ होगा।

सम्राट अर्शोक का राज्यकाल ई॰पू॰ 269 से 232 ई॰ पू॰ है, यह तथ्य पूण�त: इषितहास-चिसद्ध है। 'बुद्ध#रिरत' के अन्त में अर्शोक का उल्लेख होने के कारण यह षिनत्ति�त होता है षिक अश्वघो. अर्शोक के परवतD थे।

#ीनी परम्परा अश्वघो. को कषिनष्क का दीक्षा-गुरु मानने के पक्ष में है। अश्वघो. कृत 'अत्तिभ�म�षिपटक' की षिवभा.ा नाम्नी एक व्याख्या भी प्राप्त होती है जो कषिनष्क के ही समय में र#ी गयी थी।

अश्वघो. रचि#त 'र्शारिरपुत्रप्रकरण' के आ�ार पर प्रो0 ल्यूडस� ने इसका र#नाकाल हुषिवष्क का र्शासनकाल स्वीकार षिकया है। हुषिवष्क के राज्यकाल में अश्वघो. की षिवद्यमानता ऐषितहाचिसक दृधिC से

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अप्रमात्तिणक है। इनका राज्यारोहणकाल कषिनष्क की मृत्यु के बीस व.� के बाद है। हुषिवष्क के प्राप्त चिसक्कों पर कहीं भी बुद्ध का नाम नहीं धिमलता, षिकन्तु कषिनष्क के चिसक्कों पर बुद्ध का नाम अंषिकत है। कषिनष्क बौद्ध�मा�वलम्बी थे और हुषिवष्क ब्राह्मण �म� का अनुयायी था। अत: अश्वघो. का उनके दरबार में षिवद्यमान होना चिसद्ध नहीं होता।

काचिलदास तथा अश्वघो. की र#नाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के प�ात यह षिनष्क.� षिनकलता है षिक अश्वघो. काचिलदास के परवतD थे। काचिलदास की षितचिथ प्रथम र्शताब्दी ई॰ पू॰ स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है षिक दोनों र#नाओं में जो साम्य परिरलत्तिक्षत होता है उससे काचिलदास का ऋण अश्वघो. पर चिसद्ध होता है। अश्वघो. के ऊपर काचिलदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है षिक काचिलदास ने कुमारसंभव और रघुवंर्श में जिजन श्लोंकों को चिलखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघो. ने बुद्ध#रिरत में षिकया है। काचिलदास ने षिववाह के बाद प्रत्यागत चिर्शव-पाव�ती को देखने के चिलए उत्सुक कैलास की ललनाओं का तथा स्वयम्वर के अनन्तर अज और इन्दुमती को देखने के चिलए उत्सुक षिवदभ� की रमत्तिणयों का क्रमर्श: कुमारसंभव तथा रघुवंर्श में जिजन श्लोकों द्वारा वण�न षिकया है, उन्हीं के भावों के माध्यम से अश्वघो. ने भी राजकुमार चिसद्धाथ� को देखने के चिलए उत्सुक कषिपलवस्तु की सुन्दरिरयों का वण�न षिकया है। बुद्ध#रिरत का षिनम्नश्लोक-

वातायनेभ्यस्तु षिवषिन:सृताषिन परस्परायाचिसतकुण्डलाषिन।

स्त्रीणां षिवरेजुमु�खपङकजाषिन सक्ताषिन हम्य«न्धिष्वव पङकजाषिन॥* कुमारसंभव तथा रघुवंर्श के षिनम्नश्लोक-

तासां मुखैरासवगन्धगभ²व्या�प्तान्तरा सान्द्रकुतूहलानाम्।

षिवलोलनेत्रभ्रमरैग�वाक्षा: सहस्रपत्राभरणा इवासन्।* की प्रषितच्छाया है। उपयु�क्त श्लोकद्वय के तुलनात्मक अध्ययन से यह चिसद्ध होता है षिक अश्वघो. काचिलदास के ऋणी थे, क्योंषिक जो मूल कषिव होता है वह अपने सुन्दर भाव को अनेकत्र व्यक्त करता है। उस भाव का प्र#ार-प्रसार #ाहता है इसीचिलए काचिलदास ने कुमारसंभव और र�ुवंर्श में अपने भाव को दुहराया है। परन्तु अश्वघो. ने काचिलदास का अनुकरण षिकया है। अत: उन्होंने एक ही बार इस भाव को चिलया है। फलत: अश्वघो. काचिलदास से परवतD हैं।

व्यधिMत्व तथा कतृ�व्यसंस्कृत के प्रथम बौद्ध महाकषिव अश्वघो. के जीवनवृ� से सम्बन्धिन्धत अत्यल्प षिववरण ही प्राप्त है। 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्य की पुन्धिष्पका से ज्ञात होता है षिक इनकी माता का नाम सुवणा�क्षी था तथा ये साकेत के षिनवासी थे। ये महाकषिव के अषितरिरक्त 'भदन्त', 'आ#ाय�' तथा 'महावादी' आदिद उपाधि�यों से षिवभूषि.त थे।* उनके काव्यों की अन्तरंग परीक्षा से ज्ञात होता है षिक वे जाषित से ब्राह्मण थे तथा वैदिदक साषिहत्य, महाभारत-रामायण के मम�ज्ञ षिवद्वान थे। उनका 'साकेतक' होना इस तथ्य का परिर#ायक है षिक उन पर रामायण का व्यापक प्रभाव था।

सम्राट कषिनष्क के राजकषिव अश्वघो. बौद्ध �म� के कट्टर अनुयायी थे। इनकी र#नाओं पर बौद्ध �म� एवम् गौतम बुद्ध के उपदेर्शों का पया�प्त प्रभाव परिरलत्तिक्षत होता है। अश्वघो. ने �म� का प्रसार करने के उदे्दश्य से ही कषिवता चिलखी थी। अपनी कषिवता के षिव.य में अश्वघो. की सुस्पC उद्घो.णा है षिक मुचिक्त की ##ा� करनेवाली यह कषिवता र्शान्तिन्त के चिलए है, षिवलास के चिलए नहीं।* काव्य-रूप में यह इसचिलए चिलखी गई है ताषिक अन्यमनस्क श्रोता को अपनी ओर आकृC कर सके।

अश्वघो. बौद्ध-दर्श�न-साषिहत्य के प्रकाण्ड पस्थिण्डत थे। इनकी गणना उन कलाकारों की श्रेणी में की जाती है जो कला की यवषिनका के पीछे चिछपकर अपनी मान्यताओं को प्रकाचिर्शत करते हैं। इन्होंने

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कषिवता के माध्यम से बौद्ध �म� के चिसद्धान्तों का षिववे#न कर जनसा�ारण के चिलए सरलता तथा सरलतापूव�क सुलभ एवम् आक.�क बनाने का सफल प्रयास षिकया है। इनकी समस्त र#नाओं में बौद्ध�म� के चिसद्धान्त प्रषितषिबन्धिम्बत हुए हैं। भगवान बुद्ध के प्रषित अपरिरधिमत आस्था तथा अन्य �म� के प्रषित सषिहष्णुता महाकषिव अश्वघो. के व्यचिक्तत्व की अन्यतम षिवर्शे.ता है। अश्वघो. कषिव होने के साथ ही संगीत मम�ज्ञ भी थे। उन्होंने अपने षिव#ारों को प्रभावर्शाली बनाने के चिलए काव्य के अषितरिरक्त गीतात्मकता को प्रमुख सा�न बनाया।*

बहुमुखी प्रषितभा के �नी तथा संस्कृत के बहुश्रुत षिवद्वान महाकषिव अश्वघो. में र्शास्त्र और काव्य-सज�न की समान प्रषितभा थी। उनके व्यचिक्तत्व में कषिवत्व तथा आ#ाय�त्व का मत्तिणकां#न संयोग था। उन्होंने सज्रसू#ी, महायानश्रद्धोत्पादर्शास्त्र तथा सूत्रालंकार अथवा कल्पनामस्थिण्डषितका नामक �म� और दर्श�न षिव.यों के अषितरिरक्त र्शारिरपुत्रप्रकरण नामक एक रूपक तथा बुद्ध#रिरत तथा सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की भी र#ना की। इन र#नाओं में बुद्ध#रिरत महाकषिव अश्वघो. का कीर्तित2स्तम्भ है। इसमें कषिव ने तथागत के सास्मित्त्वक जीवन का सरल और सरस वण�न षिकया है। 'सौन्दरनन्द' अश्वघो.प्रणीत षिद्वतीय महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नन्द का #रिरत वर्णिण2त है। इन र#नाओं के माध्यम से बौद्ध �म� के चिसद्धान्तों का षिववे#न कर उन्हें जनसा�ारण के चिलए सुलभ कराना ही महाकषिव अश्वघो. का मुख्य उदे्दश्य था। इनकी समस्त र#नाओं में बौद्ध �म� के चिसद्धान्त सुस्पC रूप से प्रषितषिबन्धिम्बत हैं। अश्वघो. प्रणीत महाकाव्यों में बुद्ध#रिरत अपूण� तथा सौन्दरनन्द पूण� रूप में मूल संस्कृत में उपलब्ध है।

बुद्ध$रिरतम / Budhcharitबुद्ध#रिरत महाकषिव अश्वघो. की कषिवत्व-कीर्तित2 का आ�ार स्तम्भ है, षिकन्तु दुभा�ग्यवर्श यह महाकाव्य मूल रूप में अपूण� ही उपलब्ध है। 28 सग� में षिवरचि#त इस महाकाव्य के षिद्वतीय से लेकर त्रयोदर्श सग� तक तथा प्रथम एवम् #तुद�र्श सग� के कुछ अंर्श ही धिमलते हैं। इस महाकाव्य के रे्श. सग� संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। इस महाकाव्य के पूरे 28 सग� का #ीनी तथा षितब्बती अनुवाद अवश्य उपलब्ध है। महाकाव्य का आरम्भ बुद्ध के गभा��ान से तथा बुद्धत्व-प्रान्तिप्त में इसकी परिरणषित होती है। यह महाकव्य भगवान बुद्ध के संघ.�मय सफल जीवन का ज्वलन्त, उज्ज्वल तथा मूत� चि#त्रपट है। इसका #ीनी भा.ा में अनुवाद पां#वीं र्शताब्दी के प्रारम्भ में �म�रक्ष, �म�क्षेत्र अथवा �मा�क्षर नामक षिकसी भारतीय षिवद्वान ने ही षिकया था तथा षितब्बती अनुवाद नवीं र्शताब्दी से पूव�वतD नहीं है। इसकी कथा का रूप-षिवन्यास वाल्मीषिक कृत रामायण से धिमलता-जुलता है।

बुद्ध$रिरत 28 सग� में था जिजसमें 14 सग� तक बुद्ध के जन्म से बुद्धत्व-प्रान्तिप्त तक का वण�न है। यह अंर्श अश्वघो. कृत मूल संस्कृत सम्पूण� उपलब्ध है। केवल प्रथम सग� के प्रारम्भ सात श्लोक और #तुद�र्श सग� के ब�ीस से एक सौ बारह तक (81 श्लोक) मूल में नहीं धिमलते हैं। #ौखम्बा संस्कृत सीरीज तथा #ौखम्बा षिवद्याभवन की पे्ररणा से उन श्लोकों की र#ना श्री राम#न्द्रदास ने की है। उन्हीं की प्रेरणा से इस अंर्श का अनुवाद भी षिकया गया है।

15 से 28 सग� की मूल संस्कृत प्रषित भारत में बहुत दिदनों से अनुपलब्ध है। उसका अनुवाद षितब्बती भा.ा में धिमला था। उसके आ�ार पर षिकसी #ीनी षिवद्वान ने #ीनी भा.ा में अनुवाद षिकया तथा आक्सफोट� षिवश्वषिवद्यालय से संस्कृत अध्यापक डाक्टर जॉन्सटन ने उसे अंग्रेजी में चिलखा। इसका अनुवाद श्रीसूय�नारायण #ौ�री ने षिहन्दी में षिकया है, जिजसको श्री राम#न्द्रदास ने संस्कृतपद्यमय काव्य में परिरणत षिकया है।*

बुद्ध#रिरत और सौन्दरनन्द महाकाव्य के अषितरिरक्त अश्वघो. के दो रूपक-र्शारिरपुत्रप्रकरण तथा राष्ट्रपाल उपलब्ध हैं। इसके अषितरिरक्त अश्वघो. की जातक की र्शैली पर चिलखिखत 'कल्पना मस्थिण्डषितका' कथाओं का संग्रहग्रन्थ है।*

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कथावस्तु बुद्ध#रिरत की कथावस्तु गौतम बुद्ध के जन्म से लेकर षिनवा�ण-प्रान्तिप्त तथा �मoपदेर्श देने तक परिरव्याप्त

है। कषिपलवस्तु जनपद के र्शाक्वंर्शीय राजा र्शुद्धोदन की पत्नी महारानी मायादेवी एक रात स्वप्न में एक गजराज को उनके र्शरीर में प्रषिवC होते देखती है। लुन्धिम्बनीवन के पावन वातावरण में वह एक बालक को जन्म देती है। बालक भषिवष्यवाणी करता है- मैंने लोककल्याण तथा ज्ञानाज�न के चिलए जन्म चिलया है। ब्राह्मण भी तत्कालीन र्शकुनों और रु्शभलक्षणों के आ�ार पर भषिवष्यवाणी करते हैं षिक यह बालक भषिवष्य में ऋषि. अथवा सम्राट होगा। महर्ति.2 अचिसत भी राजा से स्पC र्शब्दों में कहते हैं षिक आपका पुत्र बो� के चिलए जन्मा है। बालक को देखते ही राजा की आंखों से अश्रु�ारा प्रवाषिहत होने लगती है। राजा अपने र्शोक का कारण बताता है षिक जब यह बालक युवावस्था में �म�-प्रवत�न करेगा तब मैं नहीं रहूँगा। बालक का सवा�थ�चिसद्ध नामकरण षिकया जाता है। कुमार सवा�थ�चिसद्ध की रै्शर्शवावस्था से ही सांसारिरक षिव.यों की ओर आसक्त करने की #ेCा की गई। उन्हें राजप्रासाद के भीतर रखा जाने लगा तथा बाह्य-भ्रमण प्रषितषि.द्ध कर दिदया गया। उनका षिववाह यर्शो�रा नामक सुन्दरी से षिकया गया, जिजससे राहुल नामक पुत्र हुआ।

समृद्ध राज्य के भोग-षिवलास, सुन्दरी पत्नी तथा नवजात पुत्र का मोह भी उन्हें सांसारिरक पार्श में आबद्ध नहीं कर सका। वे सबका परिरत्याग कर अन्तत: षिवहार-यात्रा के चिलए बाहर षिनकल पडे़। देवताओं के प्रयास से सवा�थ�चिसद्ध सव�प्रथम राजमाग� पर एक वृद्ध पुरु. को देखते हैं तथा प्रत्येक मनुष्य की परिरणषित इसी दुग�षित में देखकर उनका चि#� उजिद्धग्न हो उठता है। वे बहुत दिदनों तक वृद्धावस्था के षिव.य में ही षिव#ार करते रहे। उद्यान भूधिम में आनन्द की उपलस्मिब्ध को असम्भव समझकर वे पुन: चि#� की र्शान्तिन्त के चिलए बाहर षिनकल पड़ते हैं। इस बार देवताओं के प्रयास से उन्हें एक रोगी दिदखाई देता है। सारचिथ से उन्हें ज्ञात होता है षिक सम्पूण� संसार में कोई भी रोग-मुक्त नहीं है। रोग-र्शोक से सन्तप्त होने पर भी प्रसन्न मनुष्यों की अज्ञानता पर उन्हें आ�य� होता है और वे पुन: उषिद्वग्न होकर लौट आते हैं।

तृतीय षिवहार-यात्रा के समय सवा�थ�चिसद्ध को श्मर्शान की ओर ले जाया जाता हुआ मृत व्यचिक्त का र्शव दिदखाई देता है। सारचिथ से उन्हें ज्ञात होता है षिक प्रत्येक व्यचिक्त का अन्त इसी प्रकार अवश्यम्भावी है इससे उजिद्धग्न हाकर सवा�थ�चिसद्ध षिवहार से षिवरत होना #ाहते हैं। उनकी इच्छा न होते हुए भी सारचिथ उन्हें षिवहारभूधिम ले जाता है। यहाँ सुन्दरिरयों का समूह भी उन्हें आकृC नही कर पाता है। जीवन की क्षणभंगुरता, यौवन की क्षत्तिणकता तथा मृत्यु की अवश्यंभाषिवता का बो� हो जाने पर जो मनुष्य कामासक्त होता हैं, उसकी बुजिद्ध को लोहे से षिनर्मिम2त मानकर सवा�थ�चिसद्ध वहां से भी लौट आते हैं।

अपनी अन्तिन्तम षिवहार-यात्रा में सवा�थ�चिसद्ध को एक संन्यासी दिदखाई देता है। पूछने पर पता #लता है षिक वह जन्म-मरण से भयभीत होकर संन्यासी बन गया है। संन्यासी के इस आदर्श� से प्रभाषिवत होकर सवा�थ�चिसद्ध भी संन्यास लेने का संकल्प करते हैं। परन्तु राजा उन्हें संन्यास की अनुमषित नहीं देते हैं। तथा सवा�थ�चिसद्ध को गृहस्थाश्रम में ही आबद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। प्रमदाओं का षिववृत और षिवकृत रूप देखकर सवा�थ�चिसद्ध के मन में षिवतृष्णा और घृणा का भाव उत्पन्न होता है। वे मन ही मन सो#ते हैं षिक न्धिस्त्रयों की इतनी षिवकृत और अपषिवत्र प्रकृषित होने पर वस्त्राभू.णों से वंचि#त होता हुआ पुरु. उनके अनुराग-पार्श में आबद्ध होता है।

षिवरक्त सवा�थ�चिसद्ध सारचिथ छन्दक को साथ लेकर और कन्थक नामक अश्व की पीठ पर आरूढ़ होकर अघ�राषित्र में नगर से बाहर षिनकलते हैं तथा प्रषितज्ञा करते हैं-'जन्म और मृत्यु का पार देखे षिबना कषिपलवस्तु में प्रवेर्श नहीं करंूगा।' नगर में दूर पहुँ#कर सवा�थ�चिसद्ध अपने सारचिथ तथा अश्व को बन्धन-मुक्त कर तपोवन में ऋषि.यों के पास अपनी समस्या का समा�ान ढंूढने के चिलए जाते हैं, परन्तु उन तपस्मिस्वयों की स्वग�-प्रदाधियनी प्रवृत्ति� से उन्हें सन्तो. नहीं होता है। वे एक जदिटल षिद्वज के

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षिनद«र्शानुसार दिदव्य ज्ञानी अराड् मुषिन के पास मोक्ष-माग� की चिर्शक्षा ग्रहण करने के चिलए #ले जाते हैं। इ�र सारचिथ छन्दक और कन्थक नामक घोडे़ को ख़ाली देखकर अन्त:पुर की न्धिस्त्रयां बैलों से षिबछुड़ी हुई गायों की भांषित षिवलाप करने लगती हैं। पुत्र-मोह से व्यग्र राजा के षिनद«र्शानुसार मन्त्री और पुरोषिहत कुमार का अन्वे.ण करने के चिलए षिनकल पड़ते हैं। राजा षिबम्बसार सवा�थ�चिसद्ध को आ�ा राज्य देकर पुन: गृहस्थ �म� में प्रवेर्श करने का असफल प्रयास करते हैं। परन्तु आत्मवान को भोग-षिवलासों से सुख-र्शान्तिन्त की प्रान्तिप्त कैसे हो सकती है? अन्तत: राजा प्राथ�ना करता है षिक सफल होने पर आप मुझ पर अनुग्रह करें। षिनवृत्ति�-माग� के अन्वे.क सवा�थ�चिसद्ध को अराड् मुषिन ने सांख्य-योग की चिर्शक्षा दी, परन्तु उनके उपदेर्शों में भी सवा�थ�चिसद्ध को र्शाश्वत मोक्ष-पथ परिरलत्तिक्षत नहीं हुआ।

अन्त में सवा�थ�चिसद्ध गयाश्रम जाते हैं। यहाँ उन्हें सेवा चिलए प्रस्तुत पां# त्तिभक्षु धिमलते हैं। गयाश्रम में गौतम तप करते हैं, षिकन्तु इससे भी उन्हें अभीC-चिसजिद्ध नहीं धिमलती है। उन्हें यह अवबो� होता है षिक इजिन्द्रयों को कC देकर मोक्ष-प्रान्तिप्त असम्भव है, क्योंषिक सन्तप्त इजिन्द्रय और मन वाले व्यचिक्त की समाधि� पूण� नहीं होती। समाधि� की मषिहमा से प्रभाषिवत सवा�थ�चिसद्ध तप का परिरत्याग कर समाधि� का माग� अंगीकार करते हैं।

अश्वत्थ महावृक्ष के नी#े मोक्ष-प्रान्तिप्त के चिलए प्रषितश्रुत राजर्ति.2वंर्श में उत्पन्न महर्ति.2 सवा�थ�चिसद्ध को समाधि�स्थ देखकर सारा संसार तो प्रसन्न हुआ, पर सद्धम� का र्शत्रु मार भयभीत होता है। अपने षिवभ्रम, ह.� एवम् दप� नामक तीनों पुत्रों तथा अरषित, प्रीषित तथा तृ.ा नामक पुषित्रयों सषिहत पुष्प�न्वा 'मार' संसार को मोषिहत करने वाले अपने पां#ों बाणों को लेकर अश्वत्थ वृक्ष के मूल में स्थिस्थत प्रर्शान्तमूर्तित2 समाधि�स्थ सवा�थ�चिसद्ध को भौषितक प्रलोभनों से षिव#चिलत करने का असफल प्रयास करता है। यहीं सवा�थ�चिसद्ध का मार के साथ युद्ध है। इस में मार की पराजय तथा सवा�थ�चिसद्ध की षिवजय होती है। समाधि�स्थ सवा�थ�चिसद्ध �ैय� और र्शान्तिन्त से मार की सेना पर षिवजय प्राप्त कर परम तत्त्व का परिरज्ञान प्राप्त करने के चिलए ध्यान लगाते हैं। ध्यान के माध्यम से उन्हें सफलता धिमलती है। वे अCांग योग का आश्रय लेकर अषिवनार्शी पद तथा सव�ज्ञत्व को प्राप्त करते हैं।

इस प्रकार मूल संस्कृत में उपलब्ध बुद्ध#रिरत के 14 सग� में भगवान बुद्ध का जन्म से लेकर बुद्धत्व-प्रान्तिप्त तक षिवरु्शद्ध जीवन-वृतान्त वर्णिण2त है। पन्द्रहवें सग� से लेकर अठारहवें सग� तक का रे्श. भाग षितब्बती भा.ा में प्राप्त है। आक्सफोड� षिवश्वषिवद्यालय के संस्कृत अध्यापक डा॰ जॉन्स्टन ने षितब्बती तथा #ीनी भा.ा से उसका अंग्रजी में भावानुवाद षिकया था, जिजसका श्रीसूय�नारायण #ौ�री ने षिहन्दी भा.ा में अनुवाद षिकया। उसी का संस्कृत पद्यानुवाद जबलपुर महन्त श्रीराम#न्द्रदास र्शास्त्री ने षिकया है। यद्यषिप महन्त श्री राम#न्द्रदास र्शास्त्री ने अनुवाद अश्वघो. के मूल के समकक्ष बनाने का यथासाघ्य प्रयास षिकया है, षिफर भी मूल तो मूल ही होता है। अनुवाद कभी भी मूल का स्थान नहीं ले सकता।

अश्वघो. प्रणीत मूल बुद्ध#रिरत का #ौदहवां सग� बुद्धत्व-प्रान्तिप्त में समाप्त होता है। उसके बाद के सग� में क्रमर्श: बुद्ध का कार्शीगमन, चिर्शष्यों को दीक्षादान, महाचिर्शष्यों की प्रव्रज्या, अनाथषिपण्डद की दीक्षा, पुत्र-षिपतासमागम, जैतवन की स्वीकृषित, प्रव्रज्यास्रोत, आम्रपाली के उपवन में आयुषिनण�य, चिलच्छषिवयों पर अनुकम्पा, षिनवा�णमाग�, महापरिरषिनवा�ण, षिनवा�ण की प्रर्शंसा तथा �ातु का षिवभाजन षिव.य वर्णिण2त है। बुद्ध#रिरत के 15 से 28 वें सग� तक इस अनूदिदत भाग में भगवान बुद्ध के चिसद्धान्तों का षिववे#न है। अधि�कतर अनुCुप् छन्द में षिवरचि#त बुद्ध#रिरत के इस षिद्वतीय भाग में र्शास्त्रीजी ने सग� के अन्त में संस्कृत-काव्य-सरत्तिण के अनुरूप वसन्तषितलका आदिद छन्दों का भी प्रयोग षिकया है।

28 सग� में रचि#त बुद्ध#रिरत के मूल 14 सग� तक के प्रथम भाग में 1115 तथा 15 से 28 सग� तक अनूदिदत षिद्वतीय भाग में 1033 श्लोक हैं। भगवान बुद्ध के षिवरु्शद्ध जीवनवृ� पर आ�ारिरत इस महाकाव्य की कथावस्तु को वण�नात्मक उपादानों से अलंकृत करने का महाकषिव अश्वघो. ने सफल प्रयास षिकया है। इस महाकाव्य के सरल एवं प्रभावोत्पादक वण�नों में अन्त:पुर-षिवहार, उपवन-षिवहार,

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वृद्ध-दर्श�न, रोगी-दर्श�न, मृतक-दर्श�न, काधिमषिनयों द्वारा मनोरंजन, वनभूधिम-दर्श�न, श्रमणोपदेर्श, सुन्दरिरयों का षिवकृत रूप-दर्श�न, महात्तिभषिनष्क्रमण, वन-यात्रा, छन्दक-कन्थक-षिवसज�न, तपस्मिस्वयों से वाता�लाप, अन्त:पुर-षिवलाप तथा मारषिवजय उल्लेखनीय हैं।

महाकषिव अश्वघो. ने उपयु�क्त षिव.यों का काव्योचि#त रै्शली में वण�न कर इस महाकाव्य के सौxव का संव��न षिकया है तथा काव्य को सरस बनाने के चिलए इन वण�नों का समुचि#त संयोजन षिकया है। काव्य को दर्श�न और �म� के अनुकूल बना लेना अश्वघो. की मौचिलक षिवर्शे.ता है। बुद्ध#रिरत में कषिव का यह वैचिर्शष्ट्य पद-पद पर परिरलत्तिक्षत होता है। अश्वघो. ने इस महाकाव्य के माध्यम से बौद्ध-�म� के चिसद्धान्तों का प्र#ार करने का सफल प्रयास षिकया है। षिवरु्शद्ध काव्य की दृधिC से बुद्ध#रिरत के प्रथम पां# सग� तथा अCम एवम् त्रयोदर्श सग� के कुछ अंर्श अत्यन्त रमणीय हैं। इसमें यमक, उपमा और उत्प्रेक्षा आदिद अलंकारों की कषिव ने अत्यन्त रमणीय योजना की है। इस महाकाव्य में स्वाभाषिवकता का साम्राज्य है। आध्यान्धित्मक जीवन तथा तथागत भगवान बुद्ध के षिवरु्शद्ध एवम् लोकसुन्दर #रिरत्र के प्रषित कषिव की अगा� श्रद्धा के कारण इस महाकाव्य में भावों का नैसर्तिग2क प्रवाह इस महाकाव्य को उदा� भावभूधिम पर प्रषितधिxत करता है। मानवता को अभ्युदय और मुचिक्त का सन्देर्श देने के अत्तिभला.ी अश्वघो. के व्यचिक्तत्व की गरिरमा के अनुरूप ही उनका यह काव्य भी भगवान बुद्ध के गौरवपूण� व्यचिक्तत्व से मस्थिण्डत है।

लधिलतविवस्तर / Lalitvister वैपुल्यसूत्रों में यह एक अन्यतम और पषिवत्रतम महायानसूत्र माना जाता है। इसमें सम्पूण� बुद्ध#रिरत का वण�न है। बुद्ध ने पृथ्वी पर जो-जो क्रीड़ा (लचिलत) की, उनका वण�न होने के कारण इसे 'लचिलतषिवस्तर' कहते हैं।

इसे 'महाव्यूह' भी कहा जाता है। इसमें कुल 27 अध्याय हैं, जिजन्हें 'परिरवत�' कहा जाता है। षितब्बती भा.ा में इसका अनुवाद उपलब्ध है। समग्र मूल ग्रन्थ का सम्पादन डॉ॰ एस 0 लेफमान ने षिकया था।

प्रथम अध्याय में राषित्र के व्यतीत होने पर ईश्वर, महेश्वर, देवपुत्र आदिद जेतवन में प�ारे और भगवान की पादवन्दना कर कहने लगे-'भगवन्, लचिलतषिवस्तर नामक �म�पया�य का व्याकरण करें। भगवान का तुषि.तलोक में षिनवास, गभा�वक्रान्तिन्त, जन्म, कौमाय�#या�, सव� मारमण्डल का षिवध्वंसन इत्यादिद का इस गं्रथ में वण�न है। पूव� के तथागतों ने भी इस ग्रंथ का व्याकरण षिकया था।' भगवान ने देवपुत्रों की प्राथ�ना स्वीकार की। तदनन्तर अषिवदूर षिनदान अथा�त तुषि.तलोक से च्युषित से लेकर सम्यग ज्ञान की प्रान्तिप्त तक की कथा से प्रारम्भ कर समग्र बुद्ध#रिरत का वण�न सुनाने लगे।

बोधि�सत्त्व ने क्षषित्रय कुल में जन्म लेने का षिनण�य षिकया। भगवान ने बताया षिक बोधि�सत्त्व रु्शद्धोदन की मषिह.ी मायादेवी के गभ� में उत्पन्न होंगे। वही बोधि�सत्त्व

के चिलए उपयुक्त माता है। जम्बूद्वीप में कोई दूसरी स्त्री नहीं है, जो बोधि�सत्त्व के तुल्य महापुरु. का गभ� �ारण कर सके। बोधि�सत्त्व ने महानाग अथा�त कुञ्जर के रूप में गभा�वक्रान्तिन्त की।

मायादेवी पषित की आज्ञा से लुन्धिम्बनी वन गईं, जहाँ बोधि�सत्त्व का जन्म हुआ। उसी समय पृथ्वी को भेदकर महापद्म उत्पन्न हुआ। नन्द, उपनन्द आदिद नागराजाओं ने र्शीत और उष्ण जल की �ारा से बोधि�सत्त्व को स्नान कराया। बोधि�सत्त्व ने महापद्म पर बैठकर #ारों दिदर्शाओं का अवलोकन षिकया। बोधि�सत्त्व ने दिदव्य#कु्ष से समस्त, लोक�ातु को देखा और जाना षिक र्शील, समाधि� और प्रज्ञा में मेरे तुल्य कोई अन्य सत्त्व नहीं है। पूवा�त्तिभमुख हो वे सात पग #ले। जहाँ-जहाँ बोधि�सत्त्व पैर रखते थे, वहाँ-वहाँ कमल प्रादुभू�त हो जाता था। इसी तरह दत्तिक्षण और पत्ति�म की दिदर्शा में #ले। सातवें कदम

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पर सिस2ह की भांषित षिननाद षिकया और कहा षिक मैं लोक में ज्येx और शे्रx हूँ। यह मेरा अन्तिन्तम जन्म है। मैं जाषित, जरा और मरण दु:ख का अन्त करँुगा। उ�रात्तिभमुख हो बोधि�सत्त्व ने कहा षिक मैं सभी प्रात्तिणयों में अनु�र हूँ नी#े की ओर सात पग रखकर कहा षिक मार को सेना सषिहत नC करँुगा और नारकीय सत्त्वों पर महा�म�मेघ की वृधिC कर षिनरयाखिग्न को र्शान्त करँूगा। ऊपर की ओर भी सात पग रखे और अन्तरिरक्ष की ओर देखा।

सातवें परिरवत� में बुद्ध और आनन्द का संवाद है, जिजसका सारांर्श है षिक कुछ अत्तिभमानी त्तिभक्षु बोधि�सत्त्व की परिररु्शद्ध गभा�वक्रान्तिन्त पर षिवश्वास नहीं करेंगे, जिजससे उनका घोर अषिनC होगा तथा जो इस सूत्रान्त को सुनकर तथागत में श्रद्धा का उत्पाद करेंगे, अनागत बुद्ध भी उनकी अत्तिभला.ा पूण� करेंगे। जो मेरी र्शरण में आते हैं, वे मेरे धिमत्र हैं। मैं उनका कल्याण साधि�त करँूगा। इसचिलए हे आनन्द, श्रद्धा के उत्पाद के चिलए यत्न करना #ाषिहए।

बुद्ध की गभा�वक्रान्तिन्त एवं जन्म की जो कथा लचिलतषिवस्तर में धिमलती है, वह पाचिल ग्रंथों में वर्णिण2त कथा से कहीं-कहीं पर त्तिभन्न भी है। पाचिल गं्रथों में षिवर्शे.त: संयुक्त षिनकाय, दीघ� षिनकाय आदिद में यद्यषिप बुद्ध के अनेक अद्भतु �म� का वण�न है, तथाषिप वे अद्भतु �म� से समन्वागत होते हुए भी अन्य मनुष्यों के समान जरा, मरण आदिद दु:ख एवं दौम�नस्य के अ�ीन थे। *पाचिल ग्रन्थों के अनुसार बुद्ध लोको�र केवल इसी अथ� में है षिक उन्होंने मोक्ष के माग� का अन्वे.ण षिकया था तथा उनके द्वारा उपदिदC माग� का अनुसरण करने से दूसरे लोग भी षिनवा�ण और अह�प्व पद प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु महासांधिघक लोको�रवादी षिनकाय के लोग इसी अथ� में लोको�र र्शब्द का प्रयोग नहीं करते। इसीचिलए लोको�रता को लेकर उनमें वाद-षिववाद था।

आगे का लचिलतषिवस्तर का वण�न महावग्ग की कथा से बहुत कुछ धिमलता-जुलता है। जहाँ समानता है, वहाँ भी लचिलतषिवस्तर में कुछ बातें ऐसी हैं, जो अन्यत्र नहीं पाई जातीं। उदाहरणाथ� र्शाक्यों के कहने से जब र्शुद्धोदन कुमार को अपने देवकुल में ले गये तो सब प्रषितमाए ंअपने-अपने स्वरूप में आकर कुमार के पैरों पर षिगर पड़ी। इसी तरह कुमार जब चिर्शक्षा के चिलए चिलषिप र्शाला में ले जाये गये तो आ#ाय�, कुमार के तेज को सहन नहीं कर पाये और मूर्च्छिच्छ2त होकर षिगर पडे़। तब बोधि�सत्व ने आ#ाय� से कहा- आप मुझे षिकस चिलषिप की चिर्शक्षा देंगे। तब कुमार ने ब्राह्मी, खरोxी, पुष्करसारिर, अंग, बंग, मग� आदिद 64 चिलषिपयाँ षिगनाईं। आ#ाय� ने कुमार का कौर्शन देखकर उनका अत्तिभवादन षिकया।

बुद्ध के जीवन की प्र�ान घटनाए ंहैं- षिनधिम� दर्श�न, जिजनसे बुद्ध ने जरा, व्याधि�, मृत्यु एवं प्रव्रज्या का ज्ञान प्राप्त षिकया। इसके अषितरिरक्त अत्तिभषिनष्क्रमण, षिबन्धिम्बसार के समीप गमन, दुष्कर#या�, मार�.�ण, अत्तिभसंबोधि� एवं �म�#क्रप्रवत�न आदिद घटनाए ंहैं। जहाँ तक इन घटनाओं का सम्बन्ध है, लचिलतषिवस्तर का वण�न बहुत त्तिभन्न नहीं है। षिकन्तु लचिलतषिवस्तर में कुछ अषितर्शयताए ँअवश्य हैं। 27 वें परिरवत� में ग्रन्थ के माहात्म्य का वण�न है।

यह षिनत्ति�त है षिक जिजन चिर्शस्थिल्पयों ने जावा में स्थिस्थत बोरोबुदूर के मजिन्दर को प्रषितमाओं से अलंकृत षिकया था, वे लचिलतषिवस्तर के षिकसी न षिकसी पाठ से अवश्य परिरचि#त थे। चिर्शल्प में बुद्ध का #रिरत इस प्रकार उत्कीण� है, मानों चिर्शल्पी लचिलतषिवस्तर को हाथ में लेकर इस काय� में प्रवृ� हुए थे। जिजन चिर्शस्थिल्पयों ने उ�र भारत में स्तूप आदिद कलात्मक वस्तुओं को बुद्ध#रिरत के दृश्यों से अलंकृत षिकया था, वे भी लचिलतषिवस्तर में वर्णिण2त बुद्ध कथा से परिरचि#त थे।

दिदव्यावदान / Divyavdan इस बौजिद्धक ग्रन्थ में पुष्यधिमत्र को मौय� वंर्श का अन्तिन्तम र्शासक बतलाया गया है ।

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इसमें महायान एवं हीनयान दोनों के अंर्श पाए जाते हैं। षिवश्वास है षिक इसकी सामग्री बहुत कुछ मूल सवा�स्मिस्तवादी षिवनय से प्राप्त हुई है। दिदव्यावदान में दीघा�गम, उदान, स्थषिवरगाथा आदिद के उद्धरण प्राय: धिमलते हैं। कहीं-कहीं बौद्ध त्तिभक्षुओं की #या�ओं के षिनयम भी दिदये गये हैं, जो इस तथ्य की पुधिC करते हैं षिक दिदव्यावदान मूलत: षिवनयप्र�ान ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ गद्य-पद्यात्मक है। इसमें 'दीनार' र्शब्द का प्रयोग कई बार षिकया गया है। इसमें र्शुंगकाल के राजाओं का भी वण�न है।

र्शादू�लकणा�वदान का अनुवाद #ीनी भा.ा में 265 ई. में हुआ था। दिदव्यावदान में अर्शोकावदान एवं कुमारलात की कल्पनामस्थिण्डषितका के अनेक उद्धरण हैं। इसकी

कथाए ंअत्यन्त रो#क हैं। उपगुप्त और मार की कथा तथा कुणालावदान इसके अचे्छ उदाहरण हैं। अवदानर्शतक की सहायता से अनेक अवदानों की र#ना हुई है, यथा- कल्पद्रुमावदानमाला,

अर्शोकावदानमाला, द्वाविव2र्शत्यवदानमाला भी अवदानर्शतक की ऋणी हैं। अवदानों के अन्य संग्रह भद्रकल्यावदान और षिवचि#त्रकर्णिण2कावदान हैं। इनमें से प्राय: सभी अप्रकाचिर्शत हैं। कुछ के षितब्बती और #ीनी अनुवाद धिमलते हैं।

के्षमेन्द्र की अवदानकल्पलता का उल्लेख करना भी प्रसंग प्राप्त है। इस ग्रन्थ की समान्तिप्त 1052 ई. में हुई। षितब्बत में इस ग्रन्थ का अत्यधि�क आदर है। इस संग्रह में 107 कथाए ंहैं।

के्षमेन्द्र के पुत्र सोमेन्द्र ने न केवल इस ग्रन्थ की भूधिमका ही चिलखी, अषिपतु अपनी ओर से एक कथा भी जोड़ी है। यह जीमूतवाहन अवदान है।

अठारह बौद्ध विनकाय अनुक्रम[छुपा]

1 अठारह बौद्ध षिनकाय 2 षिनकायों की परिरभा.ा 3 षिनकाय - परम्परा 4 अठारह षिनकायों के सामान्य चिसद्धान्त

5 सम्बंधि�त सिल2क भगवान बुद्ध के परिरषिनवा�ण के अनन्तर बुद्धव#नों में प्रके्षप (अन्य व#नों को डाल देना) और अपनयन

(कुछ बुद्धव#नों को हटा देना) न होने देने के चिलए क्रमर्श: तीन संगीषितयों का आयोजन षिकया गया। प्रथम संगीषित बुद्ध के परिरषिनवा�ण के तत्काल बाद प्रथम व.ा�वास के काल में ही राजगृह में महाकाश्यप के संरक्षकत्व में सम्पन्न हुई। इसमें आनन्द ने सूत्र (इसमें अत्तिभ�म� भी सन्धिम्मचिलत है) और उपाचिल ने षिवनय का संगायन षिकया। इस तरह इस संगीषित में सन्धिम्मचिलत पाँ# सौ अह�त त्तिभकु्षओं ने प्रथम बार बुद्धव#नों को षित्रषिपटक आदिद में षिवभाजन षिकया। भगवान बुद्ध के परिरषिनवा�ण के बाद सौ व.� बीतते-बीतते आयुष्मान यर्श ने वैर्शाली के वस्थिज्जपु�क त्तिभक्षुओं को षिवनय षिवपरीत दस वस्तुओं का आ#रण करते हुए देखा, जिजसमें सोने-#ाँदी का ग्रहण भी एक था। अनेक त्तिभकु्षओं की दृधिC में उनका यह आ#रण अनुचि#त था। इसका षिनण�य करने के चिलए षिद्वतीय संगीषित बुलाई गई। महास्थषिवर रेवत की अध्यक्षता में सम्पन्न इस संगीषित में सन्धिम्मचिलत सात सौ अह�त त्तिभक्षुओं ने उन (वस्थिज्जपु�क त्तिभकु्षओं) का आ#रण षिवनयषिवपरीत षिनत्ति�त षिकया। वैर्शाली के वस्थिज्जपु�क त्तिभकु्षओं ने महास्थषिवरों के इस षिनण�य को अमान्य कर दिदया और कौर्शाम्बी में एक पृथक् संगीषित आयोजिजत की, जिजसमें दस हज़ार

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त्तिभक्षु सन्धिम्मचिलत हुए थे। यह सभा 'महासंघ' या 'महासंगीषित' कहलाई तथा इस सभा को मानने वाले 'महासांधिघक' कहलाए।

इस प्रकार बौद्ध संघ दो भागों या षिनकायों में षिवभक्त हो गया, स्थषिवरवादी और महासांधिघक। आगे #लकर भगवान के परिरषिनवा�ण के 236 व.� बाद सम्राट अर्शोक के काल में आयोजिजत तृतीय संगीषित के समय तक बौद्ध संघ अठारह षिनकायों में षिवकचिसत हो गया था।

महासांधिघक भी कालान्तर में दो भागों में षिवभक्त हो गए-

1. एकव्यावहारिरक और 2. गोकुचिलक।

गोकुचिलक से भी दो र्शाखाए ंषिवकचिसत हुई, यथा-

1. प्रज्ञन्तिप्तवादी और 2. बाहुचिलक या बाहुश्रुषितक।

बाहुचिलक से #ैत्यवादी नामक एक और र्शाखा प्रकट हुई। इस तरह महासांधिघक से पाँ# र्शाखाए ंषिनकली, जो महासांधिघक के साथ कुल 6 षिनकाय होते हैं।

दूसरी ओर स्थषिवरवादी भी पहले दो भागों में षिवभक्त हुए, यथा- वस्थिज्जपु�क और महीर्शासक। वस्थिज्जपु�क 4 भागों में षिवभक्त हुए, यथा-

1. �मo�रीय,

2. भद्रयात्तिणक,

3. छन्रागरिरक (.ाण्णागरिरक) और 4. सन्धिम्मतीय।

महीर्शासक से भी दो र्शाखाए ंषिवकचिसत हुई, यथा-

1. �म�गुन्तिप्तक और 2. सवा�स्मिस्तवादी।

सवा�स्मिस्तवादिदयों से क्रमर्श: काश्यपीय, काश्यपीय से सांक्रान्तिन्तक और सांक्रान्तिन्तक से सूत्रवादी सौत्रान्तिन्तक षिनकाय षिवकचिसत हुए। इस प्रकार स्थषिवरवादी षिनकाय से 11 षिनकाय षिवकचिसत हुए, जो स्थषिवरवादी षिनकाय के साथ कुल 12 होते हैं। दोनों प्रकार के षिनकायभेद धिमलकर कुल अठारह षिनकाय होते हैं।

विनकायों की परिरभा>ामहासांमिघक

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मृत्युभव और उपपत्ति�भव के बी# में एक अन्तराभव होता है, जहाँ सत्त्व मरने के बाद और पुनज�न्म ग्रहण करने के बी# कुछ दिदनों के चिलए रहता है।

कुछ सवा�स्मिस्तवादी आदिद बौद्ध उस अन्तराभव का अस्मिस्तत्व स्वीकार करते हैं और कुछ बौद्ध षिनकाय उसे नहीं मानते।

भोट षिवद्वान पद्म-ग्यल-छन का कहना है षिक महासांधिघक अन्तराभव के अस्मिस्तत्व को नहीं मानते। वसुबनु्ध के अत्तिभ�म�-कोर्श-स्वभाष्य में ऐसा उल्लेख धिमलता है षिक दूसरे कुछ नैकाधियक अन्तराभव

नहीं मानते* style=color:blue>*</balloon>। यह सम्भव है षिक महासांधिघक ही उनके अन्तग�त आते हों और इसीचिलए पद्म-ग्यल-छन ने वैसा कहा

हो। वैसे स्थषिवरवादी बौद्ध भी अन्तराभव नहीं मानते।

स्थविवरवाद

'स्थषिवरवाद' र्शब्द के अनेक अथ� होते हैं। स्थषिवर का अथ� 'वृद्ध' भी है और 'प्रा#ीन' भीं अत: वृद्धों का या प्रा#ीनों का जो वाद (माग�) है, वह 'स्थषिवरवाद' है। 'स्थषिवर' र्शब्द स्थिस्थरता को भी सूचि#त करता है। षिवनय-परम्परा के अनुसार जिजस त्तिभक्षु के उपसम्पदा के अनन्तर दस व.� बीत गए हों तथा जो षिवनय के अङ्गों और उपाङ्गों को अच्छा ज्ञाता होता है, वह 'स्थषिवर' कहलाता है। इसके अलावा वह भी स्थषिवर कहलाता है जो स्थषिवरगोत्रीय होता है अथा�त जिजसकी रुचि# आदिद स्थषिवरवादी चिसद्धान्तों की ओर अधि�क प्रवण होते हैं और जो उन चिसद्धान्तों का श्रद्धा के साथ व्याख्यान करता है। ऐसे स्थषिवरों का वाद 'स्थषिवरवाद' है।

सवा�ल्पिस्तवाद

षिकसी समय (प्रा#ीन काल में) पत्ति�मो�र भारत में षिवर्शे.त: मथुरा, कश्मीर और गान्धार आदिद प्रदेर्शों में सवा�स्मिस्तवादिदयों का बहुल प्र#ार था। सवा�स्मिस्तवादी चिसद्धान्तों को मानने वाले बौद्ध आजकल षिवश्व में र्शायद ही कहीं हों। षिकन्तु भोटदेर्शीय त्तिभकु्ष-परम्परा सवा�स्मिस्तयावादी षिवनय का अवश्य अनुसरण करती है। कषितपय षिवचिर्शC चिसद्धान्तों के आ�ार पर 'सवा�स्मिस्तवाद' यह नामकरण हुआ है। इसमें प्रयुक्त 'सव�' र्शब्द का तात्पय� तीनों कालों अथा�त भूत, भषिवष्य और वत�मान कालों से हैं। जो लोग वस्तुओं की तीनों कालों में स�ा मानते हैं और जो तीनों का द्रव्यत: अस्मिस्तत्व स्वीकार करते हैं, वे 'सवा�स्मिस्तवादी' कहलाते हैं।

एकव्यावहारिरक

जो लोग एक क्षण में बुद्ध की सव�ज्ञता का उत्पाद मानते हैं, वे 'एकव्यावहारिरक' कहलाते हैं। अथा�त इनके मतानुसार एक चि#�क्षण से सम्प्रयुक्त प्रज्ञा के द्वारा समस्त �म� का अवबो� हो जाता है। इस एकक्षणावबो� को स्वीकार करने के कारण इनका यह नामकरण हुआ है। महावंस टीका के अनुसार एकव्यावहारिरक और गोकुचिलक ये दोनों षिनकाय सभी कुर्शल-अकुर्शल संस्कारों को ज्वालारषिहत अङ्गार से धिमत्तिश्रत भस्मषिनरय के समान समझते हैं।

लोको�रवाद

कुछ लोग बुद्ध के काय में सास्त्रव �म� का षिबल्कुल अस्मिस्तत्व नहीं मानते और कुछ मानते हैं। ये लोको�रवादी बुद्ध की सन्तषित में सास्रव �म� का अस्मिस्तत्व सव�था नहीं मानते। इनके मतानुसार सम्यक सम्बोधि� की प्रान्तिप्त के अनन्तर बुद्ध के सभी आश्रय अथा�त चि#�, #ैतचिसक, रूप आदिद परावृ� होकर षिनरास्रव और लोको�र हो जाते

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हैं। यहाँ 'लोको�र' र्शब्द अनास्रव के अथ� में प्रयुक्त है। जो इस अनास्रवत्व को स्वीकार करते हैं, वे लोको�रवादी हैं। यहाँ 'लोको�र' र्शब्द का अथ� मानवो�र के अथ� में नहीं हैं इनकी मान्यता के अनुसार क्षणभङ्गवाद की दृधिC से पहले सभी �म� सास्रव होते हैं। बोधि�प्रान्तिप्त के अनन्तर सास्रव �म� षिवरुद्ध हो जाते हैं और अनास्रव �म� उत्पन्न होते हैं। यह ज्ञात नहीं है षिक ये लोग महायाषिनयों की भाँषित बुद्ध का अनास्राव ज्ञान�म�काय मानते हैं अथवा नहीं।

प्रज्ञप्तिQतवादी

कुछ वादी ऐसे होते हैं, जो परस्पर आत्तिश्रत सभी �म� को प्रज्ञप्त (कस्थिल्पत) मानकर उनके प्रषित सत्यत: अत्तिभषिनवेर्श करते हैं, वे ही प्रज्ञन्तिप्तवादी है। महावंर्शटीका के अनुसार 'रूप भी षिनवा�ण की भाँषित परमाथ�त: है' – ऐसा मानने वाले प्रज्ञन्तिप्तवादी कहलाते हैं।

वात्सीपु1ीय

स्थषिवरवादी संघ से जो सव�प्रथम षिनकाय भेद षिवकचिसत हुआ, वह वात्सीपुत्रीय षिनकाय ही है। स्थषिवरों से इनका सैद्धान्तिन्तक मतभेद था। ये लोग पुद्गलास्मिस्तत्ववादी थे। अथा�त ये पुद्गल के द्रव्यत: अस्मिस्तत्व के पक्षपाती थे और उसे अषिनव�#नीय कहते थें यह षिनकाय स्थषिवरवादिदयों का प्रमुख प्रषितपक्ष रहा है। यही कारण है षिक तृतीय संगीषित के अवसर पर जो सम्राट् अर्शोक के काल में पाटचिलपुत्र (पटना) में आयोजिजत हुई थी, उसमें मुद्गलीपुत्र षितष्य ने स्वषिवरवाद से त्तिभन्न सत्रह षिनकायों का खण्डन करते हुए जिजस 'कथावत्थु' नामक ग्रन्थ की र#ना की थी, उस ग्रन्थ में उन्होंने सव�प्रथम पुद्गलवादी वात्सीपुत्रीयों का ही खण्डन षिकया। इससे यह भी षिनष्क.� प्रषितफचिलत होता है षिक तृतीय संगीषित से पूव� ही इनका अस्मिस्तत्व था। कौर्शाम्बी मथुरा तथा अवंती आदिद इनके प्रमुख केन्द्र थे।

सप्तिम्मतीय

इस षिनकाय के प्रवत�क आय� महाकात्यायन माने जाते हैं। ये वे ही आ#ाय� हैं, जिजन्होंने दत्तिक्षणापथ (अवन्ती) में सव�प्रथम सद्धम� की स्थापना की। उस प्रदेर्श के षिनवाचिसयों के आ#ार में बहुत त्तिभन्नता देखकर षिवनय के षिनयमों में कुछ संर्शो�नों का भी इन्होंने सुझाव रखा था। इसी षिनकाय से आवन्तक और कुरुकुल्लक षिनकाय षिवकचिसत हुए। कभी-कभी सन्धिम्मतीयों का संग्रह वात्सीपुत्रीयों में और कभी वात्सीपुत्रीयों का संग्रह सन्धिम्मतीयों में भी देखा जाता है। इसका कारण उनके समान चिसद्धान्त हो सकते हैं।

महीर्शासक

षिप्रलुस्की महोदय के अनुसार ये लोग स्थषिवर पुराण के अनुयायी थे। ज्ञात है षिक पुराण वही स्थषिवर है, जो राजगृह में जब प्रथम संगीषित हो रही थी, तब दत्तिक्षणषिगरिर से #ारिरका करते हुए पाँ# सौ त्तिभक्षुओं के साथ वहीं (राजगृह में) ठहरे हुए थे। संगीषितकारक त्तिभकु्षओं ने उनसे संगीषित में सन्धिम्मचिलत होने क षिनवेदन षिकया, षिकन्तु उन्होंने उनके काय� की प्रर्शंसा करते हुए भी उसमें भाग लेने से इन्कार कर दिदया और कहा षिक मैंने भगवान के मुंह से जैसा सुना है, उसी का अनुसरण करंूगा।

�म�गुQतक

परमाथ� के मतानुसार इस षिनकाय के प्रवत�क महामौद्गलयायन के चिर्शष्य स्थषिवर �म�गुप्त थे। षिप्रलस्की और फ्राउवाल्नर का कहना है षिक ये �म�गुप्त यौनक �म�रत्तिक्षत से अत्तिभन्न हैं।

काश्यपीय

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पाचिल परम्परा और सां#ी के अत्तिभलेखों से ज्ञात होता है षिक कश्यपगोत्रीय त्तिभकु्ष समस्त षिहमवत्प्रदेर्श के षिनवाचिसयों के आ#ाय� थे। #ीनी भा.ा में उपलब्ध 'षिवनयामातृका' नामक ग्रन्थ से भी उपयु�क्त कथन की पुधिC होती है। इसीचिलए काश्यपीय और हैमवत अत्तिभन्न प्रतीत होते हैं। सुव.�क और सद्धम�व.�क भी इन्हीं का नाम है। इस षिनकाय का षिहमवत्प्रदेर्श में प्र#ार सम्भवत: महाराज अर्शोक के काल में सम्पन्न हुआ, जब तृतीय संगीषित के अनन्तर उन्होंने षिवत्तिभन्न प्रदेर्शों में सद्धम� के प्र#ाराथ� �म�दूतों को पे्रषि.त षिकया था।

विवभज्यवाद

आ#ाय� वसुधिमत्र के मतानुसार यह षिनकाय सवा�स्मिस्तवादी षिनकाय के अन्तग�त गृहीत होता है। स्थषिवरवादी भी अपने को षिवभज्यवादी कहते हैं। आ#ाय� भव्य के अनुसार यह षिनकाय स्थषिवरवाद से त्तिभन्न है। कुछ लोगों के अनुसार इन्हें हेतुवादी भी कहा जाता है। इस षिनकाय का यह षिवचिर्शC अत्तिभमत है षिक षिकये हुए कम� का जब तक फल या षिवपाक उत्पन्न नहीं हो जाता, जब तक उस अतीत कम� का द्रव्यत: अस्मिस्तत्व होता है। जिजसने अभी फल नहीं दिदया है, उस अतीत कम� की और वत�मान कम� की द्रव्यस�ा है तथा जिजसने फल दे दिदया है, उस अतीत कम� की और अनागत कम� की प्रज्ञन्तिप्तस�ा है- इस प्रकार कम� के बारे में इनकी व्यवस्था है। कम� के इस प्रकार के षिवभाजन के कारण ही इस षिनकाय का नाम 'षिवभज्यवाद' है। हेतुवादी भी इन्हीं का काम है। भूत, भौषितक समस्त वस्तुओं के हेतु होते हैं, यह इनका अत्तिभमत है। कथावतु्थ और उसकी अट्ठकथा में इस षिनकाय के बारे में पुष्कल ##ा� उपलब्ध होती है।

विनकाय-परम्पराआ#ाय� षिवनीतदेव आदिद प्रमुख आ#ाय� की मान्यता है षिक #ार ही मूल षिनकाय हैं, जिजनसे आगे #ल कर सभी अठारह षिनकाय षिवकचिसत हुए। वे हैं-

1. आय� सवा�स्मिस्तवादी, 2. आय� महासांधिघक,

3. आय�स्थषिवर एवं 4. आय� सन्धिम्मतीय।

मूलसंघ से जो यह षिवभाजन हुआ या अठारह या उससे अधि�क षिनकायों का जो जन्म हुआ, वह षिकसी गषितर्शील श्रेx �म� का लक्षण है, न षिक ह्रास का। भगवान बुद्ध ने स्वयं ही षिकसी भी र्शास्ता के व#न या षिकसी पषिवत्र ग्रन्थ के व#न को अन्तिन्तम प्रमाण मानने से अपने अनुयायी त्तिभकु्षओं को मना कर दिदया था। उन्होंने स्वतन्त्र चि#न्तन, अपने अनुभव की प्रामात्तिणकता, वस्तुसङ्गत दृधिC और उदार षिव#ारों के जो बीज त्तिभकु्षसंघ में षिनत्तिक्षप्त (स्थाषिपत 0 षिकये थे, उन्हीं बीजों से कालान्तर में षिवत्तिभन्न र्शाखाओं वाला सद्धम� रूपी महावृक्ष षिवकचिसत हुआ, जिजसने भारत सषिहत षिवश्व के कोदिट-कोदिट षिवनेय जनों की आकांक्षाए ंअपने पुष्प, फल, पत्र और छाया के द्वारा पूण� कीं और आज भी कर रहा है।

अठारह विनकायों के सामान्य धिसद्धान्तआ#ाय� वसुधिमत्र, भावषिववेक आदिद महापस्थिण्डतों के ग्रन्थों के दार्श�षिनक चिसद्धान्तों से सभी अठारह षिनकाय प्राय: सहमत हैं-

ज्ञान में ग्राह्य (विव>य) के आकार का अभाव

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बौद्ध दार्श�षिनकों में इस षिव.य पर पया�प्त ##ा� उपलब्ध होती है षिक ज्ञान जब अपने षिव.य में प्रवृ� होता है, तब षिव.य के आकार को ग्रहण करके अथा�त षिव.य के आकार से आकारिरत (साकार) होकर षिव.य ग्रहण करता है या षिनराकार रहते हुए। सौत्रान्तिन्तकों का मानना है षिक #कु्षर्तिव2ज्ञान नीलाकार होकर नील षिव.य में प्रवृ� होता है। उनका कहना है षिक जिजस समय #क्षुर्तिव2ज्ञान उत्पन्न होता है, उस समय उसका ग्राह्य (नील आलम्बन) षिनरुद्ध रहता है। क्योंषिक नील आलम्बन कारण है और #कु्षर्तिव2ज्ञान उसका काय�। कारण को काय� से षिनयत पूव�वत� होना #ाषिहए ंइसचिलए नील आलम्बन #क्षुर्तिव2ज्ञान से एक क्षण पूव� षिनरुद्ध हो जाता है। षिकन्तु ज्ञान में षिव.य का आकार षिवद्यमान होने से वह ज्ञान 'नीलज्ञ' कहा जाता है।

ज्ञान में स्वसंवेदनत्व का अभाव

वैभाषि.क प्रमुख सभी अठारह षिनकायों में ज्ञान में जैसे ज्ञेय (षिव.य) का आकार नहीं माता जाता अथा�त जैसे उसे षिनराकार माना जाता है, उसी प्रकार ज्ञान में ग्राहक-आकार अथा�त अपने स्वरूप (स्वयं) को ग्रहण करने वाला आकार भी नहीं माना जाता। स्वयं (अपने स्वरूप) को ग्रहण करने वाला ज्ञान 'स्वसंवेदन' कहलाता है। आर्शय यह षिक वे (वैभाषि.क आदिद) स्वसंवेदन नहीं मानते। ज्ञात है षिक बौद्ध नैयाधियक सौत्रान्तिन्तक आदिद #ार प्रत्यक्ष मानते हैं-

1. इजिन्द्रय प्रत्यक्ष, 2. मानस प्रत्यक्ष,

3. स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और 4. योगी-प्रत्यक्ष।

इनमें से वैभाषि.क आदिद क्योंषिक स्वसंवेदन नहीं मानते, इसचिलए इनके मत में र्शे. तीन प्रत्यक्ष ही माने जाते हैं।

बाह्याथ� का अल्पिस्तत्व

वैभाषि.क आदिद के मत में ज्ञान में अषितरिरक्त बाह्य वस्तुओं की स�ा मानी जाती है। वे रूप, र्शब्द आदिद बाह्य वस्तुए ंपरमाणुओं से आरब्ध (षिनर्मिम2त) होती हैं, न षिक षिवज्ञान के परिरणाम के रूप में मानी जाती हैं- जैसा षिक योगा#ार षिवज्ञानवादी मानते हैं। योगा#ार मतानुसार समस्त बाह्याथ� आलयषिवज्ञान या मनोषिवज्ञान में स्थिस्थत वासना के परिरणाम होते हैं। वैभाषि.क ऐसा नहीं मानते। वैभाषि.क मतानुसार घट आदिद पदाथ� में स्थिस्थत परमाणु #कु्षरिरजिन्द्रय के षिव.य होते हैं तथा #क्षुरिरजिन्द्रय में स्थिस्थत परमाणु #कु्षर्तिव2ज्ञान के आश्रय होते हैं। इसचिलए इनके मत में परमाणु से षिनर्मिम2त C आदिद सू्थल वस्तुओं की वस्तुस�ा नहीं मानी जाती। सौत्रान्तिन्तकों के मतानुसार घट आदिद में स्थिस्थत प्रत्येक परमाणु #क्षुर्तिव2ज्ञान का षिव.य नहीं होता, अत: #कु्षर्तिव2ज्ञान में भाचिसत होने वाले घट आदिद स्थूल वस्तुओं की वस्तुस�ा मानी जाती है। जैसे वैर्शेषि.क दार्श�षिनक अवयवों से अषितरिरक्त एक अवयवी द्रव्य की स�ा स्वीकार करते हैं, वैसे वैभाषि.क नहीं मानते, इसचिलए घट आदिद के अन्तग�त षिवद्यमान परमाणु ही इजिन्द्रय के षिव.य होते हैं।

तीनों कालों की स�ा

जो सभी अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न कालों का अस्मिस्तत्व मानते हैं, वे सवा�स्मिस्तवादी #ार प्रकार के हैं, यथा-

1. भावान्यचिथक। इस मत के प्रमुख आ#ाय� भदन्त �म�त्रात हैं। इनके अनुसार अध्वों (कालों) में प्रवत�मान (गषितर्शील) �म� की द्रव्यता में अन्यथात्व नहीं होता। केवल भाव में अन्यथात्व होता है।

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2. लक्षणान्यचिथक। इसके प्रमुख आ#ाय� भदन्त घो.क हैं। इनके अनुसार अध्वों में प्रवत�मान अतीत �म� यद्यषिप अतीत-लक्षण से युक्त होता है, षिफर भी वह प्रत्युत्पन्न और अनागत लक्षण से भी अषिवयुक्त होता है।

3. अवस्थान्यचिथक। इसके प्रमुख आ#ाय� भदन्त वसुधिमत्र हैं। इनके अनुसार अध्वों में प्रवत�मान �म� त्तिभन्न-त्तिभन्न अवस्थाओं को प्राप्त कर अवस्था की दृधिC से त्तिभन्न-त्तिभन्न षिनर्दिद2C षिकया जाता है, न षिक त्तिभन्न-त्तिभन्न द्रव्य की दृधिC से त्तिभन्न-त्तिभन्न षिनर्दिद2C होता है।

4. अन्यथान्यचिथक। इसके प्रमुख आ#ाय� भदन्त बुद्धदेव हैं। इनके अनुसार अध्वों में प्रवत�मान �म� पूव�, अपर की अपेक्षा से त्तिभन्न-त्तिभन्न कहा जाता है।

विनरुपधि�र्शे> विनवा�ण

वैभाषि.क आदिद षिनकायों के मत में षिनरुपधि�रे्श. षिनवा�ण की अवस्था में व्यचिक्तत्व की सव�था षिनवृत्ति� (परिरसमान्तिप्त) मानी जाती है। इस अवस्था में अनादिद काल में #ली आ रही व्यचिक्त की नाम-रूप सन्तषित सव�था र्शान्त हो जाती है, जैसे दीपक के बुझ जाने पर उसकी षिकसी भी प्रकार की सन्तषित अवचिर्शC नहीं रहती।

बोधि� से पूव� गौतम बुद्ध का पृथग्जन होना

इन षिनकायों के मतानुसार जन्म ग्रहण करते समय राजकुमार चिसद्धाथ� पृथग्जन ही थे। वह बोधि�सत्त्व अवश्य थे और माग� की दृधिC से सम्भारमाग� की अवस्था में षिवद्यमान थे। घर से बाहर होकर प्रव्रज्या ग्रहण करने के अनन्तर जिजस समय बोधि�वृक्ष के मूल में समाधि� में स्थिस्थत थे, तब उन्होंने क्रमर्श: प्रयोगमाग�, दर्श�नमाग� और भावनामाग� को प्राप्त षिकया। अन्त में उन्होंने उसी आसन पर सम्यक् संबुद्धत्व की प्रान्तिप्त की।

स्थविवरवाद

परमाथ� �म� विव$ार

अठारह षिनकायों में स्थषिवरवाद भी एक है। इन दिदनों षिवश्व में दो ही षिनकाय जीषिवत हैं-

1. स्थषिवरवाद और 2. सवा�स्मिस्तवाद की षिवनय-परम्परा।

स्थषिवरवाद की परम्परा श्रीलंका, म्यामांर, थाईलैण्ड, कम्बोषिडया आदिद दत्तिक्षण पूवD एचिर्शयाई देर्शों में प्रमावी ढंग से प्र#चिलत है। उसका षिवस्तृत पाचिलसाषिहत्य षिवद्यमान है और आज भी र#नाए ंहो रही हैं। अत: संके्षप में यहाँ उसके परमाथ�सत्य तथा र्शीलसमाधि� और प्रज्ञा का परिर#य दिदया जा रहा है। र्शील, समाधि� और प्रज्ञा ही माग�सत्य है, जिजससे षिनवा�ण (मोक्ष) जैसे परमाथ�सत्य एवं परम पुरु.ाथ� की प्रान्तिप्त सम्भव है।

परमाथ�

जो अपने स्वभाव को कभी भी नहीं छोड़ता तथा जिजसके स्वभाव से कभी परिरवत�न नहीं होता ऐसा तत्त्व 'परमाथ�' कहा जाता है। जैसे लोभ का स्वभाव (लक्षण) आसचिक्त या लाल# है। यह #ाहे मनुष्य में हो अथवा पर्शु में हो अपने आसचिक्त या लाल#ी स्वभाव को कभी भी नहीं छोड़ता। भौषितक (रूप) वस्तुओं में भी पृथ्वी का स्वभाव 'कठोर' होना है। यह पृथ्व कहीं भी षिकसी भी अवस्था में अपने कठोर स्वभाव को नहीं छोड़ती।

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इसचिलए चि#�, स्पर्श�वेदना आदिद #ैतचिसक, पृथ्वी अप् आदिद महाभूत और भौषितक वस्तु (रूप) तथा षिनवा�ण परमाथ� कहे जाते हैं।

धि$�-$ैतधिसक

यद्यषिप चि#�-#ैतचिसक पृथक्-पृथक् स्वभाव वाले होते हैं तथाषिप वे दोनों एक षिव.य (आलम्बन) में एक साथ उत्पन्न होकर एक साथ षिनरुद्ध होते हैं। इनमें से वण�, र्शब्द आदिद षिव.यों (आलम्बन) को सामान्य रूपेण जानना मात्र 'चि#�' है। यहाँ चि#� द्वारा आलम्बन का ग्रहण करना या प्राप्त करना ही 'जानना' कहा जाता है। जानना, ग्रहण करना, प्राप्त करना, परिरचे्छद (उदग््रहण) करना, ये पया�यवा#ी हैं।

चि#�, मन और षिवज्ञान एक ही अथ� के वा#क हैं जो सं#य करता है। (चि#नोषित), वह चि#� है। यही मनस् है, क्योंषिक यह मनन करता है (मनुते)।यही षिवज्ञान है, क्योंषिक वह अपने आलम्बन को जानता है (आलम्बनं षिवजानाषित)।

$ैतधिसक

जब कोई चि#� उत्पन्न होता है, तब स्पर्श� वेदना आदिद #ैतचिसक भी उत्पन्न होते हैं। चि#� से सम्बद्ध होकर उत्पन्न होने के कारण, चि#� में होने वाले उन स्पर्श� वेदना आदिद �म� को, '#ैतचिसक' कहते हैं। यहाँ 'चि#�' आ�ार है तथा #ैतचिसक उसमें होने वाले आ�ेय हैं- ऐसा नहीं समझना #ाषिहए। हाँ, यह ठीक है षिक पूव�गामी चि#� के अभाव में #ैतचिसक नहीं हो सकते, इस स्थिस्थषित में चि#� के न होने पर #ैतचिसकों के कृत्य नहीं होंगे, चि#� से सम्बद्ध होने पर ही वे सम्भव हैं, अत: चि#� में होने वाले स्पर्श� वेदना आदिद �म� #ैतचिसक है- ऐसा भी कहा जाता है। यह ठीक भी है, क्योंषिक स्पर्श� वेदना आदिद सदा सव�था चि#� में सम्प्रयुक्त होते हैं। चि#� के षिबना #ैतचिसक अपने आलम्बनों को ग्रहण करने में असमथ� रहते हैं। इसीचिलए चि#�-#ैतचिसकों का साथ-सा उत्पाद षिनरो� माना जाता है तथा साथ ही समान आलम्बन का ग्रहण एवं समान वस्तु (इजिन्द्रय) का आश्रय करना माना जाता है।

रूप

चि#� #ैतचिसक मनुष्य के #ेतन (अभौषितक) पदाथ� (�म�) हैं, इन्हें बौद्ध परिरभा.ा में 'अरूप �म�' या 'नाम �म�' कहा जाता है। ये नाम �म� यद्यषिप भौषितक (रूप) �म� का आश्रय करके ही उत्पन्न होते हैं। तथाषिप वे भौषितक (रूप) �म� का सं#ालन भी करते रहते हैं। उसका अत्तिभप्राय यह है षिक यदिद रूप �म� नहीं होते हैं तो अरूप (नाम)¬ �म� भी नहीं होते। यदिद अरूप (नाम) �म� नहीं है तो रूप �म� षिनष्प्रयोजन हो जाते हैं। यद्यषिप भगवान बुद्ध का प्र�ान प्रषितपाद्य षिनवा�ण था और षिनवा�ण प्रान्तिप्त के चिलए कुर्शल, अकुर्शल अरूप�म� का षिववे#न करना भी आवश्यक था, तथाषिप रूप �म� के षिववे#न के षिबना अरूप�म� का षिववे#न सम्भव नहीं था, फलत: उन्होंने 28 प्रकार के भौषितक �म� का षिववे#न षिकया। इस प्रकार मनुष्य जीवन में यद्यषिप अरूप�म� प्र�ान है, तथाषिप रूप�म� की भी अषिनवाय�ता है। अत: सभी अत्तिभ�म�र्शास्त्र रूपों का भी षिवशे्ल.ण करते हैं।

पृथ्वी अप् आदिद 28 रूपों में से पृथ्वी अप्, तेजस, वायु वण�, गन्ध, रस और ओजस् ये आठ रूप सदा एक साथ रहते हें। परमाणु, जो सूक्ष्म पदाथ� माना जाता है, उसमें भी ये आठ रूप रहते हैं। इनमें से पृथ्वी, अप् तेजस् और वायु को 'महाभूत' कहते हैं। क्योंषिक इन #ार रूपों का स्वभाव और द्रव्य अन्य रूपों से महान होते हैं तथा ये ही मूलभूत होते हैं इन #ार महाभूतों का आश्रय लेकर ही वण� आदिद अन्य रूपों की अत्तिभव्यचिक्त होती है। वण�, गन्ध आदिद रूपों का हमें तभी प्रत्यक्ष हो सकता है, जबषिक इनके मूल में संघातरूप महाभूत हों। जब महाभूतों का संघात रहेगा तब वण� गन्ध आदिद का भी प्रत्यक्ष हो सकेगा।

मनुष्य के र्शरीर में षिवद्यमान #ार महाभूतों के स्वभाव को समझने के चिलए मृत्ति�का से बनी हुई मुर्तित2 को उपमा से षिव#ार षिकया जाता हे। एक-एक रूप-समुदाय (कलाप) में षिवद्यमान इन #ार महाभूतों को प्राकृत #कु्ष द्वारा नहीं

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देखा जा सकता, वे परमाणु नामक अत्यन्त सूक्ष्म रूप-समुदाय (कलाप) होते हैं अनेक रूपों (कलापों-रूप-समुदायों) का संघात होने पर ही उन्हें प्राकृत #कु्ष द्वारा देखा जा सकता है। इस प्रकार अनेक रूप-समुदायों (कलापों) का संघात होने पर मनुष्य का भौषितक र्शरीर बन जाता है। भौषितक र्शरीर होने में मनुष्य के पूव�कृत कम� (#ेतना) मुख्य कारण होते हैं।

विनवा�ण

चि#�, #ैतचिसक और रूप �म� का यथाथ� ज्ञान हो जाने पर षिनवा�ण का साक्षात्कार षिकया जा सकता है। यथाथ� ज्ञान की प्रान्तिप्त करने के चिलए सा�ना (षिवपश्यना) करना #ाषिहए। सा�ना (षिवपश्यना) के द्वारा जो ज्ञान को प्राप्त करता है, वह आय�पुद्गल है, आय�पुद्गल ही षिनवा�ण का साक्षात्कार कर सकते हैं। जिजसके दु:ख और दु:ख के कारण (तृष्णा-समुदय) षिनवृ� हो जाते हैं, वही षिनवा�ण का साक्षात्कार कर सकता है, अत: दु:ख तथा तृष्णा से आत्यन्तिन्तकी षिनवृत्ति� ही 'षिनवा�ण' कहलाता है। यद्यषिप षिनवा�ण दु:खों से आत्यन्तिन्तकी षिनवृत्ति� मात्र का षिनरो� मात्र को कहते हैं, तथाषिप वह अभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंषिक वह आय�जनों के द्वारा साक्षात करने योग्य है अथा�त षिनवा�ण ज्ञानप्राप्त आय�जनों का षिव.य (आलम्बन) होने से अभाव नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: वह अत्यन्त सूक्ष्म �म� होने से सा�ारण जनों के द्वारा जानने एवं कहने योग्य नहीं होने पर भी वह आय�जनों का षिव.य होता है। इसचिलए षिनवा�ण को एक परमाथ� �म� कहते हैं।

षिनवा�ण र्शान्तिन्त सुख लक्षण वाला है। यहाँ सुख दो प्रकार का होता है-

1. र्शान्तिन्त सुख एवं 2. वेदधियतसुख।

र्शान्तिन्तसुख वेदधियतसुख की तरह अनुभूषितयोग्य सुख नहीं है। षिकसी एक षिवर्शे. वस्तु का अनुभव न होकर वह उपर्शमसुख मात्र है अथा�त दु:खों से उपर्शम होना ही है। षिनवा�ण के स्वरूप के षिव.य में आजकल नाना प्रकार की षिवप्रषितपत्ति�याँ हैं। कुछ लोग षिनवा�ण को रूप षिवरे्श. एवं नाम षिवर्शे. कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं। षिक नाम-रूपात्मक स्कन्ध के भीतर अमृत की तरह एक षिनत्य�म� षिवद्यमान है, जो नामरूपों के षिनरुद्ध होने पर भी अवचिर्शC रहता है, उस षिनत्य, अजर, अमर, अषिवनार्शी के रूप में षिवद्यमान रहना ही षिनवा�ण है, जैसे- अन्य भारतीय दार्श�षिनकों के मत में आत्मा। कुछ लोगों का मत है षिक षिनवा�ण की अवस्था में यदिद नामरूप �म� न रहेंगे तो उस अवस्था में सुख का अनुभव भी कैसे होगा इत्यादिद।

र्शील-विवमर्श�

जिजन आ#रणों के पालन से चि#� में र्शान्तिन्त का अनुभव होता है, ऐसे सदा#रणों को सदा#ार (र्शील) कहते हैं सामान्यतया आ#रणमात्र को र्शील कहते हैं। #ाहे वे अचे्छ हों, #ाहे बुरे, षिफर भी रूदिढ़ से सदा#ार ही र्शील कहे जाते हैं षिकन्तु केवल सदा#ार का पालन करना ही र्शील नहीं है, अषिपतु बुरे आ#रण भी 'र्शील' (दु:र्शील) हैं अचे्छ और बुरे आ#रण करने के मूल में जो उन आ#रणों को करने को पे्ररणा देने वाली एक प्रकार की भीतरी र्शचिक्त होती है, उसे #ेतना कहते हैं। वह #ेतना ही वस्तुत: 'र्शील' है। इसके अषितरिरक्त #ैतचिसक 'र्शील' संवरर्शील और अव्यषितक्रम र्शील- ये तीन र्शील और होते हैं-

$ेतनार्शील जीव विह2सा से षिवरत रहने वाले या गुरु, उपाध्याय आदिद की सेवा सुश्रु.ा करने वाले पुरु. की #ेतना (#ेतना र्शील) है। अथा�त जिजतने भी अचे्छ कम� (सु#रिरत) हैं, उनका सम्पादन करने की पे्ररिरका #ेतना '#ेतना र्शील' है। जब तक #ेतना न होगी तक पुरु. र्शरीर या वाणी से अचे्छ या बुरे कम� नहीं कर सकता। अत: अचे्छ कम� को सदा#ार (र्शील) कहना तथा बुरे कम� को दुरा#ार कहना, उन (सदा#ार, दुरा#ार) का स्थूल रूप से

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कथन है। वस्तुत: उनके मूल में रहने वाली #ेतना ही महत्त्वपूण� है, इसीचिलए भगवान बुद्ध ने '#ेतनाहं त्तिभक्खवे, कम्मं वदाधिम*' कहा है।

$ैतधिसक र्शील

जीवविह2सा आदिद दुCकम� से षिवरत रहने वाले पुरु. की वह षिवरषित '#ैतचिसक र्शील' है अथा�त दुष्कम� के करने से रोकने वाली र्शस्थिक्� 'षिवरषित है। यह षिवरषित भी एक प्रकार का 'र्शील' है, अत: इसे 'षिवरषित र्शील' भी कहते हैं। अथवा लोभ, दे्व. मोह आदिद का प्रहाण करने वाले पुरु. के जो अलोभ, अदे्व., अमोह हैं, वे '#ैतचिसक र्शील' हैं अथा�त जिजस पुरु. की सन्तान में लोभ, मोह न होंगे वह काय दुच्चरिरत आदिद दुष्कम� सें षिवरत रहेगा। अत: इन्हें (अलोभ आदिद को) 'षिवरषित र्शील' कहते हैं।

संवरर्शील

बुरे षिव.यों की ओर प्रवृ� इजिन्द्रयों की उन षिव.यों से रक्षा करना अथा�त अपनी इजिन्द्रयों को बुरे षिव.यों में न लगने देना, इस प्रकार अपने द्वारा स्वीकृत आ#रणों की रक्षा करना, ज्ञान के द्वारा क्लेर्श (नीवरण) �म� को उत्पन्न होने से रोकना, षिवपरीत �म� से समागम होने पर उन्हें सहन करना तथा उत्पन्न हो गये काम-षिवतक� आदिद को उत्पन्न न होने देने के चिलए प्रयास करना 'संवर र्शील' है।

अव्यवितक्रम र्शील

गृहीत व्रतों (चिर्शक्षाप्रदों) का काय और वाक् के द्वारा उल्लघंन न करना (अनुल्लंघन) अव्यषितक्रम र्शील कहलाता है। अथा�त जिजस पुरु. ने यह प्रषितज्ञा की है षिक मैं प्राणी-विह2सा न करँूगा- ऐसे पुरु. का षिकसी भी परिरस्थिस्थषित में र्शरीर या वाणी द्वारा अपनी प्रषितज्ञा का उल्लंघन न करना 'अव्यषितक्रम र्शील' है।

$ारिर� र्शील, वारिर� र्शील

यद्यषिप र्शील अनेकों प्रकार के हैं, तथाषिप उनका #ारिर� र्शील व वारिर� र्शील इन दो में संग्रह हो जाता है। जिजन कम� का सम्पादन करना #ाषिहए, उनका सम्पादन करना '#ारिर� र्शील' है तथा जिजन्हें नहीं करना #ाषिहए, उन्हें न करना 'वारिर� र्शील' है। भगवान बुद्ध ने षिवनय षिपटक में त्तिभकु्षओं के चिलए जो करणीय आ#रण कहे हैं, उनके करने से यद्यषिप '#ारिरत्त्व र्शील' पूरा हो जाता हे, और षिनषि.द्ध कम� के न करने से 'वारिर� र्शील' पूरा हो जाता है, तथाषिप उन्होंने षिनवा�ण प्रान्तिप्त के चिलए जो माग� प्रदर्शिर्श2त षिकया है, उसे अपने जीवन में उतारने से ही #रिर� र्शील, भलीभांषित पूरा होता है।

विनत्यर्शील

1. प्राणाषितपात से षिवरत रहना, 2. #ोरी से षिवरत रहना, 3. मृ.ावाद से षिवरत रहना, 4. काम धिमथ्या#ार से षिवरत रहना, तथा 5. र्शराब आद मादक द्रव्यों के पीने से षिवरत रहना-

ये पाँ# षिनत्य र्शील हैं। अथा�त इनके पालन से कोई पुण्य नहीं होता, षिकन्तु इनका पालन न करने से दो. (आपत्ति�) होता है। ये 5 र्शील सभी लोगों के चिलए अषिनवाय� हैं। गृहस्थ, प्रव्रजिजत (श्रामणेर), त्तिभक्षु-त्तिभक्षुणी

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सभी को इनका पालन करना #ाषिहए। यदिद गृहस्थ श्रद्धा और उत्साह से सम्पन्न हो तो वह अCमी, पूर्णिण2मा अमावस्या (उपोसथ) के दिदन 8 या 10 र्शीलों का भी पालन कर सकता है। इन्हें अCाङ्गर्शील या दर्शर्शील कहते हैं।

अष्टाङ्गर्शील

1. प्रात्तिण-विह2सा से षिवरत रहना, 2. #ोरी न करना, 3. ब्रह्म#य� का पालन करना, 4. झूठ बोलने से षिवरत रहना, 5. र्शराब आदिद मादक द्रव्यों के सेवन से षिवरत रहना, 6. दोपहर 12 बजे के बाद (षिवकाल में) भोजन न करना, 7. नृत्य, गीत आदिद न देखना, न सुनना तथा माला, सुगन्ध आदिद का इस्तेमाल न करना तथा 8. ऊँ#े और श्रेx आसनों का त्याग करना।

दर्श र्शील

अCाङ्ग र्शील के 7 वें र्शील को दो भागों में षिवभक्त कर दिदया जाता है, इस तरह 8 वें के स्थान पर 9 हो जाते हैं तथा उसमें स्वण�, #ाँदी आदिद का ग्रहण न करना एक र्शील को और जोड़ दिदया जाता है, इस तरह कुल 10 र्शील हो जाते हैं।

$ातुपरिरर्शुणिद्ध र्शील

ऊपर जो र्शील कहे गये हैं, वे सामान्यतया गृहस्थ आदिद की दृधिC से प्रहाण करने योग्य र्शील हैं। योगी त्तिभकु्षओं के चिलए षिवर्शे.त: क्लेर्शों के प्रहाण के चिलए 4 प्रकार के परिररु्शजिद्धर्शीलों का पालन करना आवश्यक होता है और सभी र्शील इनके अन्तग�त आ जाते हैं। अत: इनका यहाँ प्रषितपादन षिकया जा रहा है।

1. प्राषितमोक्ष संवरर्शील— जिजनके पालन से मोक्ष की प्रान्तिप्त हो जाती है, ऐसे आ#रणों (चिर्शक्षापदों) को 'प्राषितमोक्ष' कहते हैं। उन आ#रणों की रक्षा करना ही 'प्राषितमोक्ष संवरर्शील' है। इनके पालन के चिलए श्रद्धा का होना परम आवश्यक है। बुद्ध र्शासन के प्रषित श्रद्धा होने पर ही बुद्ध के द्वारा उपदिदC आ#रणों (चिर्शक्षापदों) का पालन षिकया जा सकता है। त्तिभक्षु में जब श्रद्धा का आधि�क्य होता है, तो वह बुद्ध द्वारा उपदिदC अपने र्शीलों का उसी प्रकार साव�ानी के साथ आ#रण करता है, जिजस प्रकार #ामरी गाय अपनी पँूछ की, माता अपने एकमात्र षिप्रय पुत्र की तथा काणा व्यचिक्त अपनी एक आँख की साव�ानी के साथ आ#रण करता है।

2. इजिन्द्रय संवरर्शील— #क्षु आदिद इजिन्द्रयों की रक्षा करना 'इजिन्द्रय संवरर्शील' है। जब त्तिभक्षु उपयु�क्त प्राषितमोक्ष संवरर्शील से सम्पन्न हो जाता है, तब वह इजिन्द्रय संवरर्शील का भी पालन करने में समथ� हो जाता है। ये दोनों र्शील वस्तुत: परस्परात्तिश्रत होते हैं। जो प्राषितमोक्षसंवर र्शील से सम्पन्न होता है, वह इजिन्द्रय संवरर्शील का भी पालन करता है तथा जो इजिन्द्रय संवरर्शील से सम्पन्न होता है, वह प्राषितमोक्ष संवरर्शील का भी पालन करता है। इजिन्द्रय संवरर्शील से सम्पन्न होने के चिलए अपने #क्षु आदिद इजिन्द्रयों

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की रक्षा की जाती है। जैसे- जब #कु्ष के सम्मुख वण� (रूप) उपस्थिस्थत होता है तो उस रूप के प्रषित राग आदिद का उत्पाद नहीं होने देना #ाषिहए।

3. आजीव पारिरर्शुजिद्धर्शील— अपनी जीषिवका #लाने के चिलए ग़लत (पापमूलक) सा�नों का प्रयोग न करना 'आजीव पारिरर्शुजिद्धर्शील' है। जब कोई व्यचिक्त त्तिभकु्ष-दीक्षा ग्रहण करता है, तो उसे दीक्षा के साथ ही त्तिभक्षापात्र भी धिमल जाता हा, जिजसे लेकर वह गाँव-नगर में घूमता है और श्रद्धालु लोगों द्वारा श्रद्धापूव�क जो भी भोजन, वस्त्र आदिद दिदये जाते हैं, उनसे अपनी जीषिवका #लाता है।

प्रत्ययसधिन्नत्तिश्रत र्शील— वस्त्र, (#ीवर), भोजन (षिपण्डपात), र्शयनासन (षिवहार) तथा औ.धि� (ग्लानप्रत्ययभै.ज्य)- इन #ार वस्तुओं का प्रत्यय कहते हैं। जो त्तिभक्षु इन #ार वस्तुओं को ही अपने जीवन का सा�न बनाता है, उस त्तिभक्षु का यह आ#रण ही 'प्रत्ययसधिन्नत्तिश्रत र्शील' कहलाता है। इस र्शील की सम्पन्नता के चिलए 'प्रज्ञा' की परम आवश्यकता है। यद्यषिप भगवान बुद्ध ने अपने त्तिभकु्षओं को तीन वस्त्र और भोजन आदिद का आश्रय लेकर जीवन #लाने के चिलए कहा है, तथाषिप इनका इस्तेमाल खू़ब सो#-षिव#ार करके षिकया जाता है।

1. �ुतांग— र्शीलों के पालन से यद्यषिप त्तिभकु्ष परिररु्शद्धर्शील हो जाता है, तथाषिप जो त्तिभक्षु अल्पेच्छता, अल्पसन्तुधिC आदिद गुणों से युक्त होते हैं, वे यदिद अपने र्शीलों को और पषिवत्र करना #ाहते हैं, तो भगवान बुद्ध ने उनके चिलए 13 प्रकार के परिररु्शद्ध र्शीलों अथा�त �ुतांगों का उपदेर्श षिकया है।

समाधि�— षिवमर्श�

समाधि�

र्शोभन षिव.यों मे प्रवृ� राग, दे्व. मोह से रषिहत पषिवत्र चि#� (कुर्शल चि#�) की एकाग्रता (षिन�लता) को समाधि� कहते हैं। समाधि� का अथ� समा�ान है। अथा�त् एक आलम्बन (षिव.य) में चि#� #ैतचिसकों का बराबर (सम्) तथा भलीभांषित (सम्यक्) प्रषितधिxत होना या रखना (आघान) 'समा�न' है। इसचिलए जिजस तत्त्व के प्रभाव से एक आलम्बन में चि#�-#ैतचिसक बराबर और भलीभांषित षिवत्तिक्षप्त और षिवप्रकीण� न होते हुए स्थिस्थत होते हैं, उस तत्त्व को 'समाधि�' कहते हैं।

पंतजचिल ने भी चि#� की वृत्ति�यों के षिनरो� को 'योग' कहा है।*

व्यास ने योग को समाधि� कहा है।*

वृत्ति�कार ने योग का अथ� 'समा�ान' बतलाया है।*

इस प्रकार बौद्ध और बौदे्ध�र आ#ाय� ने 'समाधि�' र्शब्द की व्युत्पत्ति� समानरूप से की है। अंगु�रषिनकाय में बुद्ध ने समाधि� की बहुलता से वत�मान जीवन में सुखपूव�क षिवहार (दृधिC�म�-

सुखषिवहार), दिदव्य#कु्ष-ज्ञान, स्मृषित-सम्प्रज्ञान से सम्पन्नता और क्लेर्श (आस्त्रव) क्षय आदिद अनेक गुण बताये हैं।* इस प्रकार समाधि� का अथ� एकाग्रता से अधि�क महनीय और गम्भीर चिसद्ध होता है।

कम�स्थान

कम�स्थान दो प्रकार के होते हैं, यथा- र्शमथ कम�स्थान और षिवपश्यना कम�स्थान। योगी जिजन आलम्बनों को अपने भावनाकृत्य की सम्पन्नता के चिलए सा�न बनाता है, उन्हें 'कम�स्थान' कहते हैं। पृथ्वी, अप् आदिद #ालीस प्रकार के सा�न 'समाधि�' के आलम्बन' (र्शमथ कम�स्थान) हैं। तथा पं#स्कन्धात्मक नाम-रूप आदिद सा�न प्रज्ञा के षिव.य (षिवपश्यना कम�स्थान) हैं। आनापानस्मृषित – बौद्ध सा�ना में श्वास और प्रश्वास को 'आनापान' कहते हैं। इसे ही पातंजल योग-दर्श�न में 'प्राणायाम' कहा गया है। यह श्वास-प्रश्वास (आनापान) समाधि�लाभ के

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चिलए एक उत्कृC सा�न है। यह ठीक भी है, क्योंषिक प्राण ही जीवन है। प्राण ही समस्त संसार का मूल कारण है। प्राण के षिबना प्राणी का जीषिवत रहना असम्भव है। सभी जीवों के चिलए प्राण अषिनवाय� अंग है। जब से जीव जन्म लेता है, तभी से श्वास-प्रश्वास प्रषिक्रया प्रारम्भ हो जाती है। इसचिलए बौद्ध और बौदे्धतर भारतीय योगर्शास्त्र में प्राणायाम या आनापान का अत्यधि�क महत्त्व प्रषितपादिदत षिकया गया है।

विवर्शुणिद्ध और ज्ञान

यहाँ योगी नाम-रूप संस्कार �म� के प्रषित केवल अषिनत्य या दु:ख या अनात्म की भावनामात्र से माग� एवं फल ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, अषिपतु उसे संस्कार �म� की अषिनत्य, दु:ख एवं अनात्म-इन तीन स्वभावों (लक्षणो) से षिवपश्यना-भावना करनी पड़ती है। माग� प्रान्तिप्त के पूव�-क्षण में यदिद संस्कार �म� के अषिनत्य स्वभाव को देखता है तो वह माग� एवं फल अषिनधिम�षिवमोक्ष कहलाता है। यदिद माग� प्रान्तिप्त के पूव�-क्षण में संस्कार �म� को दु:ख स्वभाव अथवा अनात्म स्वभाव देखता है तो वह माग� एवं फल अप्रत्तिणषिहत अथवा रू्शन्यताषिवमोक्ष कहलाता है।

वैभावि>क दर्श�न / Vaibhashik Philosophy

अनुक्रम[छुपा]

1 वैभाषि.क दर्श�न / Vaibhashik Philosophy

2 परिरभा.ा 3 हेतु - फलवाद 4 वैचिर्शCय 5 परमाणु षिव#ार 6 ज्ञानमीमांसा 7 बुद्ध

8 सम्बंधि�त सिल2क

(सवा�स्मिस्तवाद)

इनका बहुत कुछ साषिहत्य नC हो गया है। इनका षित्रषिपटक संस्कृत में था। इनके अत्तिभ�म� में प्रमुख रूप में सात ग्रन्थ हैं, जो प्राय: मूल रूप में अनुपलब्ध हैं या आंचिर्शक रूप में उपलब्ध हैं।

#ीनी भा.ा में इनका और इनकी षिवभा.ा टीका का अनुवाद उपलब्ध है। वे सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-

1. ज्ञानप्रस्थान,

2. प्रकरणपाद,

3. षिवज्ञानकाय,

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4. �म�स्कन्ध,

5. प्रज्ञन्तिप्तर्शास्त्र,

6. �ातुकाय एवं 7. संगीषितपया�य।

वैभाषि.क और सवा�स्मिस्तवादी दोनों अत्तिभ�म� को बुद्धव#न मानते हैं।

[संपादिदत करें] परिरभा>ा सवा�स्मिस्तवाद र्शब्द में 'सव�' का अथ� तीनों काल तथा 'अस्मिस्त' का अथ� द्रव्यस�ा है अथा�त जो षिनकाय

तीनों कालों में �म� की द्रव्यस�ा करते हैं, वे सवा�स्मिस्तवादी हैं* परमाथ� के अनुसार जो अतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न, आकार्श, प्रषितसंख्याषिनरो� और

अप्रषितसंख्याषिनरो�-इन सबका अस्मिस्तत्व स्वीकार करते हैं, वे सवा�स्मिस्तवादी हैं। वसुबनु्ध कहते हैं षिक जो प्रत्युत्पन्न और अतीत कम� के उस प्रदेर्श (षिहस्से) को, जिजसने अभी फल नहीं

दिदया है, उसे सत् मानते हैं तथा अनागत और अतीत कम� के उस प्रदेर्श (षिहस्से) को, जिजसने फल प्रदान कर दिदया है, उसे असत् मानते हैं, वे षिवभज्यवादी हैं, न षिक सवा�स्मिस्तवादी। उनके मतानुसार जिजनका वाद यह है षिक अतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न सबका अस्मिस्तत्व है, वे सवा�स्मिस्तवादी हैं। सवा�स्मिस्तवादी आगम और युचिक्त के आ�ार पर तीनों कालों की स�ा चिसद्ध करते हैं। उनका कहना है षिक सूत्र में भगवान ने अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों में होनेवाले रूप आदिद स्कन्धों की देर्शना की है (रुपमषिनत्यमतीतमनागतम् इत्यादिद)। युचिक्त प्रस्तुत करते हुए वे कहते है षिक अतीत, अनागत की स�ा न होगी तो योगी में अतीत, अनागत षिव.यक ज्ञान ही उत्पन्न न हो सकेगा, जबषिक ऐसा ज्ञान होता है तथा यदिद अतीत नहीं है तो अतीत कम� अनागत में कैसे फल दे सकेगा? अथा�त नहीं दे सकेगा। अत: इन और अन्य अनेक युचिक्तयों के आ�ार पर चिसद्ध होता है षिक अतीत, अनागत की स�ा है।

[संपादिदत करें] हेतु-फलवाद इसे वैभाषि.कों का काय�-कारणभाव भी कह सकते हैं। इनके मत में छह हेतु, #ार प्रत्यय और #ार फल

माने जाते हैं। छह हेतु इस प्रकार हैं-

1. कारणहेतु,

2. सहभूहेतु,

3. सभागहेतु,

4. सम्प्रयुक्तकहेतु,

5. सव�त्रगहेतु एवं 6. षिवपाकहेतु।

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#ार प्रत्यय हैं, यथा-

1. हेतु-प्रत्यय,

2. समनन्तर-प्रत्यय,

3. आलम्बन-प्रत्यय एवं 4. अधि�पषित-प्रत्यय।

#ार फल हैं, यथा-

1. षिवपाकफल,,

2. अधि�पषितफल,

3. षिनष्यन्दफल एवं 4. पुरु.कारफल।

कारणहेतु— सभी �म� अपने से अन्य सभी �म� के कारणहेतु होते हैं। कोई भी �म� अपना कारणहेतु नहीं होता। अथा�त सभी �म� उत्पन्न होनेवाले समस्त संस्कृत �म� के कारणहेतु होते हैं, क्योंषिक इनका उनके उत्पाद में अषिवघ्नभाव से अवस्थान होता है। आर्शय यह है षिक काय� के उत्पाद में षिवघ्न न करना कारणहेतु का लक्षण है।

सहभूहेतु— सहभूहेतु वे �म� हैं, जो परस्पर एक-दूसरे के फल होते हैं। जैसे #ारों महाभूत परस्पर एक दूसरे के हेतु और फल होते हैं, यथा-एक षितपाही के तीनों पाँव एक-दूसरे को खड़ा रखते हैं। सभी संस्कृत �म� यथासम्भव सहभूहेतु हैं, बर्शत« षिक वे अन्योऽन्यफल के रूप में सम्बद्ध हों।

सभागहेतु— सदृर्श �म� सभागहेतु होते हैं। सदृर्श �म� सदृर्श �म� के सभागहेतु होते हैं। यथा-कुर्शल �म� कुर्शल के और स्थिक्लC �म� स्थिक्लC �म� के सभागहेतु होते हैं।

सम्प्रयुक्तकहेतु— चि#� और #ैतचिसक सम्प्रयुक्तक हेतु होते हैं। वे ही चि#�-#ैतचिसक परस्पर सम्प्रयुक्तकहेतु होते हैं, जिजनका आश्रय सम या अत्तिभन्न होता है। जैसे #कु्षरिरजिन्द्रय का एक क्षण एक #कु्षर्तिव2ज्ञान और तत्सम्प्रयुक्त वेदना आदिद #ैतचिसकों का आश्रय होता है। इसी तरह मन-इजिन्द्रय का एक क्षण, एक मनोषिवज्ञान एवं तत्सम्प्रयुक्त #ैतचिसकों का आश्रय होता है। वे हेतु सम्प्रयुक्तक कहलाते हैं, जिजनकी सम प्रवृत्ति� होती है। चि#� और #ैतचिसक पाँ# समताओं से सम्प्रयुक्त होते हैं, क्योंषिक उनके आश्रय, आलम्बन और आकार एक ही होते हैं। क्योंषिक वे एक साथ उत्पन्न होते हैं। क्योंषिक इनका काल भी एक ही होता है। इन पाँ# समताओं में से यदिद एक का भी अभाव हो तो उनकी सम-प्रवृत्ति� नहीं हो सकती। ऐसा स्थिस्थषित में वह सम्प्रयुक्त नहीं हो सकते।

सव�त्रगहेतु— पूवoत्पन्न सव�त्रग स्वभूधिमक स्थिक्लC �म� के सव�त्रगहेतु होते है। अथा�त् पूवoत्पन्न अथा�त् अतीत या प्रत्युत्पन्न स्वभूधिमक सव�त्रग बाद में उत्पन्न होने वाले स्वभूधिमक स्थिक्लC �म� के सव�त्रगहेतु होते हैं। सव�त्रग हेतु स्थिक्लC �म� के सामान्य कारण हैं। ये षिनकायान्तरीय स्थिक्लC �म� के भी हेतु होते हैं। अथा�त् इनके प्रभाव से अन्य षिनकायों (र्शरीरों) में सपरिरवार क्लेर्श उत्पन्न होते हैं।

षिवपाकहेतु— अकुर्शल और सास्रव कुर्शल �म� षिवपाकहेतु होते हैं। क्योंषिक षिवपाक देना इनकी प्रकृषित हैं अव्याकृत �म� षिवपाकहेतु नहीं हो सकते, क्योंषिक वे दुब�ल होते हैं।

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फलव्यवस्था— षिवपाकफल अन्तिन्तम षिवपाकहेतु से उत्पन्न होता है। इसके दो अथ� षिकये जाते हैं, यथा- एक षिवपाक का हेतु और दूसरा षिवपाक ही हेतु। षिवपाक र्शब्द के दोनों अथ� युक्त हैं। प्रथम कारण हेतु का अधि�पषितफल होता है। सभाग और सव�त्रग हेतु का षिन:ष्यन्द फल होता है तथा सहभूहेतु और सम्प्रयुक्तकहेतु का पुरु.कार फल होता है।

[संपादिदत करें] वैणिर्शष्टयवैभाषि.कों को छोड़कर अन्य सभी बौद्ध काय� और कारण को एककाचिलक नहीं मानते। षिकन्तु वैभाषि.कों की यह षिवरे्श.ता है वे षिक हेतु और फल को एककाचिलक भी मानते हैं, यथा-सहजात (सहभू) हेतु।

सत्य-य व्यवस्था

वैभाषि.क भी अन्य बौद्धों की भाँषित दो सत्यों की व्यवस्था करते हैं। सत्य दो हैं, यथा-

1. संवृषितसत्य एवं 2. परमाथ�सत्य।

संवृषितसत्य— अवयवों का भेद अथा�त उन्हें अलग-अलग कर देने पर जिजस षिव.य में तदबुजिद्ध का नार्श हो जाता है, उसे संवृषित-सत्य कहते हैं, जैसे घट या अम्बु (जल)। जब घट का मुद्गर आदिद से षिवनार्श कर दिदया जाता है और जब वह कपाल के रूप में परिरणत हो जाता है, तब उस (घट) में जो पहले घटबुजिद्ध हो रही थी, वह नC हो जाती है। इसी तरह अम्बु का बुजिद्ध द्वारा षिवश्ले.ण करने पर अम्बुबुजिद्ध भी समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार उपकरणों द्वारा या बुजिद्ध द्वारा षिवशे्ल.ण करने पर जिजन षिव.यों में तदषिव.यक बुजिद्ध का षिवनार्श हो जाता है, वे �म� संवृषितसत्य कहलाते हैं। सांवृषितक दृधिC से घट या अम्बु कहने वाला व्यचिक्त सत्य ही बोलता है, धिमथ्या नहीं, अत: इन्हें 'संवृषितसत्य' कहते हैं।

परमाथ� सत्य- संवृषितसत्य से षिवपरीत सत्य परमाथ�सत्य है। अथा�त उपकरण या बुजिद्ध द्वारा भेद कर देने पर भी जिजन षिव.यों में तदषिव.यक बुजिद्ध का नार्श नहीं होता, वे �म� 'परमाथ�सत्य' यथा- रूप, वेदना, ज्ञान, षिनवा�ण आदिद। रूप का परमाणु में षिवभाजन कर देने पर भी रूपबुजिद्ध नC नहीं होती। इसी तरह अन्य षिव.यों के बारे में भी जानना #ाषिहए। ये �म� परमाथ�त: सत्य होते हैं, अत: 'परमाथ�सत्य' कहलाते हैं। अथवा जो �म� आय� योगी के समाषिहत लोको�र ज्ञान द्वारा जैसे गृहीत होते हैं, उसी रूप में पृxलब्ध ज्ञान द्वारा भी गृहीत होते हैं, वे *'परमाथ�सत्य' हैं। यदिद वैसे ही गृहीत नहीं होते तो वे संवृषित सत्य हैं।

दु:खसत्य, समुदयसत्य, षिनरो�सत्य एवं माग�सत्य-इस तरह #ार सत्य होते हैं। ऊपर जो दो सत्य कहे गये हैं, उनसे इनका कोई षिवरो� नहीं है। #ार आय�सत्य दो में या दो सत्य #ार में परस्पर संगृहीत षिकये जा सकते हैं। जैसे षिनरो� सत्य परमाथ� सत्य है तथा रे्श. तीन संवृषितसत्य।

[संपादिदत करें] परमाणु विव$ारवैभाषि.क मत में परमाणु षिनरवयव माने जाते हैं। संघात होने पर भी उनका परस्पर स्पर्श� नहीं होता। परमाणु षिद्वषिव� हैं, यथा-

1. द्रव्यपरमाणु एवं

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2. संघातपरमाणु।

अकेला षिनरवयव परमाणु द्रव्यपरमाणु कहलाता है। संघात परमाणु में कम से कम आठ परमाणु अवश्य रहते हैं, यथा 4 महाभूतों (पृथ्वी, अप्, तेजस्

और वायु) के तथा #ार उपादाय रूपों (रूप, गन्ध, रस, स्प्रCव्य) के परमाणु एक कलाप (संघात) में षिनत्ति�त रूप से रहते हैं। यह व्यवस्था काम�ातु के संघात के बारे में है। काम�ातु का एक परमाणुकलाप, जिजसमें र्शब्द और इजिन्द्रय परमाणु नहीं है, वह षिन�य ही अCद्रव्यात्मक होता है।

सौत्रान्तिन्तक द्रव्यपरमाणु की स�ा नहीं मानते, वे केवल संघात परमाणु ही मानते हैं। आ#ाय� वसुबनु्ध भी सौत्रान्तिन्तक के इस मत से सहमत हैं।

[संपादिदत करें] ज्ञानमीमांसावैभाषि.क भी दो ही प्रमाण मानते हैं, यथा-

1. प्रत्यक्ष और 2. अनुमान।

प्रत्यक्ष इनके मत में तीन ही हैं, यथा-

1. इजिन्द्रयप्रत्यक्ष,

2. मानसप्रत्यक्ष एवं 3. योषिगप्रत्यक्ष।

ये स्वसंवेदनप्रत्यक्ष नहीं मानते, जैसा षिक सौत्रान्तिन्तक आदिद न्यायानुसारी बौद्ध मानते हैं। इसका कारण यह है षिक ये ज्ञान में ग्राह्यकार नहीं मानते, इसचिलए ग्राहकाकार (स्वसंवेदन) भी नहीं मानते। इनके मत में ज्ञान षिनराकार होता है। स्वसंवेदन नहीं मानने से इनके अनुसार ज्ञान की स�ा का षिन�य परवतD ज्ञान द्वारा हुआ करता है। यह परवतD ज्ञान स्मृत्यात्मक या कल्पनात्मक ही होता है। आर्शय यह है षिक इनके अनुसार ज्ञान स्मृत हुआ करता है। वह स्वयंप्रकार्श नहीं होता।

इजिन्द्रयप्रत्यक्ष— इजिन्द्रयों से उत्पन्न ज्ञान इजिन्द्रयप्रत्यक्ष है। इनके मत में यद्यषिप #क्षु.् ही रूप को देखता है, तथाषिप ये #कु्षर्तिव2ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। इजिन्द्रयप्रत्यक्ष पाँ# हैं, यथा- ##कु्षर्तिव2ज्ञान,

1. श्रोत्रषिवज्ञान,

2. घ्राणषिवज्ञान,

3. षिवह्रषिवज्ञान एवं 4. कायषिवज्ञान।

मानसप्रत्यक्ष— इजिन्द्रय षिवज्ञानों के अनन्तर उन्हीं के षिव.य को ग्रहण करता हुआ यह मानसप्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। समनन्तर अतीत छह षिवज्ञान अथा�त मनो�ातु इसका अधि�पषितप्रत्यय होता है।

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योषिगप्रत्यक्ष— योगी दो प्रकार के होते हें- लौषिकक एवं लोको�र। इनमें से लोको�र योगी का प्रत्यक्ष ही योषिगप्रत्यक्ष होता है, इसे लोको�र माग�ज्ञान भी कह सकते हैं। #ार आय�सत्य, षिनवा�ण एवं नैरात्म्य इसके षिव.य होते हैं। लौषिकक योगी की दिदव्यश्रोत्र, दिदव्य#कु्ष.् आदिद अत्तिभज्ञाए ंमानसप्रत्यक्ष ही हैं, योषिगप्रत्यक्ष नहीं।

कल्पना— जो ज्ञान वस्तु से उत्पन्न न होकर र्शब्द को अधि�पषितप्रत्यय बनाकर उत्पन्न होता है अथवा जो ज्ञान #कु्षरादिद प्रत्यक्ष षिवज्ञानों के अनन्तर अध्यवसाय करते हुए उत्पन्न होता हा, वह 'कल्पना' या 'षिवकल्प' है।

ज्ञानाकार— इनके मत में ज्ञान में आकार नहीं माना जाता। ये ज्ञान को साकार नहीं, अषिपतु षिनराकार मानते हैं। इसी प्रकार ये वस्तु में भी आकार नहीं मानते। षिनराकार ज्ञान परमाणु-समूह को देखता है। परमाणु वस्त्वाकार नहीं होते। यदिद ज्ञान साकार वस्तु का ग्रहण करेगा तो आकारमात्र का दर्श�न करेगा, वस्तु का नहीं।

माग�-फल-व्यवस्था— माग� पाँ# होते हैं, यथा- प्रयोगमाग�, दर्श�नमाग�, भावनामाग� एवं अर्शैक्षमाग�। प्रथम दो माग� पृथग्जन अवस्था के माग� हैं और ये लौषिकक माग� कहलाते हैं। र्शे. तीन माग� आय� पुद्गलल के माग� हैं और लोको�र हैं आय� के माग� ही वस्तुत: 'माग�सत्य' हैं। प्रथम दो माग� यद्यषिप माग� हैं, षिकन्तु माग�सत्य नहीं।

अर्शैक्षमाग�— अरै्शक्षमाग� के क्षण में कोई हेय क्लेर्श अवचिर्शC नहीं रहता। केवल र्शरीर ही अवचिर्शC रहता है। अर्शैक्ष माग� लोको�र प्रज्ञा है, जिजसका आलम्बन केवल षिनवा�ण होता है।

षित्रयानव्यवस्था— श्रावकयान, प्रत्येकबुद्धयान एवं बोधि�सत्त्वयान-ये तीन यान होते हैं। श्रावकगोत्रीय पुद्गल का लक्ष्य प्राय: पुद्गलनैरात्म्य का साक्षात्कार करनेवाली प्रज्ञा द्वारा अपने क्लेर्शों का प्रहाण कर #ाय� आय�सत्यों का साक्षात्कार करके श्रावकीय अह�त्त्व पद प्राप्त करना है। इसके चिलए सव�प्रथम अकृषित्रम षिनया�ण चि#� का उत्पाद आवश्यक है। सम्भारमाग� प्राप्त होने के अनन्तर अत्यन्त तीक्ष्णप्रज्ञ पुद्गल तीन जन्मों में अह�त्त्व प्राप्त कर लेता है। स्त्रोतापत्ति� माग� प्राप्त होने के अनन्तर आलसी सा�क भी काम�ातु में सात से अधि�क जन्मग्रहण नहीं करता।

[संपादिदत करें] बुद्धवैभाषि.क मतानुसार बोधि�सत्त्व जब बुद्धत्व प्राप्त कर लेता है, तब भी उसका र्शरीर सास्रव ही होता है तथा वह दु:खसत्य और समुदयसत्य होता है, षिकन्तु उसकी सन्तान में क्लेर्श सव�था नहीं होते। क्लेर्शावरण के अलावा ज्ञेयावरण का अस्मिस्तत्व ये लोग षिबल्कुल नहीं मानते। बुद्ध के 12 #रिरत्र होते हैं। उनमें से

1. तुषि.त क्षेत्र से च्युषित, 2. मातृकृत्तिक्षप्रवेर्श,

3. लुन्धिम्बनी उद्यान में अवतरण,

4. चिर्शल्प षिव.य में नैपुण्य एवं कौमायoचि#त लचिलत क्रीड़ा तथा 5. राषिनयों के परिरवार के साथ राज्यग्रहण-ये पाँ# गृहस्थपात्तिक्षक #रिरत्र हैं तथा 6. रोगी, वृद्ध आदिद #ार षिनधिम�ों को देखकर ससंवेग प्रव्रज्या, 7. नेरंजना के तट पर 6 व.� तक कदिठन तप�रण,

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8. बोधि�वृक्ष के मूल में उपस्थिस्थषित,

9. मार का सेना के साथ दमन,

10. वैर्शाख पूर्णिण2मा की राषित्र में बुद्धत्वप्राप्त,

11. �म�#क्र प्रवत�न तथा 12. कुर्शीनगर में महापरिरषिनवा�ण-ये सात #रिरत्र प्रव्रज्यापात्तिक्षक हैं।

श्रावक

अह�त्, प्रत्येकबुद्ध अह�त् एवं बुद्ध इन तीनों को जब अनुपधि�रे्श.षिनवा�ण की प्रान्तिप्त हो जाती है, तब इनकी जड़ सन्तषित एवं #ेतन-सन्तषित दोनों �ाराए ंसव�था समाप्त हो जाती हैं। इन दोनों �ाराओं का अभाव ही अनुपधि�र्शे.षिनवा�ण है और इसकी भी द्रव्यस�ा वैभाषि.क स्वीकार करते हैं। इनके मत में सभी �म� द्रव्यसत् और अथ�षिक्रयाकारी माने जाते हैं। आकार्श, षिनवा�ण आदिद सभी �म� इसी प्रकार के होते हैं। जो सव�था नहीं होते, जैसे र्शर्शषिव.ाण, वन्ध्यापुत्र आदिद असत् होते हैं। कुछ ऐसे भी वैभाषि.क थे, जो षिनरुधि�र्शे.षिनवा�ण के अनन्तर भी #ेतन�ारा का अस्मिस्तत्व मानते थे। वैभाषि.कों के मत में सम्भोगकाय एवं �म�काय नहीं होता। केवल षिनमा�णकाय ही होता है।

सौ1ाप्तिन्तक दर्श�नअनुक्रम[छुपा]

1 सौत्रान्तिन्तक दर्श�न 2 उद्भव एवं षिवकास 3 समीक्षा 4 सौत्रान्तिन्तक की परिरभा.ा 5 षित्रषिपटक 6 षिनष्क.� 7 प्रमुख सौत्रान्तिन्तक चिसद्धान्त 8 आश्रय , वस्तु या पदाथ� 9 आत्तिश्रत माग� 10 फल 11 फलस्थ पुद्गल 12 सौत्रान्तिन्तक दर्श�न की दस षिवर्शे.ताएं 13 काय

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14 ज्ञानमीमांसा

15 सम्बंधि�त सिल2क

[संपादिदत करें] उद्भव एवं विवकास सामान्यतया षिवद्वानों की �ारणा है षिक सौत्रान्तिन्तक षिनकाय का प्रादुभा�व बुद्ध के परिरषिनवा�ण के अनन्तर

षिद्वतीय र्शतक में हुआ। पाचिल-परम्परा के अनुसार वैर्शाली की षिद्वतीय संगीषित के तत्काल बाद कौर्शाम्बी में आयोजिजत

महासंगीषित में महासांधिघक षिनकाय का गठन षिकया गया और बौद्ध संघ दो भागों में षिवभक्त हो गया। थोडे़ ही दिदनों के अनन्तर स्थषिवर षिनकाय से महीर्शासक और वृजिजपुत्रक (वस्थिज्जपु�क) षिनकाय षिवकचिसत हुए। उसी र्शताब्दी में महीर्शासक षिनकाय से सवा�स्मिस्तवाद, उससे काश्यपीय; उनसे संक्रान्तिन्तवादी, षिफर उससे सूत्रवादी षिनकाय का जन्म हुआ। आर्शय यह षिक सभी अठारह षिनकाय उसी र्शताब्दी में षिवकचिसत हो गये।

[संपादिदत करें] समीक्षा1. षिनकायों के नामों और काल के षिव.य में जो मतभेद उपलब्ध होते हैं। उसका कारण देर्श भेद और

आवागमन की सुषिव�ा का अभाव भी प्रतीत होता है। उदाहरणाथ� भारत के पत्ति�मो�र में अथा�त कश्मीर, गान्धार आदिद प्रदेर्शों में सौत्रान्तिन्तक षिनकाय कश्मीर वैभाषि.कों से पृथक् होकर षिवलम्ब से अस्मिस्तत्व में आया, अत: वसुधिमत्र उसका अद्भवकाल #तुथ� बुद्ध र्शताब्दी षिनत्ति�त करते हैं। उस षिनकाय ने मध्य देर्श अथा�त मथुरा आदिद स्थानों में पहले ही अपना स्वरूप प्राप्त कर चिलया, अत: वसुधिमत्र से अन्य आ#ाय� का मत त्तिभन्न हो गया। इस प्रकार का मतभेद होने पर भी उनमें मौचिलक एकरूपता दृधिCगो#र होती है। उदाहरण के रूप में काश्यपीय षिनकाय के षिवत्तिभन्न नाम षिवत्तिभन्न प्रदेर्शों में थे।

2. ऐषितहाचिसक दृधिC से षिव#ार करने पर ऐसा प्रतीत होता है षिक सौत्रान्तिन्तक षिनकाय के बीज बुद्ध काल में ही षिवद्यमान थे। पाचिल भा.ा में उपषिनबद्ध और उपलब्ध प्रामात्तिणक बुद्धव#नों में तथा भोट भा.ा और #ीनी भा.ा में उपलब्ध एवं सुरत्तिक्षत उनके अनुवादों में 'सु�न्तिन्तक', 'सु��र' (सूत्र�र), 'सु�वादी' (सूत्रवादी) आदिद र्शब्द बहुलतया उपलब्ध होते हैं। ज्ञात है षिक उस काल में चिसद्धान्त षिवर्शे. के चिलए 'वाद' र्शब्द प्रयुक्त होता था। सूत्रों में 'सु��र', 'सु�वादी', 'सु�न्तिन्तक', 'सु�न्तवादी' आदिद र्शब्द उन त्तिभक्षुओं के चिलए प्रयुक्त होता था, जो सूत्रषिपटक के षिवर्शे.ज्ञ होते थे, जिजन्हें सूत्रषिपटक कण्ठस्थ था और जो उसके व्याख्यान में षिनपुण थे।

[संपादिदत करें] सौ1ाप्तिन्तक की परिरभा>ा जो षिनकाय सूत्रों का या सूत्रषिपटक का सबसे अधि�क प्रामाण्य स्वीकार करता है, उसे सौत्रान्तिन्तक कहते

हैं। अट्इसाचिलनी में सूत्र र्शबद के अनेक अथ� कहे गये हैं, यथा:

अत्थानं सू#नतो सुवु�तो सवनतो थ सूदनतो।सु�ाणा सु�सभागतो # सु�ं षित अक्खातं॥ -(अट्ठसाचिलनी, षिनदानकथावण्णना, पृ. 39)

सूत्र को ही 'सूत्रान्प्त' भी कहते हैं अथवा सूत्र के आ�ार पर प्रवर्तित2त चिसद्धान्त 'सूत्रान्त' कहलाते हैं। उनसे सम्बद्ध षिनकाय 'सौत्रान्तिन्तक' है। जिजन व#नों के द्वारा भगवान जगत का षिहत सम्पादिदत करते हैं, वे व#न 'सूत्र' हैं। अथवा जैसे मत्तिण, सुवण� आदिद के दानों को एक �ागे में षिपरोकर सुन्दर हार

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(आभू.ण) का षिनमा�ण षिकया जाता है, उसी तरह नाना अध्यार्शय एवं रुचि# वाले सत्त्वों के चिलए उपदिदC नाना बुद्धव#नों को षिनवा�ण के अथ� में जिजनके द्वारा आबन्धन षिकया जाता है, वे सूत्र हैं।

महायानी परम्परा के अनुसार बुद्ध का कोई एक भी व#न ऐसा नहीं है, जिजसमें ज्ञेय, माग� और फल संगृहीत न हो। इसचिलए बुद्धव#न ही 'सूत्र' है। अत: 'सूत्र' यह बुद्ध व#नों का सामान्य नाम है।

यर्शोधिमत्र ने अत्तिभ�म�कोर्शभाष्यटीका की टीका में सौत्रान्तिन्तक र्शब्द की व्युत्पत्ति� करते हुए चिलखा है : 'क: सौत्रान्तिन्तकाथ�:? ये सूत्रप्रामात्तिणका:, न तु र्शास्त्रप्रामात्तिणकास्ते सौत्रान्तिन्तका:*' अथा�त् सौत्रान्तिन्तक र्शब्द का क्या अथ� है? जो सूत्र को, न षिक र्शास्त्र को प्रमाण मानते हैं, वे सौत्रान्तिन्तक हैं। इन्हें ही दाCा�न्तिन्तक भी कहते हैं, क्योंषिक वे दृCान्त के माध्यम से बुद्ध व#नों का व्याख्यान करने में अत्यन्त षिनपुण होते हैं। इस षिनव�#न के द्वारा षित्रषिपटक के सम्बन्ध में सौत्रान्तिन्तकों की दृधिC का संकेत भी षिकया गया है।

[संपादिदत करें] वि1विपटकइस विव2.य में षिकसी का कोई षिववाद नहीं है षिक महाकाश्यप आदिद महास्थषिवरों ने बुद्ध व#नों का सकंलन करके उन्हें षित्रषिपटक का स्वरूप प्रदान षिकया। काल क्रम में आगे #लकर बुद्धव#नों के सम्बन्ध में परस्पर षिवरुद्ध षिवषिव� मत-मतान्तर और षिवषिव� साम्प्रदाधियक दृधिCयाँ प्रसु्फदिटक हुई। इस षिव.य में सौत्रान्तिन्तकों की षिवर्शे. दृधिC है। इनके मतानुसार स्थषिवरवादिदयों का अत्तिभ�म�षिपटक, जिजसमें �म्मसंगत्तिण, षिवभंग आदिद 7 ग्रन्थ संगृहीत हैं, वह (अत्तिभ�म�षिपटक) बुद्धव#न नहीं माना जा सकता। इनका कहना है षिक इन ग्रन्थों में असंस्कृत �म� की द्रव्यस�ा आदिद अनेक युचिक्तहीन चिसद्धान्त प्रषितपादिदत हैं। भगवान बुद्ध कभी भी युचिक्तहीन बातें नहीं बोलते, अत: इन्हें बुद्धव#न के रूप में स्वीकार करना असम्भव है। वस्तुत: ये (सातों) ग्रन्थ परवतD हैं और आत्तिभ�ार्मिम2कों की कृषित हैं। अत: ये र्शास्त्र हैं। उन्होंने इनके र#धियताओं के नामों का भी उल्लेख षिकया है, यथा-ज्ञानप्रस्थान के कता� आय�कात्यायनीपुत्र, प्रकरणपाद के वसुधिमत्र, षिवज्ञानकाय के देवर्शमा�, �म�स्कन्ध के र्शारीपुत्र, प्रज्ञन्तिप्तर्शास्त्र के मौद्गलयायन, �ातुकाय के पूण� तथा संगीषितपया�य के महाकौधिxल्ल कता� हैं। ये ग्रन्थ षिकसी प्रामात्तिणक पुरु. द्वारा रचि#त नहीं हैं और न प्रथम संगीषित में इनका संगायन ही हुआ है, अत: पृथग्जनों द्वारा षिवर#चि#त होने से हम सौत्रान्तिन्तक इन्हें बुद्धव#न नहीं मानते। इनका कहना है षिक बुद्ध द्वारा उपदिदC सूत्र ही हमारे मत में प्रमाण हैं, न षिक कोई अन्य र्शास्त्र।

[संपादिदत करें] विनष्क>� सौत्रान्तिन्तक षिनकाय का अस्मिस्तत्व तो तृतीय संगीषित के अवसर पर सम्राट अर्शोक के काल में षिवद्यमान

था, षिकन्तु दार्श�षिनक प्रस्थान के रूप में उसका षिवकास सम्भवत: ईसा पूव� प्रथम र्शतक में सम्पन्न हुआ। षिनकाय के साथ सौत्रान्तिन्तक र्शब्द का प्रयोग तो सम्भवत: तब प्रारम्भ हुआ, जब अन्य षिनकायों और

मान्यताओं के बी# षिवभाजन-रेखा अधि�क सुस्पC हुई। सात अत्तिभ�म� ग्रन्थों का संग्रह परवतD है, इसचिलए बुद्ध व#नों के रूप में सौत्रान्तिन्तकों ने उन्हें मान्यता

प्रदान नहीं की। सूत्रषिपटक और षिवनयषिपटक को प्रामात्तिणक बुद्धव#न मानकर सौत्रान्तिन्तकों ने अपने चिसद्धान्तों की अन्य

षिनकायों से अलग स्थापना की। तभी से सौत्रान्तिन्तक षिनकाय की परम्परा प्रारम्भ हुई। ऐसा लगता है षिक अन्य लोगों ने जब बुद्धव#नों का अत्तिभ�म�षिपटक के रूप में संग्रह षिकया और उन्हें बुद्धव#न के रूप में माना, तब प्रारम्भ में सौत्रान्तिन्तकों ने षिवरो� षिकया होगा, षिकन्तु अन्य षिनकाय वालों ने उनका षिवरो� मानने से इन्कार कर दिदया होगा, तब षिववर्श होकर उन्होंने पृथक् षिनकाय की स्थापना की। यह घटना षिद्वतीय बुद्धाब्द में घटनी #ाषिहए।

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महाराज अर्शोक के काल में सभी षिनकायों के षित्रषिपटक अस्मिस्तत्व में आ गये थे। इसीचिलए अर्शोक के समय कथावतु्थ नामक ग्रन्थ में अन्य मतों की समालो#ना सम्भव हो सकी। इसचिलए यह षिनत्ति�त होता है षिक अत्तिभ�म� का बुद्धव#न सम्बन्धी षिववाद एवं सौत्रान्तिन्तक षिनकाय का गठन उससे पूव�वतD है। यही षिववाद अन्ततोगत्वा अन्य षिनकायों से सौत्रान्तिन्तक षिनकाय के पृथक् होने के रूप में परिरणत हुआ। यही सौत्रान्तिन्तक षिनकाय के उद्गम का हेतु और काल है।

[संपादिदत करें] प्रमुख सौ1ाप्तिन्तक धिसद्धान्तसौत्रान्तिन्तकों की जो प्रमुख षिवरे्श.ताए ंहैं, जिजनकी वजह से वे अन्य बौद्ध, अबौद्ध दार्श�षिनकों से त्तिभन्न हो जाते हैं, अब हम उन षिवर्शे.ताओं की ओर संकेत करना #ाहते हैं। ज्ञात है षिक बौद्ध �म� में अनेक षिनकायों का षिवकास हुआ। यद्यषिप उनकी दार्श�षिनक मान्यताओं में भेद हैं, षिफर भी बुद्धव#नों के प्रषित गौरव बुजिद्ध सभी में समान रूप से पाई जाती है। सभी षिनकायों के पास अपने-अपने षित्रषिपटक थे। ऐषितहाचिसक क्रम में महायान का भी उदय हो गया। यह षिन:सजिन्दग्� है। षिक पुरु.ाथ�-चिसजिद्ध सभी भारतीय दर्श�नों का परम लक्ष्य है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर बौद्धों में यानों की व्यवस्था की गई है। उनके दर्श�नों का गठन भी यानव्यवस्था पर आ�ारिरत है। इसके आ�ारभूत तत्त्व तीन होते हैं, यथा-

1. आश्रय, वस्तु आलम्बन या पदाथ�, 2. आत्तिश्रत माग� (र्शील, समाधि�, प्रज्ञा), 3. प्रयोजन या लक्ष्यभूत फल।

[संपादिदत करें] आश्रय, वस्तु या पदाथ�मीमांसा के अवसर पर दो सत्यों अथा�त परमाथ� सत्य और संवृषित सत्य की ##ा� की जाती है।

परमाथ� सत्य

सौत्रान्तिन्तकों की दो �ाराओं में से आगम-अनुयायी सौत्रान्तिन्तकों के अनुसार यन्त्र आदिद उपकरणों के द्वारा षिवघटन कर देने पर अथवा बुजिद्ध द्वारा षिवशे्ल.ण करने पर जिजस षिव.य की पूव� बुजिद्ध नC नहीं होती, वह 'परमाथ� सत्य' है। यथा-नील, पीत, चि#�, परमाणु, षिनवा�ण आदिद का षिकतना ही षिवघटन या षिवशे्ल.ण षिकया जाए, षिफर भी नीलबुजिद्ध, परमाणुबुजिद्ध या षिनवा�णबुजिद्ध नC नहीं होती, अत: ऐसे पदाथ� उनके मत में परमाथ� सत्य माने जाते हैं। इस मत में #ारों आय�सत्यों के जो सोलह आकार होते हैं, वे परमाथ�त: सत माने जाते हैं। ज्ञात है षिक प्रत्येक सत्य के #ार आकार होते हैं। जैसे दु:खसत्य के अषिनत्यता, दु:खता, रू्शन्यता एवं अनात्मता ये #ार आकार है। समुदय सत्य के समुदय, हेतु, प्रत्यय और प्रभव ये #ार आकार, षिनरो� सत्य के षिनरो�, र्शान्त, प्रणीत एवं षिन:सरण ये #ार आकार तथा माग�सत्य के माग�, न्याय, प्रषितपत्ति� और षिनया�ण ये #ार आकार होते हैं। इस तरह कुल 16 आकार होते हैं।

युचिक्त-अनुयायी सौत्रान्तिन्तक मत के अनुसार जो परमाथ�त: अथ�षिक्रया-समथ� है और प्रत्यक्ष आदिद प्रामात्तिणक बुजिद्ध का षिव.य है, वह 'परमाथ� सत्य' है, जैसे- घट आदिद। इस मत के अनुसार योगी का समाषिहत ज्ञान संस्कार (हेतु-प्रत्यय से उत्पन्न) स्कन्धों का ही साक्षात् प्रत्यक्ष करता है तथा उनकी आत्मर्शून्यता और षिनवा�ण का ज्ञान तो उस प्रत्यक्ष के सामथ्य� से होता है।

संवृषितसत्य— इस मत में पाँ# स्कन्ध संवृषितसत्य हैं परमाथ�त: अथ�षिक्रयासमथ� न होना संवृषितसत्य का लक्षण है। संवृषितसत्य, सामान्यलक्षण, षिनत्य, असंस्कृत एवं अकृतक �म� पया�यवा#ी हैं। संवृषित का तात्पय� षिवकल्प ज्ञान

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से है। उसके प्रषितभास स्थल में जो सत्य है, वह संवृषितसत्य है। षिवकल्प के संवृषित इसचिलए कहते हैं, क्योंषिक वह वस्तु की यथाथ� स्थिस्थषित के ग्रहण में आवरण करता है। आगमानुयायी सौत्रान्तिन्तकों के अनुसार यन्त्र आदिद उपकरणों द्वारा षिवघटन करने पर या बुजिद्ध द्वारा षिवशे्ल.ण करने पर जिजन पदाथ� की पूव�बुजिद्ध नC हो जाती है, वे संवृषितसत्य हैं, यथा- घट, अम्बु आदिद।

इस दर्श�न में पाँ# प्रकार के प्रमेय माने जाते हैं, यथा- रूप, चि#�, #ैतचिसक, षिवप्रयुक्त संस्कार एवं असंस्कृत षिनवा�ण। ये स्कन्ध, आयतन और �ातुओं में यथायोग्य संगृहीत होते हैं।

[संपादिदत करें] आणिश्रत माग�जिजस माग� की भावना की जाती है, वह माग� वस्तुत: सम्यक ज्ञान ही है।

1. नैरात्म्य ज्ञान, 2. #ारों आय�सत्यों के सोलह आकारों का ज्ञान,

3. सैतीस बोधि�पक्षीय �म�, 4. #ार अप्रमाण,

5. नौ अनुपूव� समापत्ति�याँ- ये �म� यथायोग्य लौषिकक और अलौषिकक माग� में संगृहीत होत हैं।

[संपादिदत करें] फल स्रोत आपन्न, सकृदागामी, अनागामी और अह�त ये #ार आय� पुद्गल होते हैं। ये #ारों माग�स्थ और

फलस्थ दो प्रकार के होते हैं, अत: आय�पुद्गलों की संख्या आठ मानी जाती है। सोपधि�र्शे. षिनवा�ण प्राप्त और षिनरुपधि�रे्श. षिनवा�ण प्राप्त-इस तरह अह�त पुद्गल भी षिद्वषिव� होते हैं। प्रत्येक बुद्धत्व और सम्यक संबुद्धत्व भी फल माने जाते हैं। बुद्धत्वप्रान्तिप्त और अह�त्वप्रान्तिप्त के माग� में यद्यषिप ज्ञानगत कोई षिवर्शे.ता इस मत में नहीं मानी जाती,

षिकन्तु पारधिमताओं की पूर्तित2 का दीघ�कालीन अभ्यास अथा�त पुण्यसं#य बुद्धत्व प्रान्तिप्त के माग� की षिवरे्श.ता मानी जाती है।

[संपादिदत करें] फलस्थ पुद्गलजैसे श्रावकयान में #ार माग�स्थ और #ार फलस्थ आठ आय�पुद्गल माने जाते हैं, वैसे ही इस मत के अनुसार प्रत्येक बुद्धयान में भी आय� पुद्गलों की व्यवस्था की जाती है। षिकन्तु खङृगोपम प्रत्येक बुद्ध षिन�य ही अह�त से त्तिभन्न होता है। वह बुद्ध आदिद के उपदेर्शों की षिबना अपेक्षा षिकये आन्तरिरक स्वत: सू्फत� ज्ञान द्वारा षिनवा�ण का अधि�गम करता है। उसका षिनरुपधि�र्शे. षिनवा�ण बुद्ध से रू्शन्य देर्श और काल में होता है। माग�स्थ और फलस्थ आय� पुद्गलों के पारमार्शिथ2क संघ में बीस प्रकार के पुद्गल होते हैं। इनका षिवस्तृत षिववे#ना अत्तिभसमयालङ्कार और अत्तिभ�म�कोर्श आदिद ग्रन्थों में उपलब्ध है।

[संपादिदत करें] सौ1ाप्तिन्तक दर्श�न की दस विवर्शे>ताएं

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क्षणभङ्ग धिसणिद्धबौद्ध लोग, जो प्रत्येक वस्तु के उत्पाद, स्थिस्थषित और भङ्य ये तीन लक्षण मानते हैं, उनको लेकर बौदे्धतर दार्श�षिनकों के साथ उनके बहुत व्यापक, गम्भीर और दीघ�कालीन षिववाद हैं। सौत्रान्तिन्तकों के अनुसार उत्पाद के अनन्तर षिवनC होनेवाली वस्तु ही क्षण है। उनके अनुसार उत्पाद मात्र ही वस्तु होती है। वस्तु की तै्रकाचिलक स�ा नहीं होती। कारण-सामग्री के जुट जाने पर काय� का षिनष्पन्न होना ही उत्पाद है। उत्पन्न की भी स्थिस्थषित नहीं होती, अषिपतु उत्पाद के अनन्तर वस्तु नहीं रहती, यही उसकी भङ्गावस्था है।

सू1प्रामाण्यसौत्रान्तिन्तकों के मतानुसार ज्ञानप्रस्थान आदिद सात अत्तिभ�म�र्शास्त्र बुद्ध व#न नहीं हैं, अषिपतु वे आ#ाय� की कृषित हैं। वसुधिमत्र आदिद आ#ाय� उन ग्रन्थों के प्रणेता हैं, अत: वे र्शास्त्र हैं, न षिक बुद्धव#न या आगम। ऐसा मानने पर भी अथा�त सूत्रषिपटक मात्र को प्रमाण मानने परी इनके मत में अत्तिभ�म� का आभाव या षित्रषिपटक का अभाव नहीं हैं। जिजन सूत्रों में वस्तु के स्वलक्षण और सामान्य लक्षण आदिद की षिववे#ना की गई है, वे सूत्र ही अत्तिभ�म� हैं, जैसे अथ�षिवषिन�यसूत्र आदिद। बुद्धव#न 84,000 �म�स्कन्ध, 12 अंग एवं तीन षिपटकों में संगृहीत होते हैं। परवतD सौत्रान्तिन्तक सूत्रों का नेयाथ� और नीताथ� में षिवभाजन भी करते हैं।

परमाणुवादसौत्रान्तिन्तक मत में परमाणु षिनरवयव एवं द्रव्यसत् माने जाते हैं। ये परमाणु ही स्थूल रूपों के आरम्भक होते हैं। जब परमाणुओं से स्थूल रूपों का आरम्भ होता है, तब एक संस्थान में षिवद्यमान होते हुए भी इनमें परस्पर स्पर्श� नहीं होता। सौत्रान्तिन्तक मत में ऐसा कोई रूप नहीं होता, जो अषिनदर्श�न और अप्रषितघ होता हो, जैसा षिक अषिवज्ञन्तिप्त नामक रूप की स�ा वैभाषि.क मानते हैं। इनके अनुसार अषिवज्ञन्तिप्तरूप की स्वलक्षणस�ा नहीं है, उसकी मात्र प्रज्ञन्तिप्तस�ा है।

द्रव्यसत्त्व-प्रज्ञप्तिQतसत्त्वसौत्रान्तिन्तकों के अनुसार वे ही पदाथ� द्रव्यसत माने जाते हैं, जो अपने स्वरूप को स्वयं अत्तिभव्यक्त करते हैं तथा जिजनमें अध्यारोषिपत स्वरूप का लेर्शमात्र भी नहीं होता। उदाहरणस्वरूप रूप्, वेदना आदिद �म� वैसे ही हैं। जब रूप आदिद �म� अपने स्वरूप का या अपने आकार का अपने ग्राहक ज्ञानों में, ज्ञानेदिद्रयों अथवा आय� ज्ञानों में आ�ान (अप�ण) करते हैं, तब वे षिकसी की अपेक्षा नहीं करते, अषिपतु स्वत: अपने बल से करते हैं। अषिप #, #कु्षरादिद प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा योषिगज्ञान जब रूप आदिद का साक्षात्कार करते हैं, तब वे भी उसमें षिकसी कस्थिल्पत आकार का आरोपण नहीं करते। इसचिलए रूप, वेदना आदिद इनके मत में द्रव्यसत या परमाथ�सत माने जाते हैं। पुद्गल आदिद �म� वैसे नहीं हैं। वे अपने स्वरूप का स्वत: ज्ञान में आ�ान नहीं करते। न तो ज्ञान में पुद्गल आदिद का आभास होता है। जब यथाथ� की परीक्षा की जाती है, तब उनका स्वरूप षिवदीण� होने लगता है। केवल उनके अधि�xान नाम-रूप आदिद �म� ही उपलब्ध होते हैं। पुद्गल कहीं उपलब्ध नहीं होता। अत: ऐसे �म� प्रज्ञन्तिप्तसत माने जाते हैं।

ज्ञान की साकारतावैभाषि.क आदिद दर्श�न के अनुसार रूप आदिद षिव.यों का ग्रहण #कु्ष आदिद इजिन्द्रयों के द्वारा होता है, ज्ञान द्वारा नहीं। इजिन्द्रयों के द्वारा गृहीत नील, पीत आदिद षिव.यों का #कु्षर्तिव2ज्ञान आदिद इजिन्द्रय-षिवज्ञान अनुभव करते हैं अथा�त इजिन्द्रयों में प्रषितषिबन्धिम्बत आकार ही इजिन्द्रयषिवज्ञानों का षिव.य हुआ करता है, अन्यथा षिवज्ञान षिबना आकार के ही होता है। सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के अनुसार नील, पीत आदिद षिव.य अपना आकार स्वग्राहक ज्ञान में अर्तिप2त करते हैं, फलत: षिवज्ञान षिव.यों के आकार से आकरिरत हो जाते हैं। ज्ञानगत आकार के द्वारा ही षिव.य अपने को प्रकाचिर्शत करते हैं। यदिद ऐसा नहीं माना जाएगा तो षिवज्ञान की षिबना अपेक्षा षिकये ही षिव.य का प्रकार्श होने लगेगा। अत: जहाँ षिव.य का अवभास होता है, वह ज्ञान ही है। फलत: ज्ञान में प्रषितभाचिसत नील, पीत आदिद षिव.यों की बाह्यस�ा चिसद्ध होती है।

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साकार ज्ञानों के भेदज्ञानगत आकार के बारे में तीन प्रकार के मत पाये जाते हैं, यथा- ग्राह्य-ग्रहक समसंख्या वाद, नाना अदै्वत वाद तथा नाना अनुपूव�ग्रहण वाद, इसे अ�ा�ण्डाकार वाद भी कहते हैं।

ग्राह्य-ग्राहक समसंख्या वाद— नील, पीत आदिद अनेक वण� से युक्त चि#त्र का दर्श�न करते समय चि#त्र में जिजतने वण� होते हैं, उतनी ही संख्या में वण� प्रषितषिबन्धिम्बत षिवज्ञान भी होते हैं। जैसे चि#त्र के वण� परस्पर त्तिभन्न और पृथक्-पृथक् अवस्थिस्थत होते हैं, वैसे ही वे षिवज्ञान भी होते हैं, अन्यथा षिव.य और ज्ञान का षिनत्ति�त षिनयम नहीं बन सकेगा। इस वाद के अनुसार चि#त्र में जिजतने वण� होते हैं, उतने ही षिवज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं।

नाना अदै्वत वाद— यद्यषिप नाना वण� वाले चि#त्रपट को आलम्बन बनाकर अनेक आकारों से युक्त षिवज्ञान उत्पन्न होता है, तथाषिप वह #क्षुर्तिव2ज्ञान एक ही होता है। एक षिवज्ञान का अनेक आकारों से युक्त होना न तो असम्भव है और न षिवरुद्ध ही। क्योंषिक अनेक वण� का आभास ज्ञान में एकसाथ ही होता है। ज्ञान के अन्दर षिवद्यमान वे अनेक आकार एक ज्ञान के ही अंर्श होते हैं, न षिक पृथक। इस मत के अनुसार वह चि#त्र भी अनेक वण�माला होने पर भी द्रव्यत: एक और अत्तिभन्न ही होता है। उसमें स्थिस्थत सभी वण� उस चि#त्र के अंर्श ही होते हैं।

नाना अनुपूव�ग्रहण वाद— जिजस प्रकार एक चि#त्र में नील, पीत आदिद अनेक वण� अलग-अलग स्थिस्थत होते हैं, वैसे ज्ञान में भी अनेकता होना आवश्यक नहीं है। उस चि#त्र को ग्रहण करने वाला #कु्षर्तिव2ज्ञान एक होते हुए भी उन सभी वण� का साक्षात्कार करता है। इस मत के अनुसार अनेक वण� के ज्ञान के चिलए ज्ञान का अनेक होना आवश्यक नहीं है। यह षिव.य बड़ा गम्भीर है। घट, पट आदिद अनेक वस्तुओं को एक साथ देखने वाला #कु्षर्तिव2ज्ञान क्या एक होता है या अनेक। षिफर केवल एक षिव.य को देखनेवाला #क्षुर्तिव2ज्ञान तो सम्भव ही नहीं है। क्योंषिक प्रत्येक षिव.य के अपने अवयव होते हैं। #कु्षर्तिव2ज्ञान जब एक षिव.य को देखता है तो उसके अवयवों को भी देखता है। तब क्या उन अवयवों के अनुरूप अनेक #कु्षर्तिव2ज्ञान होते हैं अथवा एक ही #कु्षर्तिव2ज्ञान होता है? इस षिव.य में षिवद्वानों के अनेक मत हैं।

काय� और कारण की णिभन्नकाधिलकताकारण हमेर्शा काय� से पूव�वतD होता है, इस पर सौत्रान्तिन्तकों का बड़ा आग्रह है। काय� सव�दा कारण के होने पर होता है (अन्वय) और न होने पर नहीं होता है (व्यषितरेक)। यदिद काय� और कारण दोनों समान काल में होंगे तो कारण में काय� को उत्पन्न करने के स्वभाव की हाषिन का दो. होगा, क्योंषिक कारण के काल में काय� षिवद्यमान ही है। इस स्थिस्थषित में कारण की षिनरथ�कता का भी प्रसंग (दो.) होगा। इसचिलए वैभाषि.कों को छोड़कर सौत्रान्तिन्तक आदिद सभी बौद्ध दार्श�षिनक परम्पराए ंकारण को काय� से पूव�वतD ही मानती हैं। वैभाषि.क कारण को काय� का समकाचिलक तो मानते ही हैं, कभी-कभी तो काय� से प�ात्काचिलक कारण भी मानते हैं। स्थषिवरवादी भी सहभू हेतु, प�ाज्जात हेतु आदिद मानते हैं।

प्रहाण और प्रवितपधि�वैभाषि.क आदिद जैसे अह�त के द्वारा प्राप्त क्लेर्शप्रहाण और प्राप्त आय�ज्ञान की हाषिन (पतन) मानते है, वैसे सौत्रान्तिन्तक नहीं मानते। सौत्रान्तिन्तकों का कहना है षिक क्लेर्शप्रहाण और आय�ज्ञान का अधि�गम चि#� के �म� हैं और चि#� के दृढ़ होने से उनके भी दृढ़ होने के कारण उनकी हाषिन की सम्भावना नहीं है। इस षिव.य का षिवस्तृत षिववरण प्रमाणवार्तित2क* style=color:blue>*</balloon> और उसके अलंकारभाष्य में अवलोकनीय है।

ध्यानाङ्गों की विवर्शे>तानौ समापत्ति�याँ (4 रूपी, 4 अरूपी और षिनरो�समापत्ति�) होती हैं। इसमें सौत्रान्तिन्तकों और वैभाषि.कों में

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मतभेद नहीं है। षिकन्तु षिनरो�समापत्ति� के बारे में सौत्रान्तिन्तकों की कुछ षिवर्शे.ता है। वैभाषि.कों के अनुसार षिनरो�समापत्ति� अवस्था में चि#� और #ैतचिसकों का सव�था षिनरो� हो जाता है, यहाँ तक षिक उनकी वासनाए ंभी अवचिर्शC नहीं रहतीं। क्योंषिक वासनाओं की आ�ार चि#�सन्तषित का सव�था षिनरो� हो #ुका है। हाँ, उनकी प्रान्तिप्त आदिद षिवप्रयुक्त संस्कार अवचिर्शC रह सकती हैं।

प्रमाण आदिद सम्यग्ज्ञानषिवज्ञान की साकारता के आ�ार पर सौत्रान्तिन्तक प्रमाणों की व्यवस्था करते हैं। षिवज्ञान की साकारता का प्रषितपादन पहले षिकया जा #ुका है। प्रमाणों में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की स्थापना सौत्रान्तिन्तकों की षिवर्शे.ता है। सौत्रान्तिन्तकों की ज्ञानमीमांसा में ज्ञान और उनके भेदों की ##ा� है।

बुद्ध, बोधि�सत्त्व और बुद्धकायपारधिमताओं की सा�ना के आ�ार पर बोधि�सत्त्वों की #या� का वण�न सूत्रषिपटक में प्राय: जातकों में उपलब्ध होता हैं। बुद्धत्व ही बोधि�सत्त्वों का अन्तिन्तम पुरु.ाथ� है क्योंषिक उसके द्वारा ही वे बहुजन का षिहत सम्पादन करने में पूण� समथ� होते हैं। इसके चिलए वे तीन असंख्येय कल्प पय�न्त ज्ञानसम्भार का अज�न करते हैं। जम्बूद्वीप का आय� बोधि�सत्त्व बुद्धत्व के सव�था योग्य होता है। काम�ातु के अन्य द्वीपों में तथा अन्य �ातु और योषिनयों में उत्पन्न काय से बुद्धत्व की प्रान्तिप्त सम्भव नहीं है।

[संपादिदत करें] कायमहायान से अषितरिरक्त अन्य बौद्ध षिनकायों की इस षिव.य में प्राय: समान मान्यता है षिक भगवान बुद्ध के दो काय होते हैं, यथा- रूपकाय और �म�काय। वैभाषि.कों की यह मान्यता है षिक *भगवान बुद्ध का रूपकाय, जो ब�ीस लक्षणों और अस्सी अनुव्यजंनों से प्रषितमस्थिण्डत है, वह सास्रव होता है तथा माता-षिपता के र्शुक्र-र्शोत्तिणत से उत्पन्न 'करज काय' होता है।

सौत्रान्तिन्तक में कुछ आगमानुयायी भी प्राय: इसी मत के हैं। स्थषिवरवादी भी ऐसा ही मानते हैं। युचिक्त-अनुयायी सौत्रान्तिन्तक रूपकाय को 'बुद्ध' ही मानते है, क्योंषिक वह अनेक कल्पों तक सम्भारों का

सम्भरण करने से पुण्यपंुजात्मक होता है। �म�काय के स्वरूप के बारे में वैभाषि.कों और सौत्रान्तिन्तकों में षिवर्शे. मतभेद नहीं है, षिकन्तु �म�काय से

सम्बद्ध जो षिनवा�ण तत्त्व है, उसे वैभाषि.क द्रव्यसत मानते हैं। सौत्रान्तिन्तकों के अनुसार षिनवा�ण का अभावस्वरूप होना, उसकी �म�ता है और यही सव� प्रपं#ों का

उपर्शम है।

[संपादिदत करें] ज्ञानमीमांसा सौत्रान्तिन्तकों की ज्ञानमीमांसा के षिवकास में आ#ाय� दिदङ्नाग का योगदान षिवद्वानों से षितरोषिहत नहीं है। यद्यषिप उनसे पहले भी न्यायषिवद्या से सम्बद्ध प्रमाणषिवद्या का अस्मिस्तत्व था, षिकन्तु वह इतना धिमला-

स्पC षिवभाजन देख सकते हैं। बौदे्धतर र्शास्त्रों में आगम, र्शब्द, ऐषितह्य आदिद ज्ञान से त्तिभन्न जुला था षिक उसमें वैदिदक, अवैदिदक, आदिद

भेद करना सम्भव नहीं था।

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दिदङ्नाग के बाद हम उनमें सा�न भी प्रमाण माने जाते हैं षिकन्तु आ#ाय� दिदङ्नाग में सम्यग ज्ञान को ही सव�प्रथम प्रमाण षिन�ा�रिरत षिकया।

सौ1ाप्तिन्तक आ$ाय� और कृवितयाँअनुक्रम[छुपा]

1 सौत्रान्तिन्तक आ#ाय� और कृषितयाँ 2 आ#ाय� परम्परा 3 अन्य प्रा#ीन आ#ाय� 4 परवतD परम्परा 5 आ#ाय� र्शुभगुप्त

6 सम्बंधि�त सिल2क

सभी बौद्ध दार्श�षिनक प्रस्थान बुद्ध व#नों को ही अपने-अपने प्रस्थान के आरम्भ का मूल मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं षिक षिवश्व के चि#न्तन के्षत्र में बुद्ध के षिव#ारों का अपूव� और मौचिलक योगदान है। बुद्ध की परम्परा के पो.क, उन-उन दर्श�न-सम्प्रदायों के प्रवत�क आ#ाय� और परवतD उनके अनुयाधिययों का महत्व भी षिवद्वानों से चिछपा नहीं है। सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के प्रवत�क और प्रमुख आ#ाय� का परिर#य इस प्रकार हैं- बुद्ध ने अपने अनुयाधिययों को जो षिव#ारों की स्वतन्त्रता प्रदान की, स्वानुभव की प्रामात्तिणकता पर बल दिदया और षिकसी भी र्शास्त्र, र्शास्त्रों के व#नों को षिबना परीक्षा षिकये ग्रहण न करने का जो उपदेर्श दिदया, उसकी वजह से उनका र्शासन उनके षिनवा�ण के कुछ ही व.� के भीतर अनेक �ाराओं में षिवकचिसत हो गया। अनेक प्रकार की हीनयानी और महायानी संगीषितयों का आयोजन इसका प्रमाण है। दो सौ व.� के भीतर 18 षिनकाय षिवकचिसत हो गये। इस क्रम में यद्यषिप सूत्रवादिदयों का मत प्रभावर्शाली और व्यापक रहा है, षिफर भी जब उन्होंने देखा षिक दूसरे नैकाधियकों के मत बुद्ध के द्वारा साक्षात उपदेर्शों से दूर होते जा रहे हैं तो उन्होंने र्शास्त्र प्रामाण्य का षिनराकरण करते हुए बुद्ध के द्वारा साक्षात उपदिदC सूत्रों के आ�ार पर स्वतन्त्र षिनकाय के रूप में अपने मत की स्थापना की। इस प्रकार उन्होंने सूत्रों में अनेक प्रकार के प्रके्षपों से बुद्धव#नों की रक्षा की और लोगों का ध्यान मूल बुद्ध व#नों की ओर आकृC षिकया। प्रथम और तृतीय संगीषितयों के मध्यवतD काल में रचि#त '�म्मसंगत्तिण', 'कथावस्थु', 'ज्ञानप्रस्थान' आदिद ग्रन्थों की बुद्ध व#न के रूप में प्रामात्तिणकता का उन्होंने जम कर खण्डन षिकया। उन्होंने कहा षिक ये ग्रन्थ आ#ाय� द्वारा रचि#त र्शास्त्र हैं, न षिक बुद्ध व#न। जबषिक सवा�स्मिस्तवादी और स्थषिवरवादी उन्हें बुद्धव#न मानने के पक्ष में थे।

[संपादिदत करें] आ$ाय� परम्परा सामान्य रूप से आ#ाय� कुमारलात सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के प्रवत�क माने जाते हैं। षितब्बती और #ीनी

स्त्रोतों से भी इसकी पुधिC होती है। षिकन्तु सूक्ष्म दृधिC से षिव#ार करने पर प्रतीत होता है षिक कुमारलात से पहले भी अनेक सौत्रान्तिन्तक आ#ाय� हुए हैं। यह ज्ञात ही है षिक सौत्रान्तिन्तक मत अर्शोक के काल में पूण�रूप से षिवद्यमान था। वसुधिमत्र आदिद आ#ाय� ने यद्यषिप सौत्रान्तिन्तक, �मo�रीय, संक्रान्तिन्तवाद आदिद का उद्गवकाल बुद्ध की तीसरी-#ौथी र्शताब्दी माना था, षिकन्तु गणना पद्धषित कैसी थी, यह सो#ने की बात है। पाचिल परम्परा और सवा�स्मिस्तवादिदयों के क्षुद्रक वग� से ज्ञात होता है षिक �मा�र्शोक के समय सभी 18 षिनकाय षिवद्यमान थे। उन्होंने तृतीय संगीषित मं प्रषिवC अन्य मतावलन्धिम्बयों का षिनष्कासन सबसे

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पहले षिकया, उसके बाद संगीषित आरम्भ हुई। महान अर्शोक सभी 18 बौद्ध षिनकायों के प्रषित समान श्रद्धा रखता था और उनका दान-दत्तिक्षणा आदिद से सत्कार करता था। इस षिववरण से यह चिसद्ध होता है षिक अर्शोक के समय सौत्रान्तिन्तक मत सुपुC था और आ#ाय� कुमारलात षिन�य ही अर्शोक से परवतD हैं, इसचिलए अनेक आ#ाय� षिन�य ही कुमारलात से पहले हुए होंगे, अत: कुमारलात को ही सव�प्रथम प्रवत�क आ#ाय� मानना सन्हेह से परे नहीं है। इसमें कहीं कुछ षिवसंगषित प्रतीत होती है।

सौत्रान्तिन्तकों में दो परम्पराए ंमानी जाती हैं –

1. आगमानुयायी और 2. युचिक्त-अनुयायी।

आगमानुयाधिययों की भी दो र्शाखाओं का उल्लेख आ#ाय� भव्य के प्रज्ञाप्रदीप के भाष्यकार आवलोषिकतेश्वर ने अपने ग्रन्थों में षिकया है, यथा-क्षणभङ्गवादी और द्रव्यस्थिस्थरवादी। षिकन्तु इस द्रव्यस्थिस्थरवाद के नाममात्र को छोड़कर उनके चिसद्धान्त आदिद का उल्लेख वहाँ नहीं है। इस र्शाखा के आ#ाय� का भी कहीं उल्लेख नहीं धिमलता। संक्रान्तिन्तवादी षिनकाय का काल ही इसका उद्गव काल है।

ऐसा संकेत धिमलता है षिक बुद्ध के परिरषिनवा�ण के बाद तीन #ार सौ व.� तक षिनकाय के साथ आ#ाय� के नामों के संयोजन की प्रथा प्र#चिलत नहीं थी। संघनायक ही प्रमुख आ#ाय� हुआ करता था। संघ र्शासन ही प्र#चिलत था। आज भी स्थषिवरवादी और सवा�स्मिस्तवादी परम्परा में संघ प्रमुख की प्र�ानता दिदखलाई पड़ती है। ऐसा ही अन्य षिनकायों में भी रहा होगा। सौत्रान्तिन्तकों में भी यही परम्परा रही होगी, ऐसा अनुमान षिकया जा सकता है।

सौत्रान्तिन्तक प्राय: सवा�स्मिस्तवादी मण्डल में परिरगत्तिणत होते हैं, क्योंषिक वे उन्हीं से षिनकले हैं। सवा�स्मिस्तवादिदयों के आ#ाय� की परम्परा र्शास्त्रों में उपलब्ध होती है। और भी अनेक आ#ाय� सूचि#याँ उपलब्ध होती हैं। उनमें मतभेद और षिवसंगषितयाँ भी हैं, षिकन्तु इतना षिनत्ति�त है षिक बुद्ध से लेकर अश्वघो. या नागाजु�न तक के आ#ाय� पूरे बौद्ध र्शासन के प्रषित षिनxावान हुआ करते थे।

भदन्त आ#ाय� श्रीलात कुमारलात

[संपादिदत करें] अन्य प्रा$ीन आ$ाय�षिकसी जीषिवत षिनकाय का यही लक्षण है षिक उसकी अषिवस्थिच्छन्न आ#ाय� परम्परा षिवद्यमान रहे। यदिद वह बी# में टूट जाती है तो वह षिनकाय समाप्त हो जाता है। यही स्थिस्थषित प्राय: सौत्रान्तिन्तक षिनकाय की है। भदन्त, कुमारलात के अनन्तर उस षिनकाय में कौन आ#ाय� हुए, यह अत्यन्त स्पC नहीं है। यद्यषिप चिछटपुट रूप में कुछ आ#ाय� के नाम ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, यथा-भदन्त रत (लात), राम, वसुवमा� आदिद, षिकन्तु इतने मात्र से कोई अषिवस्थिच्छन्न परम्परा चिसद्ध नहीं होती और न तो उनके काल और कृषितयों के बारे में ही कोई स्पC संकेत उपलब्ध होते हैं। ये सभी सौत्रान्तिन्तक षिनकाय के प्रा#ीन आ#ाय� 'आगमानुयायी सौत्रान्तिन्तक' थ,े वह षिन�यपूव�क कहा जा सकता है, क्योंषिक नागाजु�न कालीन ग्रन्थों में इनके नाम की ##ा� नहीं है। यद्यषिप अत्तिभ�म�कोर्श आदिद वैभाषि.क या सवा�स्मिस्तवादी ग्रन्थों में इनके नाम यत्र तत्र यदा कदा दिदखलाई पड़ते हैं। वसुबन्धु के बाद यर्शोधिमत्र भी आगमानुयायी सौत्रान्तिन्तक परम्परा के आ#ाय� माने जाते हैं। उन्होंने अपनी सु्फटाथा� टीका में अपनी सैत्रान्तिन्तकषिप्रयता प्रकट की है, यह अन्त:साक्ष्य के आ�ार पर षिवज्ञ षिवद्वानों द्वारा स्वीकार षिकया जाता है।

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वसुबनु्ध

[संपादिदत करें] परवतe परम्पराआ#ाय� वसुबनु्ध के बाद सभी अठारह बौद्ध षिनकायों में तत्त्वमीमांसा की प्रणाली में कुछ नया परिरवत�न दिदखाई देता है। तत्त्वचि#न्तन के षिव.य में यद्यषिप इसके पहले भी तक� प्र�ान षिव#ारपद्धषित सौत्रान्तिन्तकों द्वारा आरम्भ की गई थी और आ#ाय� नागाजु�न ने इसी तक� पद्धषित का आश्रय लेकर महायान दर्श�न प्रस्थान को प्रषितधिxत षिकया था, स्वयं आ#ाय� वसुबनु्ध भी प्रमाणमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और वादषिवधि� के प्रकाण्ड पस्थिण्डत थे, षिफर भी वसुबनु्ध के बाद ज्ञानमीमांसा के के्षत्र में कुछ इस प्रकार का षिवकास दृधिCगो#र होता है, जिजससे सौत्रान्तिन्तकों की वह प्रा#ीन प्रणाली अपने स्थान से विक2चि#त परिरवर्तित2त सी दिदखाई देती है। उनके चिसद्धान्तों और पूव� मान्यताओं में भी परिरवत�न दिदखलाई पड़ता है। अपनी तक� षिप्रयता, षिवकासोन्मुख प्रकृषित एवं मुक्तचि#न्तन की पक्षपाषितनी दृधिC के कारण वे अन्य दर्श�नों की समकक्षता मे आ गये। ज्ञात है षिक प्रा#ीन सौत्रान्तिन्तक 'आगमानुयायी' कहलाते थे। उनका साम्प्रदाधियक परिरवेर्श अब बदलने लगा। यह परिरवत�न सौत्रान्तिन्तकों में षिव#ारों की दृधिC से संक्रमण काल कहा जा सकता है। इसी काल में आ#ाय� दिदङ्नाग का प्रादुभा�व होता है। उन्होंने प्रमाणमीमांसा के आ�ार पर सौत्रान्तिन्तक दर्श�न की पुन: परीक्षा की और उसे नए तरीके़ से प्रषितxाषिपत षिकया। दिदङ्नाग के बाद सौत्रान्तिन्तकों को प्रा#ीन आगमानुयायी परम्परा प्राय: नामर्शे. हो गई। उस परम्परा में कोई प्रषितभासम्पन्न आ#ाय� उत्पन्न होते दिदखलाई नहीं देता।

आ#ाय� दिदङ्नाग आ#ाय� र्शुभगुप्त

[संपादिदत करें] आ$ाय� र्शुभगुQतइषितहास में इनके नाम की बहुत कम ##ा� हुई। 'कल्याणरत्तिक्षत' नाम भी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वस्तुत: भोट भा.ा में इनके नाम का अनुवाद 'दगे-सुङ्' हुआ है। 'रु्शभ' र्शब्द का अथ� 'कल्याण' तथा 'गुप्त' र्शब्द का अथ� 'रत्तिक्षत' भी होता है। अत: नाम के ये दो पया�य उपलब्ध होते हैं। र्शान्तरत्तिक्षत के तत्त्वसंग्रह की 'पंजिजका' टीका में कमलर्शील ने 'रु्शभगुप्त' इस नाम का अनेक�ा व्यवहार षिकया है। अत: यही नाम प्रामात्तिणक प्रतीत होता है, षिफर भी इस षिव.य में षिवद्वान ही प्रमाण हैं। रु्शभगुप्त कहाँ उत्पन्न हुए थे, इसकी प्रामात्तिणक सू#ना नहीं है, षिफर भी इनका कश्मीर-षिनवासी होना अधि�क संभाषिवत है। भोटदेर्शीय परम्परा इस सम्भावना की पुधिC करती है। �मo�र इनके साक्षात चिर्शष्य थे, अत: तक्षचिर्शला इनकी षिवद्याभूधिम रही है। आ#ाय� �मo�र की कम�भूधिम कश्मीर-प्रदेर्श थी, ऐसा डॉ॰ षिवद्याभू.ण का मत है।

समय

इनके काल के बारे में भी षिवद्वानों मे षिववाद है, षिफर भी इतना षिनत्ति�त है षिक आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत और आ#ाय� �मo�र से ये पूव�वतD थे। आ#ाय� �मा�करद� और र्शुभगुप्त दोनों �मo�र के गुरु थे। भोटदेर्श के सभी इषितहासज्ञ इस षिव.य में एकमत हैं। परवतD भारतीय षिवद्वान भी इस मत का समथ�न करते हैं। आ#ाय� र्शुभगुप्त र्शान्तरत्तिक्षत से पूव�वतD थे, इस षिव.य में र्शान्तरत्तिक्षत का ग्रन्थ 'मध्यमकालंकार' ही प्रमाण है। सौत्रान्तिन्तक मतों का खण्डन करते समय ग्रन्थकार ने र्शुभगुप्त की कारिरका का उद्धरण दिदया है।

पस्थिण्डत सुखलाल संघवी का कथन है षिक आ#ाय� �मा�करद� 725 ईस्वीय व.� से पूव�वतD थे। जैन दार्श�षिनक आ#ाय� अकलङ्क ने �मo�र के मत की समीक्षा की है।

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पस्थिण्डत महेन्द्रमार के मतानुसार अकलङ्क का समय ईस्वीय व.� 720-780 है। इसके अनुसार �मo�र का समय सातवीं र्शताब्दी का उ�रा�� षिनत्ति�त होता है। �मo�र र्शुभगुप्त के चिर्शष्य थे, अत: उनके गुरु र्शुभगुप्त का काल ईस्वीय सप्तम र्शतक षिन�ा�रिरत करने में कोई बा�ा नहीं दिदखती।

डॉ॰ एस.एन. गुप्त �मo�र का समय 847 ईस्वीय व.� षिन�ा�रिरत करते हैं तथा डॉ॰ षिवद्याभू.ण उनके गुरु र्शुभगुप्त का काल ईस्वीय 829 व.� स्वीकार करते हैं। डॉ॰ षिवद्याभू.ण के काल षिन�ा�रण का आ�ार महाराज �म�पाल का समय है। षिकन्तु ये कौन �म�पाल थे, इसका षिन�य नहीं है। दूसरी ओर आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत जिजस र्शुभगुप्त की कारिरका उद्धतृ करके उसका खण्डन करते हैं, उनका भोटदेर्श में 790 ईस्वीय व.� में षिन�न हुआ था। 792 ईस्वीय व.� में भोटदेर्श में र्शान्तरत्तिक्षत के चिर्शष्य आ#ाय� कमलर्शील का 'सम्या चिछम्बु' नामक महाषिवहार में #ीन देर्श के प्रचिसद्ध षिवद्वान 'ह्रं्शग' के साथ माध्यधिमक दर्श�न पर र्शास्त्राथ� हुआ था। इस र्शास्त्राथ� में ह्रर्शंग' की पराजय हुई थी, इसका उल्लेख #ीन और जापान के प्राय: सभी इषितहासवेता करते है। इन षिववरणों से आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत का काल सुषिनत्ति�त होता है। फलत: डॉ॰ षिवद्याभू.ण का मत उचि#त एवं तक� संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंषिक जिजनके चिसद्धान्तों का खण्डन र्शान्तरत्तिक्षत ने षिकया हो और जिजनका षिन�न 790 ईस्वीय व.� में हो गया हो, उनसे पूव�वतD आ#ाय� र्शुभगुप्त का काल 829 ईस्वीय व.� कैसे हो सकता है?

महापस्थिण्डत राहुल सांकृत्यायन आ#ाय� �म�कीर्तित2 का काल 600 ईस्वीय व.� षिनत्ति�त करते हैं। उनकी चिर्शष्य-परम्परा का वण�न उन्होंने इस प्रकार षिकया है, यथा-देवेन्द्रबुजिद्ध, र्शाक्यबुजिद्ध, प्रज्ञाकर गुप्त तथा �मo�र। आ#ाय� देवेन्द्रबुजिद्ध का काल उनके मतानुसार 650 ईस्वीय व.� है। गुरु-चिर्शष्य के काल में 25 व.� का अन्तर सभी इषितहासवे�ाओं द्वारा मान्य है। षिकन्तु यह षिनयम सभी के बारे में लागू नहीं होता। ऐसा सुना जाता है षिक देवेन्द्रबुजिद्ध आ#ाय� �म�कीर्तित2 से भी उम्र में बडे़ थे। और उन्होंने आ#ाय� दिदङ्नाग से भी न्याय र्शास्त्र का अध्ययन षिकया था। �मo�र के दोनों गुरु �मा�करद� और र्शुभगुप्त प्रज्ञाकरगुप्त के समसामधियक थे। ऐसी स्थिस्थषित में रु्शभगुप्त का समय ईसवीय सप्तम र्शताब्दी षिनत्ति�त षिकया जा सकता है। महापस्थिण्डत राहुत सांकृत्यायन की भी इस षितचिथ में षिवमषित नहीं है।

कृवितयाँ

भदन्त र्शुभगुप्त युचिक्त-अनुयायी सौत्रान्तिन्तकों के अन्तिन्तम और लब्धप्रषितx आ#ाय� थे। उनके बाद ऐसा कोई आ#ाय� ज्ञात नहीं है, जिजसने सौत्रान्तिन्तक दर्श�न पर स्वतन्त्र और मौचिलक र#ना की हो। यद्यषिप �मo�र आदिद भारतीय तथा जमयङ्-जद-्पई, तक्-छङ्-पा आदिद भोट आ#ाय� ने बहुत कुछ चिलखा है, षिकन्तु वह पूव� आ#ाय� की व्याख्यामात्र है, नूतन और मौचिलक नहीं है। आज भी दिदङ्नागीय परम्परा के सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के षिवद्वान् थोडे़-बहुत हो सकते हैं, षिकन्तु मौचिलक र्शास्त्रों के र#धियता नहीं हैं। आ#ाय� र्शुभगुप्त ने कुल षिकतने ग्रन्थों की र#ना की, इसकी प्रामात्तिणक जानकारी नही है। उनका कोई भी ग्रन्थ मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भोट भा.ा और #ीनी भा.ा में उनके पाँ# ग्रन्थों के अनुवाद सुरत्तिक्षत हैं, यथा

1. सव�ज्ञचिसजिद्धकारिरका, 2. वाह्याथ�चिसजिद्धकारिरका, 3. श्रुषितपरीक्षा, 4. अपोहषिव#ारकारिरका एवं 5. ईश्वरभङ्गकारिरका।

ये सभी ग्रन्थ लघुकाय हैं, षिकन्तु अत्यन्त महत्त्वपूण� हैं। इनका प्रषितपाद्य षिव.य इनके नाम से ही स्पC है, यथा-

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सव�ज्ञचिसजिद्धकारिरका में षिवरे्श.त: जधैिमनीय दर्श�न का खण्डन है, क्योंषिक वे सव�ज्ञ नही मानते। ग्रन्थ में युकू्तपव�क सव�ज्ञ की चिसजिद्ध की गई है।

बाह्याथ�चिसजिद्ध कारिरका में जो षिवज्ञानवादी बाह्याथ� नहीं मानते, उनका खण्डन करके सप्रमाण बाह्याथ� की स�ा चिसद्ध की गई है।

श्रुषितपरीक्षा में र्शब्दषिनत्यता, र्शब्दाथ� सम्बन्ध की षिनत्यता और र्शब्द की षिवधि�वृत्ति� का खण्डन षिकया गया है। 'श्रुषित' का अथ� वेद है। वेद की अपौरु.ेयता का चिसद्धान्त मीमांसकों का प्रमुख चिसद्धान्त है, उसका ग्रन्थ में युचिक्तपूव�क षिनराकरण प्रषितपादिदत है।

अपोहषिव#ारकारिरका में र्शब्द और कल्पना की षिवधि�वृत्ति�ता का खण्डन करके उन्हें अपोहषिव.यक चिसद्ध षिकया गया है। अपोह ही र्शब्दाथ� है, यह बौद्धों की प्रचिसद्ध चिसद्धान्त है, इसका इसमें मण्डन षिकया है। वैचिर्शषि.क सामान्य को र्शब्दाथ� है, यह बौद्धों की प्रचिसद्ध है, इसका इसमें मण्डन षिकया है। वैचिर्शषि.क सामान्य को र्शब्दाथ� स्वीकार करते हैं, ग्रन्थ में सामान्य का षिवस्तार के साथ खण्डन षिकया गया है।

ईश्वरभङ्गकारिरका में इस बात का खण्डन षिकया गया है, षिक ईश्वर जो षिनत्य है, वह जगत का कारण है। ग्रन्थ में षिनत्य को कारण मानने पर अनेक दो. दर्शा�ए गये हैं। इन ग्रन्थों से सौत्रान्तिन्तक दर्श�न की षिवलुप्त परम्परा का पया�प्त परिर#य प्राप्त होता है।

योगा$ार दर्श�नअनुक्रम[छुपा]

1 योगा#ार दर्श�न 2 परिरभा.ा 3 आगमानुयायी 4 युचिक्तअनुयायी 5 सत्याकारवादी 6 धिमथ्याकारवादी 7 सत्याकार षिवज्ञानवादिदयों के भेद 8 धिमथ्याकार षिवज्ञानवादिदयों के भेद 9 पदाथ�मीमांसा 10 प्रमाण और प्रमाणफल व्यवस्था

11 प्रमाणफल

(षिवज्ञानवाद)

[संपादिदत करें] परिरभा>ा

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जो 'बाह्याथ� सव�था असत हैं और एकमात्र षिवज्ञान ही सत है'- ऐसा मानते हैं, वे षिवज्ञानवादी कहलाते हैं।

ये दो प्रकार के होते हैं, यथा

1. आगमानुयायी और 2. युचिक्त-अनुयायी।

आय� असङ्ग, वसुबनु्ध आदिद आगमानुयायी तथा आ#ाय� दिदङ्नाग, �म�कीर्तित2 आदिद युचिक्त-षिवज्ञानवादी हैं।

षिवज्ञानवादिदयों का एक त्तिभन्न प्रकार से भी षिद्वषिव� षिवभाजन षिकया जाता है, यथा-

1. सत्याकार षिवज्ञानवादी एवं 2. धिमथ्याकार षिवज्ञानवादी।

भोटदेर्शीय षिवद्वानों के मतानुसार आगमानुयायी और युचिक्त-अनुयायी दोनों प्रकार के षिवज्ञानवादिदयों में सत्याकारवादी और धिमथ्याकारवादी होते हैं।

[संपादिदत करें] आगमानुयायीआय� असङ्ग ने श्रावकभूधिमर्शास्त्र, प्रत्येकबुद्ध-भूधिमर्शास्त्र आदिद नामों से पाँ# भूधिमर्शास्त्रों की र#ना की है, जो इन भूधिमर्शास्त्रों के आ�ार पर अपने पदाथ� की व्यवस्था करते हैं और आलयषिवज्ञान, स्थिक्लC मनोषिवज्ञान आदिद की स�ा स्वीकार करते हैं, वे 'आगमानुयायी' कहलाते हैं।

[संपादिदत करें] युधिMअनुयायीदिदङ्नाग के प्रमाण समुच्चय एवं �म�कीर्तित2 के सात (सप्तवगDय) प्रमाणर्शास्त्रों के आ�ार पर जो पदाथ� मीमांसा की स्थापना करते हैं तथा घट, पट आदिद पदाथ� को बाह्याथ�त्व से रू्शन्य चिसद्ध करते हुए आलयषिवज्ञान और स्थिक्लC मनोषिवज्ञान का खण्डन करते हैं, वे 'युचिक्त-अनुयायी' कहलाते हैं।

[संपादिदत करें] सत्याकारवादीज्ञानगत नीलाकार, पीताकार आदिद को जो ज्ञान स्वरूप (ज्ञान स्वभाव) स्वीकार करते हुए उनकी सत्यत: (वस्तुत:) स�ा स्वीकार करते हैं, अथा�त जो यह मानते हैं षिक उनकी स�ा कस्थिल्पत नहीं हैं, वे 'सत्याकारवादी' कहलाते हैं।

[संपादिदत करें] मिमथ्याकारवादीज्ञान में उत्पन्न (ज्ञानगत) नीलाकार, पीताकार आदिद ज्ञानस्वरूप नहीं है, अत: उनकी वस्तुत: (सत्यत:) स�ा नहीं है, अषिपतु वे वासनाजन्य एवं षिनतान्त कस्थिल्पत हैं। इस प्रकार जिजनकी मान्यता है, वे 'धिमथ्याकारवादी' कहलाते हैं।

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[संपादिदत करें] सत्याकार विवज्ञानवादिदयों के भेद सत्याकारवादी तीन प्रकार के होते हैं, यथा-

1. ग्राह्य-ग्राहक समसंख्यावादी, 2. अ�ा�ण्डाकारवादी एवं 3. नाना अद्वयवादी।

ग्राह्य-ग्राहक समसंख्यावादी-जिजस प्रकार षिकसी चि#त्रपट में षिवद्यमान नील, पीत आदिद पां# वण� द्रव्यत: पृथक्-पृथक् अवस्मिस्तत होते हैं, उसी प्रकार उस चि#त्रपट के ग्राहक ज्ञान भी नीलाकार, पीताकार आदिद भेद से द्रव्यत: पृथक्-पृथक् पां# प्रकार के होते हैं।

अ�ा�ण्डाकारवादी— नील, पीत आदिद अनेकवण� वाले चि#त्रपट में षिवद्यमानसभी वण� द्रव्यत: पृथक्-पृथक् होते हैं, षिकन्तु उस चि#त्रपट का ग्रहक #कु्षर्तिव2ज्ञान उतनी संख्या में पृथक्-पृथक् न होकर द्रव्यत: एक ही होता है।

नाना अ-यवादी— जैसे नाना वण� वाले चि#त्रपट को जानने वाले #क्षुर्तिव2ज्ञान में वण� के अनुसार द्रव्यत: पृथग्भाव (नानाभाव) नहीं होता, अषिपतु वह एक होता है, वैसे चि#त्रपट में षिवद्यमान नाना वण� भी द्रव्यत: पृथक् नहीं होते, अषिपतु तादात्म्यरूप से वे एक और अत्तिभन्न होते हैं।

[संपादिदत करें] मिमथ्याकार विवज्ञानवादिदयों के भेद धिमथ्याकार षिवज्ञानवादी भी दो प्रकार के होते हैं-

समल विवज्ञानवादी— इनके मतानुसार बुद्ध की अवस्था में भी दै्वत प्रषितभास होता है।

विवमल विवज्ञानवादी— इनके मतानुसार बुद्ध की अवस्था में दै्वत प्रषितभास सव�था (षिबल्कुल) नहीं होता, क्योंषिक बुद्ध की चि#� सन्तषित में मल का लेर्श भी नहीं होता।

[संपादिदत करें] पदाथ�मीमांसा षिवज्ञानवाद के अनुसार प्रमेयों को हम तीन भागों में षिवभक्त कर सकते हैं, यथा-

1. परिरकस्थिल्पत लक्षण,

2. परतन्त्र लक्षण तथा 3. परिरषिनष्पन्न लक्षण।

परिरकल्पि6पत लक्षण— लक्षण को स्वभाव भी कहते हैं, अत: इसे परिरकस्थिल्पत स्वभाव भी कहा जा सकता है। स्वग्राहक कल्पना द्वारा आरोषिपत होना परिरकस्थिल्पत स्वभाव का लक्षण है। रूप, र्शब्द आदिद बाह्य एवं जड़ पदाथ� में तथा इजिन्द्रय, षिवज्ञान आदिद आन्तरिरक �म� मे षिवकल्पों (कल्पनाओं) द्वारा ग्राह्य-ग्राहक की पृथक् द्रव्यस�ा एवं बाह्याथ�ता का आरोपण षिकया जाता है, वही बाह्याथा�रोप या ग्राह्य-ग्राहकदै्वत का आरोप

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'परिरकस्थिल्पत लक्षण' है। यहाँ जिजस परिरकस्थिल्पतलक्षण का प्रषितपादन षिकया जा रहा है, वह परिरषिनष्पन्नलक्षण या �म�नैरात्म्य का षिन.ेध्य होता है।

परतन्1 लक्षण— हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न होना परतन्त्र स्वभाव का लक्षण है। समस्त चि#�-#ैतचिसक एवं उनमें आभाचिसत रूप आदिद �म� परतन्त्र लक्षण हैं। उदाहरणाथ� रूप और रूपज्ञ #क्षुर्तिव2ज्ञान दोनों स्वभावत: अत्तिभन्न और परतन्त्र लक्षण हैं, क्योंषिक दोनों एक ही वासना बीज के फल हैं, एक ही काल में उत्पन्न होते हैं और एक ही काल में षिनरुद्ध होते हैं।

परविनष्पन्नलक्षण— रूप आदिद परतन्त्र �म� में आरोषिपत बाह्याथ�त्व एवं अत्तिभ�ेयस्वलक्षणत्व परिरकस्थिल्पत लक्षण हैं, जो परतन्त्र �म� में षिनतान्त असत हैं। परतन्त्र �म� में परिरकस्थिल्पत लक्षण की वस्तुत: अषिवद्यमानता या रषिहतता ही 'परिरषिनष्पन्न लक्षण' है और षिवज्ञानवादी र्शास्त्रों में यही (परिरषिनष्पन्न लक्षण) �म��ातु, तथता, भूतकोदिट, परमाथ� सत्य आदिद र्शब्दों से षिनर्दिद2C है। यह परिरषिनष्पन्न लक्षण परतन्त्र लक्षण से न त्तिभन्न होता है और न अत्तिभन्न। वह स्वभावत: अत्तिभन्न और व्यावृत्ति�त: त्तिभन्न होता है।

[संपादिदत करें] प्रमाण और प्रमाणफल व्यवस्था बौद्धन्याय के मत में भी दो प्रमाण और प्रत्यक्ष के #ार प्रकार वैसे ही माने जाते है, जैसे सौत्रान्तिन्तक

मानते हैं।

प्रमाण

अषिवसंवादकता और अपूव�गो#रता प्रमाण का लक्षण है। अथा�त वही ज्ञान प्रमाण कहला सकता है, जिजसमें यह सामथ्य� हो षिक अपने द्वारा दृC वस्तु को प्राप्त करा सके तथा जो अपने बल से वस्तु को जाने, अन्य पर षिनभ�र होकर नहीं।

प्रामाण्य

ज्ञान की अषिवसंवादकता और अपूव�गो#रता स्वत: चिसद्ध होती है। या परत: अथा�त अन्य प्रमाणों से? यदिद स्वत: प्रामाण्य षिनत्ति�त होता है तो षिकसी भी व्यचिक्त को प्रमाण और अप्रमाण के षिव.य में कभी अज्ञान ही नहीं होगा। यदिद परत: दूसरे प्रमाण से प्रामाण्य षिनत्ति�त होता है तो उस दूसरे प्रमाण के प्रामाण्य के चिलए अन्य तीसरे प्रमाण की आवश्यकता होगी। इस तरह अनवस्था दो. होगा?

समा�ान

जिजतने प्रमाण होते हैं, वे सभी न तो एकान्त रूप से स्वत: प्रमाण होते और न परत: प्रमाण होते हैं उनमें कुछ स्वत: प्रमाण होते हैं और कुछ परत:।

प्रश्न— स्वत: प्रामाण्य और परत: प्रामाण्य क्या है? याने प्रमाण स्वबल से षिव.य का षिन�य करता है या षिव.यी का षिन�य करता है? अथा�त षिव.य के षिन�य से प्रामाण्य षिनत्ति�त होता है षिक षिव.यी के षिन�य से?

समा�ान— जो प्रमाण अपनी अषिवसंवादकता का षिन�य स्वत: अपने बल से कर लेता है, वह 'स्वत: प्रमाण' तथा जिजसकी अषिवसंवादकता परत: दूसरे प्रमाण से षिनत्ति�त होती है, वह 'परत: प्रमाण' कहलाता है।

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प्रश्न— यदिद स्वत: या परत: प्रमाण का लक्षण उक्त प्रकार का है तो अनुमान स्वत: प्रमाण नहीं हो सकेगा, जब षिक चिसद्धान्तत: अनुमान स्वत: प्रमाण माना जाता है, क्योंषिक #ावा�क का कहना है षिक �ूम हेतु से वधिÏ को जानने वाला अनुमान अपनी अषिवसंवादकता का षिन�य स्वत: नहीं कर सकता?

समा�ान— दो. नहीं है। यद्यषिप #ावा�क पूछने पर यह कहेगा षिक अनुमान प्रमाण नहीं है, षिफर भी उसकी चि#� सन्तषित में �ूम से वधिÏ को जानने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है और उससे वह जानता है षिक पव�त में वधिÏ है और उस ज्ञान को वह सही ज्ञान भी समझता है। अत: अनुमान स्वत: प्रमाण चिसद्ध होता है। सभी स्वसंवेदन स्वत: प्रमाण हैं, क्योंषिक वे अपनी अषिवसंवादकता को स्वयं षिन�यपूव�क जानते हैं। योगी प्रत्यक्ष स्वत: प्रमाण है। पृथग्जन का मानस प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। अत्तिभज्ञा प्राप्त पृथग्जन योगी का मानस प्रत्यक्ष स्वत: प्रमाण होता है। आय� का मानस प्रत्यक्ष भी स्वत: प्रमाण है। सा�नप्रवृ�, अपोहप्रवृ�, सामान्यलक्षण, सषिवकल्प, षिनर्तिव2कल्प इत्यादिद का स्वरूप एवं षिव#ार सौत्रान्तिन्तकों के समान ही इस मत में भी मान्य हैं।

ज्ञान सात प्रकार के होते हैं, यथा-

1. प्रत्यक्ष,

2. अनुमान,

3. अधि�गत षिव.यक ज्ञान,

4. मनोषिव#ार, 5. प्रषितभास-अषिन�याक,

6. धिमथ्याज्ञान एवं 7. सन्देह।

1.और 2. स्पC है। #कु्षर्तिव2ज्ञान आदिद ज्ञान अपने उत्पादन के षिद्वतीय क्षण से लेकर जब तक उनकी �ारा समाप्त नहीं

होती, 'अधि�गत षिव.यक ज्ञान' हैं। जो ज्ञान सम्यक चिलङ्ग पर आत्तिश्रत (अनुमान) नहीं होता तथा अनुभवात्मक (प्रत्यक्ष) भी नहीं होता,

षिकन्तु अपने षिव.य का षिबना संर्शय के ग्रहण करता है, ऐसा अध्यावसायात्मक ज्ञान 'मनोषिव#ार' कहलाता है। इसके तीन प्रकार हैं-

अहेतुक मनोविव$ार— षिबना षिकसी हेतु के और षिबना संर्शय के यह जानना षिक 'र्शब्द अषिनत्य है' या 'सव�ज्ञ होता है'- यह 'अहेतुक मनोषिव#ार' कहलाता है।

अनैकाप्तिन्तक मनोविव$ार— 'र्शब्द अषिनत्य है, - क्योंषिक वह प्रमेय है'- इस प्रकार के अनैकान्तिन्तक प्रमेय हेतु से उत्पन्न र्शब्दषिनत्यता का ज्ञान 'अनैकान्तिन्तषिक मनोषिव#ार' है।

विवरुद्ध मनोविव$ार— 'र्शब्द अषिनत्य है, क्योंषिक अकृतक है'- इस प्रकार के षिवरुद्ध हेतु से उत्पन्न र्शब्दाषिनत्यता का ज्ञान 'षिवरुद्ध मनोषिव#ार' है।

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प्रषितभास-अषिन�ायक- षिव.य का प्रषितभास होने पर भी जब षिन�य नहीं होता, तो ऐसे ज्ञान को 'प्रषितभास -अषिन�ायक' कहते हैं। उदाहरणाथ� दूर से आते हुए अपने गुरु का ज्ञान में प्रषितभास होने पर भी यह षिन�य नहीं होता षिक प्रषितभाचिसत व्यचिक्त गुरु ही है तथा अन्यगतमानस पुद्गल का श्रोत्रषिवज्ञान और पृथग्जन का रुपज्ञ, र्शब्दज्ञ आदिद मानस प्रत्यक्ष 'प्रषितभास-अषिन�ायक' ज्ञान है।

6.और 7. स्पC है। सभी मनोषिव#ार अषिवसंवादी ज्ञान नहीं होते, क्योंषिक वे संर्शय एवं षिवपय�य आदिद धिमथ्या षिवप्रषितपत्ति�यों

का षिनरास कर षिव.य का स्पC परिरचे्छद (अवबो�) नहीं करते। अषिवसंवादी ज्ञान होने के चिलए षिवप्रषितपत्ति�यों का षिनरास करना आवश्यक है। अन्यथा परवादी द्वारा संर्शय पैदा षिकया जा सकता है।

[संपादिदत करें] प्रमाणफल इसकी दो प्रकार से व्यवस्था की जाती है, -

बाह्याथ�वादी-सा�ारण— नीन प्रमेय में अनधि�गत अषिवसंवादी नीलाकार ज्ञान प्रमाण ता षिवप्रषितपत्ति�षिनरास पूव�क नील-परिरचे्छद (अवषिपरीत अवबो�) प्रमाणफल है।

असा�ारण— प्रज्ञप्त नील प्रमेय में अनधि�गत अषिवसंवादी ज्ञान प्रमाण तथा प्रज्ञप्त नील का परिरचे्छद 'प्रमाणफल' हैं।

माध्यमिमक दर्श�नअनुक्रम[छुपा]

1 माध्यधिमक दर्श�न 2 परिरभा.ा 3 स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक 4 प्रासंषिगक माध्यधिमक 5 �म�नैरात्म्य 6 पुद्गलनैरात्म्य

7 टीका दिटप्पणी

(रू्शन्यवाद)

[संपादिदत करें] परिरभा>ा सत्त्व (स�ा) और असत्त्व (अस�ा) के मध्य में स्थिस्थत होना 'माध्यधिमक' र्शब्द का अथ� है अथा�त सभी

�म� परमाथ�त: (सत्यत:) सत नहीं हैं और संवृषितत: (व्यवहारत:) असत भी नहीं हैं- ऐसी जिजनकी मान्यता है, वे 'माध्यधिमक' कहलाते हैं।

माध्यधिमकों के भेद-माध्यधिमक दो प्रकार के होते हैं, यथा-

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1. स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक एवं 2. प्रासंषिगक माध्यधिमक।

'स्वातन्तिन्त्रक' और 'प्रासंषिगक'- यह नामकरण भोट देर्श के षिवद्वानों द्वारा षिकया गया है। भारतीय मूल ग्रन्थों में यद्यषिप उनके चिसद्धान्तों की ##ा� और वाद-षिववाद उपलब्ध होते हैं, षिकन्तु उपयु�क्त नामकरण उपलब्ध नहीं होता।

[संपादिदत करें] स्वातप्तिन्1क माध्यमिमकव्यवहारिरक स�ा की स्थापना में मतभेद के कारण इनके भी दो भेद होते हैं, यथा-

1. सूत्रा#ार स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक एवं 2. योगा#ार स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक।

सू1ा$ार स्वातप्तिन्1क माध्यमिमकये लोग व्यवहार की स्थापना प्राय: सौत्रान्तिन्तक दर्श�न की भाँषित करते हैं। इसचिलए इन्हें 'सौत्रान्तिन्तक स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक' भी कहते हैं अथा�त अठारह �ातुओं में संगृहीत �म� की स्थापना व्यवहार में ये सौत्रान्तिन्तकों की भाँषित करते हैं। आ#ाय� भावषिववेक या भव्य एवं ज्ञानगभ� आदिद इस मत के प्रमुख आ#ाय� हैं।

षिव#ार षिबन्दु— इनके मतानुसार व्यवहार में बाह्याथ� की स�ा मान्य है। इजिन्द्रयज ज्ञान धिमथ्याकार नहीं होते, अषिपतु सत्याकार होते हैं। वे (ज्ञान) अपने षिव.य के आकार को ग्रहण करते हुए उन (षिव.यों) का ग्रहण करते हैं।

सूत्रा#ार स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक पूवा�परकाचिलक काय�कारणभाव मानते हैं, समकाचिलक नहीं अथा�त कारण और काय� का एक काल में (युगपद)् समवस्थान नहीं होता।

दर्शभूमक सूत्र के 'चि#�मातं्र भो जिजनपुत्रा यदुत त्रै�ातुकम्*' इस व#न का अथ� ये लोग ऐसा नहीं मानते षिक इसके द्वारा बाह्याथ� का षिनराकरण और चि#�मात्रता की स्थापना की गई है, अषिपतु इस व#न के द्वारा चि#� से अषितरिरक्त कोई ईश्वर, महेश्वर आदिद इस लोक का कता� है, जैसा तैर्शिथ2क (बौदे्धतर दार्श�षिनक) मानते हैं, उस (मान्यता) का खण्डन षिकया गया है, बाह्याथ� का नहीं।

लंकावतार सूत्र के :

दृश्यं न षिवद्यते बाहं्य चि#�ं चि#त्रं षिह दृश्यते। देहभोगप्रषितxानं चि#�मातं्र वदाम्यहम्॥ -(लंकावतार, 3:33)*

इस व#न का अत्तिभप्राय भी बाह्याथ� के षिन.े� में नहीं है, अषिपतु बाह्याथ� की परमाथ�त: स�ा नहीं है- इतना मात्र अथ� है। इतना ही नहीं, जिजतने भी सूत्रव#न षिवज्ञन्तिप्तमात्रता का प्रषितपादन करते हुए से दृधिCगो#र होते हैं, भावषिववेक के मतानुसार उनका वैसा अथ� नहीं है। अथा�त् षिवज्ञान्तिप्तमात्रता षिकसी भी सूत्र का प्रषितपाद्य अथ� नहीं है।

स्वलक्षणपरीक्षा— षिवज्ञानवादिदयों के मतानुसार प्रज्ञापारधिमतासूत्रों में प्रषितपादिदत सव��म�षिन:स्वभावता का तात्पय� यह है षिक परिरकस्थिल्पतलक्षण लक्षणषिन:स्वभाव हैं, परतन्त्रलक्षण उत्पत्ति�षिन:स्वभाव हैं तथा परिरषिनष्पन्नलक्षण परमाथ�षिन:स्वभाव हैं।

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भावषिववेक षिवज्ञानवादिदयों से पूछते हैं षिक उस परिरकस्थिल्पत लक्षण का स्वरूप क्या है, जो लक्षणषिन: स्वभाव होने के कारण षिन:स्वभाव कहलाता है। यदिद रूपादिदषिव.यक र्शब्द एवं कल्पनाबुजिद्ध से इसका तात्पय� है तो यह महान अपवादक होगा, क्योंषिक र्शब्द और कल्पनाबुजिद्ध पं#स्कन्धों में संगृहीत होने वाली वस्तु हैं।

योगा#ार स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक— ये लोग षिन:स्वभावतावादी माध्यधिमक होते हुए भी व्यवहार की स्थापना योगा#ार दर्श�न की भाँषित करते हैं, अत: 'योगा#ार स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक' कहलाते हैं। ये व्यवहार में बाह्याथ� की स�ा नहीं मानते, अत: तीनों �ातुओं की षिवज्ञन्तिप्तमात्र व्यवस्थाषिपत करते हैं। आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत, कमलर्शील आदिद इस मत के प्रमुख आ#ाय� हैं। इनके चिसद्धान्त इस प्रकार हैं, यथा-

1. परमाथ�त: पुद्गल और �म� की स्वभावस�ा पर षिव#ार, 2. व्यवहारत: बाह्याथ� की स�ा पर षिव#ार, 3. आय�सन्धिन्धषिनमo#नसूत्र का वास्तषिवक अथ� तथा 4. परमाथ�त: स�ा का खण्डन करनेवाली प्र�ान युचिक्त का प्रदर्श�न।

परमाथ�त: पुद्गल और �मj की स्वभावस�ा पर विव$ारआय� सन्धिन्धषिनमo#नसूत्र में लक्षणषिन:स्वभावता एवं उत्पत्ति�षिन:स्वभावता की ##ा� उपलब्ध होती है। उसकी जैसी व्याख्या आ#ाय� भावषिववेक करते हें, उसी तरह का अथ� मध्यमकालोक में भी वर्णिण2त है, अत: ऐसा प्रतीत होता है षिक आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत भी व्यवहार में स्वलक्षणत: स�ा स्वीकार करते हैं। ज्ञात है आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत ही इस मत के पुर:स्थापक हैं। इनके मत में भी वे ही युचिक्तयाँ प्रयुक्त हैं, जिजनका आ#ाय� �म�कीर्तित2 के सप्त प्रमाणर्शास्त्रों में काय�-कारण की स्थापना के सम्बन्ध में उल्लेख षिकया गया। इससे प्रतीत होता है षिक ये व्यवहार में स्वभावस�ा मानते हैं। फलत: इनके मतानुसार पुद्गल और �म� की परमाथ�त: स�ा नहीं होती, षिकन्तु उनकी व्यवहारत: स�ा मान्य है।

व्यवहारत: बाह्याथ� स�ा पर विव$ारआ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत ने अपने मध्यमकालङ्कार भाष्य में काय� और कारण की सांवृषितक स�ा के स्वरूप पर षिव#ार षिकया है। उन्होंने वहाँ यह पूव�पक्ष उपस्थिस्थत षिकया है षिक संवृषितसत् �म� मात्र चि#�#ै�ात्मक (षिवज्ञन्तिप्तमात्रात्मक) हैं या उनकी बाह्याथ�त: स�ा होती हैं? इसका समा�ान करते हुए उन्होंने चिलखा है षिक उनकी बाह्याथ�त: स�ा कथमषिप नहीं होती अथा�त् उनकी बाह्यात: स�ा मानना षिनतान्त युचिक्तषिवरुद्ध है। इसके चिलए उन्होंने सहोपलम्भ युचिक्त का वहाँ प्रयोग षिकया है तथा स्वप्न, माया आदिद दृCान्तों के द्वारा व्यवहारत: उनकी षिवज्ञन्तिप्तमात्रात्मकता प्रषितपादिदत की है।

आय�सन्धिlविनमm$नसू1 का वास्तविवक अथ�'परिरकस्थिल्पतलक्षण लक्षणषिन:स्वभाव हैं तथा अवचिर्शC दोनों लक्षण अथा�त परतन्त्र और परिरषिनष्पन्न लक्षण वैसे नहीं हैं'- आय�सन्धिन्धषिनमo#न के इस व#न का आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत यह अथ� ग्रहण करते हैं षिक परतन्त्र लक्षण और परिरषिनष्पन्न लक्षण लक्षणषिन:स्वभाव नहीं है, अषिपतु उनकी स्वलक्षण स�ा है। षिकन्तु उनकी वह स्वलक्षण स�ा पारमार्शिथ2क नहीं, अषिपतु व्यावहारिरक (सांवृषितक) है। परतन्त्र और परिरषिनष्पन्न की परमाथ�त: स�ा मानना षिनतान्त परिरकस्थिल्पत है और उस परिरकस्थिल्पत की परमाथ�त: स�ा र्शर्शश्रृङ्गवत् सव�था अलीक है। आर्शय यह है षिक परतन्त्र और परिरषिनष्पन्न की परमाथ�त: स�ा परिरकस्थिल्पत है और वह परिरकस्थिल्पत लक्षणषिन:स्वभाव (र्शर्शश्रृङ्गवत्) है। षिवज्ञान के गभ� में उनकी व्यावहारिरक (संवृषितत:) स्वलक्षणस�ा मानने में आपत्ति� नहीं है। जो

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आकार्श आदिद परिरकस्थिल्पतलक्षण हैं, वे र्शर्शश्रृङ्गवत् सव�था अलीक नहीं हैं, अषिपतु उनकी सांवृषितक स�ा होती है। पारमार्शिथ2क स�ा की तो सांवृषितक स�ा भी नहीं है।

परमाथ�त: स�ा का खण्डन करने वाली प्र�ान युधिMज्ञात है षिक माध्यधिमक र्शून्यतावादी हैं। र्शून्यता के द्वारा जिजसका षिन.े� षिकया जाता है, उस षिन.ेध्य का पहले षिन�य कर लेना #ाषिहए। तभी रू्शन्यता का स्वरूप स्पC होता है, क्येंषिक षिन.ेध्य का षिन.े� ही र्शून्यता है। षिन.ेध्य में फक� होने के कारण माध्यधिमकों के आन्तरिरक भेद होते हैं। अत: इस मत के अनुसार षिन.ेध्य के स्वरूप का षिन�ा�रण षिकया जा रहा है।

[संपादिदत करें] प्रासंविगक माध्यमिमकजो माध्यधिमक केवल 'प्रसंग' का प्रयोग करते हैं, वे प्रासंषिगक माध्यधिमक कहलाते हैं। सभी भारतीय दर्श�नों मे स्वपक्ष की स्थापना और परपक्ष के षिनराकरण की षिव�ा दृधिCगो#र होती हैं माध्यधिमक सभी �म� को षिन:स्वभाव (रू्शन्य) मानते हैं। प्रासंषिगक माध्यधिमकों का कहना है षिक जब हेतु, साध्य, पक्ष आदिद सभी रू्शन्य है तो ऐसी स्थिस्थषित में यह उचि#त नहीं है षिक र्शून्यता को साध्य बनाकर उसे हेतु प्रयोग आदिद के द्वारा चिसद्ध षिकया जाए। इस स्थिस्थषित में एक ही उपाय अवचिर्शC रहता है षिक जो दार्श�षिनक हेतुओं के द्वारा वस्तुस�ा चिसद्ध करते हैं, उनके प्रयोगों (अनुमानप्रयोगों) में दो. दिदखाकर यह चिसद्ध षिकया जाए षिक उनके सा�न उनके साध्य को चिसद्ध करने में असमथ� हैं। इस उपाय से जब स्वभाव स�ा (वस्तुस�ा) चिसद्ध नहीं होगी तो यही षिन:स्वभावता की चिसजिद्ध होगी अथा�त स्वभावस�ा का षिन.े� ही षिन:स्वभावता की चिसजिद्ध है। इसचिलए परपक्ष का षिनराकरण मात्र माध्यधिमक को करना #ाषिहए। स्वतन्त्र रूप से हेतुओं का प्रयोग करके स्वपक्ष की चिसजिद्ध करना माध्यधिमकों के षिव#ारों के वातावरण के सव�था षिवपरीत है। अत: परपक्ष षिनराकरण मात्र पर बल देने के कारण ये लोग 'प्रासंषिगक' माध्यधिमक कहलाते हैं। जबषिक भावषिववेक, र्शान्तरत्तिक्षत आदिद माध्यधिमक आ#ाय� इन षिव#ारों से सहमत नहीं हैं, उनका कहना है षिक सभी �म� के परमाथ�त: षिन:स्वभाव (रू्शन्य) होने पर भी व्यवहार में उनकी स�ा होती है, अत: स्वतन्त्र रूप से हेतु, दृCान्त आदिद का प्रयोग करके रू्शन्यता की चिसजिद्ध की जा सकती है। अत: ये लोग 'स्वातन्तिन्त्रक' माध्यधिमक कहलाते हैं। ज्ञात है षिक प्रासंषिगक व्यवहार में भी वस्तु की स�ा नहीं मानते। इन्हीं उपयु�क्त बातों के आ�ार पर स्वातन्तिन्त्रक और प्रासंषिगक माध्यधिमकों ने अपने-अपने ढंग से अपने-अपने दर्श�नों का षिवकास षिकया है।

[संपादिदत करें] �म�नैरात्म्य आ#ाय� बुद्धपाचिलत का कहना है षिक इन सब व#नों के द्वारा भगवान ने सभी �म� को अनात्म कहा है।

उन्हें माया, मरीचि#, स्वप्न एवं प्रषितषिबम्ब की तरह कहा है। इन सभी संस्कारों में तथ्यता अथा�त सस्वभावता नहीं है, सभी धिमथ्या और प्रपंजात्मक है- ऐसा कहा है।

बुद्धपाचिलत कहते हैं षिक यहाँ 'अनात्म' र्शब्द षिन:स्वभाव के अथ� में है, क्योंषिक 'आत्मा' र्शब्द स्वभाववा#ी है। इसचिलए 'सभी �म� अनात्म हैं' का अथ� 'सभी �म� षिन:स्वभाव हैं'- यह होता है। उपयु�क्त बुद्धव#न हीनयान षिपटक में भी हैं, अत: वहाँ भी �म�नैरात्म्य सप्रषितपादिदत हैं।

आ#ाय� #न्द्रकीर्तित2 भी बुद्धपाचिलत के उपयु�क्त व्याख्यान से सहमत हैं। उनका भी कहना है षिक श्रावकषिपटक में भी �म�नैरात्म्य प्रषितपादिदत है।

[संपादिदत करें] पुद्गलनैरात्म्य

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वैभाषि.क से लेकर स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक पय�न्त सभी स्वयूथ्य चिसद्धान्तवादिदयों के मत मे यह माना जाता है षिक 'पुद्गल स्कन्धों से त्तिभन्न लक्षणवाला, स्वतन्त्र एवं द्रव्यसत् नहीं हैं'। इसे (पृथक् द्रव्यत: स�ा के अभाव को) ही वे 'पुद्गलनैरात्म्य' कहते हैं।

उनका यह भी कहना है षिक आत्मदृधिC 'अहम्' के आश्रय (आ�ार) आत्मा को स्कन्धों के स्वामी की भाँषित तथा स्कन्धों को उसके दास की भाँषित ग्रहण करती है। क्योंषिक 'मेरा रूप, मेरी वेदना, मेरी संज्ञा' इत्यादिद प्रकार से ग्रहण षिकया जाता है, इसचिलए वे स्कन्ध उस आत्मा के हैं और इसचिलए वे आत्मा के अ�ीन हैं। इसचिलए आत्मदृधिC पाँ#ों स्कन्धों को आत्मा के अ�ीन रूप में ग्रहण करती है। अत: स्वामी की भाँषित, स्कन्धों से पृथक् लक्षण वाले, स्वतन्त्र आत्मा का जैसा अवभास (प्रतीषित) होता है तथा उसी के अनुरूप उसका 'सत' के रूप में जो अत्तिभषिनवेर्श षिकया जाता है, वैसा अत्तिभषिनवेर्श ही पुद्गल को 'द्रव्यसत' ग्रहण करने का आकार-प्रकार है। पुद्गल की उस प्रकार की द्रव्यस�ा का खण्डन हो जाने पर 'पुद्गल' स्कन्धों में उप#रिरतमात्र या आरोषिपत मात्र रह जाता है। 'मात्र' र्शब्द द्वारा पुद्गल की स्कन्धों से त्तिभन्नाथ�ता का षिन.े� षिकया जाता है।

'र्शास्त्रों में की गई तत्त्व मीमांसा षिववाद-षिप्रयता के चिलए नहीं, अषिपतु षिवमुचिक्त (मोक्ष या षिनवा�ण) के चिलए की गई है'- #न्द्रकीर्तित2 के मध्यमकावतार में उक्त इस व#न के अनुसार माध्यधिमक र्शास्त्रों में वस्तुस्थिस्थषित की जिजतनी भी युचिक्तपूव�क परीक्षाए ंकी गई हैं, वे सभी प्रात्तिणयों के मोक्ष लाभ के चिलए ही की गई हैं।

पुद्गल एवं �म� के प्रषित स्वभावात्तिभषिनवेर्श के कारण ही सभी प्राणी संसार में बं�े हुए हैं। 'अहम् अस्मिस्म' (मैं हँू) इस प्रकार की बुजिद्ध के आलम्बन पुद्गल एवं उसके सन्तषितगत �म� हैं, उन (पुद्गल एवं �म�) दोनों में पुद्गलात्मा और �मा�त्मा नामक आत्मद्वय का जो अत्तिभषिनवेर्श होता है, वहीं संसार में बाँ�नेवाला प्रमुख बन्धन है। अत: जिजन पुद्गल एवं �म� में आत्मा (पुद्गलात्मा और �मा�त्मा) के रूप में ग्रहण होता है, युचिक्त द्वारा षिन.े� करने के भी मुख्य आ�ार वे दो ही होते हैं। अत: सभी युचिक्तयाँ इन दो आत्माओं की षिन.े�क के रूप में ही संगृहीत होती हैं।

र्शास्त्रकारों ने एकानेक स्वभावरषिहतत्त्व [1], वज्रकणयुचिक्त [2], सदसदनुपपत्ति�युचिक्त [3], #तुष्कोदिटकोत्पादानुपपत्ति�युचिक्त [4] तथा प्रतीत्यसमुत्पादयुचिक्त [5] आदिद अनेक युचिक्तयों का र्शास्त्रों में वण�न षिकया है।

दर्शभूमकसूत्र में दस समताओं द्वारा .xभूधिम में अवतरिरत होने की देर्शना की गई है। सव��म�-अनुत्पाद के रूप में समता का प्रषितपादन करने से अन्य समताओं का प्रषितपादन सुकर हो जाता है- ऐसा सो#कर आ#ाय� नागाजु�न ने मूलामध्यधिमककारिरका में :

न स्वतो नाषिप परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुत:।उत्पन्ना जातु षिवद्यन्ते भावा: क्क#न के#न॥

इस कारिरका को प्रस्तुत षिकया है। फलत: �म�नैरात्म्य (रू्शन्यता) को चिसद्ध करने की प्रमुख युचिक्त उनके अनुसार यही #तुष्कोदिटकोत्पादानुपपत्ति� युचिक्त ही है।

यह #तुष्कोदिटक उत्पाद की अनुपत्ति� भी प्रतीत्यसमुत्पाद से ही चिसद्ध होती है, क्योंषिक वस्तुओं की अहेतुक, ईश्वर, प्रकृषित, काल आदिद षिव.महेतुक तथा स्वत:, परत: एवं उभयत: उत्पत्ति� उनके प्रतीयसमुत्पन्न होने से सम्भव नहीं हो पाती। वस्तुओं के प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से ही अहेतुक, षिव.महेतुक, स्वत: परत: उत्पाद आदिद को ये कल्पनाए ंयुचिक्त द्वारा परीक्षाक्षम नहीं हो पातीं। इसचिलए इस प्रतीत्यसमुत्पाद युचिक्त के द्वारा कुदृधिC के समस्त जानों का समुचे्छद षिकया जाता है।

अंकुर आदिद बाह्य वस्तुए ंऔर संस्कार आदिद आन्तरिरक वस्तुए ंक्रमर्श: बीज आदिद तथा अषिवद्या आदिद हेतुओं पर षिनभ�र होकर ही उत्पन्न होती हैं। यही कारण है षिक उनके उत्पाद आदिद सभी स्वलक्षणत:

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चिसद्ध स्वभाव से र्शून्य हैं तथा वे स्वत: परत:, उभयत:, अहेतुत: या षिव.महेतुत: उत्पन्न नहीं होते। इस तरह उनके स्वभावत: होने का षिन.े� षिकया जाता है। अत: समस्त कुदृधिC जालों का उचे्छद करने वाली तथा परमाथ�स�ा का षिन.े� करने वाली प्र�ान युचिक्त प्रतीत्यसमुत्पाद ही है। प्रासंषिगक माध्यधिमक तो इसे युचिक्तराज कहते हैं।

[संपादिदत करें] टीका दिटQपणी1. ↑ यदिद आत्मा और स्कन्ध एक है तो वे दोनों अत्यन्त अत्तिभन्न हो जाएगंे। फलत: जैसे स्कन्ध अनेक हैं,

वैसे आत्मा को भी अनेक मानना पडे़गा अथवा जैसे आत्मा एक है, वैसे स्कन्धों को भी एक मानना पडे़गा। स्कन्धों की भाँषित आत्मा भी अषिनत्य हो जाएगा। अथवा आत्मा की भाँषित स्कन्ध भी षिनत्य हो जाएगंे। यदिद आत्मा और स्कन्ध त्तिभन्न हैं तो युचिक्तयों द्वारा उन्हें सव�था त्तिभन्न ही रहना #ाषिहए। ऐसी स्थिस्थषित में र्शरीर के रुग्ण या जीण� होने पर मैं 'रुग्ण हूँ जीण� हूँ' – इस प्रतीषित से षिवरो� होगा अथा�त ऐसी प्रतीषित नहीं होनी #ाषिहए। भेद के इस चिसद्धान्त को वादी कस्थिल्पत नहीं मानता, अत: वह ऐसा नहीं कह सकता षिक यह त्तिभन्नता प्राषितभाचिसक दृधिC से है। पुन� उसे आत्मा को पृथक् दिदखलाना होगा।

2. ↑ रूप आदिद वस्तुए,ं स्वभावत: अनुत्पन्न हैं, स्वत: परत: उभयत: एवं अहेतुक: उत्पन्न न होने से। 3. ↑ रूप आदिद वस्तुए,ं स्वभावत: अनुत्पन्न हैं, हेतु के काल में सत् अथवा असत् होते हुए उत्पन्न न होने

से। 4. ↑ रूप आदिद वस्तुए,ं स्वभावत: अनुत्पन्न हैं, एक हेतु से अनेक फल, अनेक हेतुओं से एक फल,

अनेक हेतुओं से अनेक फल तथा एक ही हेतु से एक फल उत्पन्न न होने से 5. ↑ रूप आदिद �म�, षिन:स्वभाव हैं, प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से।

महायान साविहत्य[संपादिदत करें] महायानसूत्र

अनुक्रम[छुपा]

1 महायान साषिहत्य 2 महायानसूत्र 3 सद्धम�पुण्डरीक 4 लचिलतषिवस्तर 5 सुवण�प्रभास 6 तथागतगुह्यक 7 दर्शभूमीश्वर 8 प्रज्ञापारधिमतासूत्र 9 अवदान साषिहत्य

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10 अवदानर्शतक 11 दिदव्यावदान

12 अश्वघो. साषिहत्य

महयानसूत्र अनन्त हैं। उनमें कुछ उपलब्ध हैं, और कुछ मूल रूप में अनुपलब्ध हैं। भोट-भा.ा, #ीनी भा.ा में अनेक सूत्रों के अनुवाद उपलब्ध हैं। कुछ सूत्र अवश्य ऐसे हैं, जिजन का महायान बौद्ध परम्परा में अत्यधि�क आदर है। ऐसे सूत्रों की संख्या 9 है। इन 9 सूत्रों को 'नव �म�' भी कहते हैं तथा 'वैपुल्यसूत्र' भी कहते हैं। वे इस प्रकार है-

1. सद्धम�पुण्डरीक, 2. लचिलतषिवस्तर, 3. लंकावतार, 4. सुवण�प्रभास,

5. गण्डव्यूह,

6. तथागतगुह्यक,

7. समाधि�राज,

8. दर्शभूमीश्वर एवं 9. अCसाहचिसका आदिद

प्रज्ञापारधिमतासूत्र भी इन सूत्रों से अलग एक मह्त्वपूण� सूत्र है जिजसमें प्रमुखत: भगवान बुद्ध द्वारा गृध्रकूट पव�त पर षिद्वतीय �म�#क्र के काल में उपदिदC देर्शनाए ंहैं।

[संपादिदत करें] सद्धम�पुण्डरीक महायान वैपुल्यसूत्रों में यह अन्यतम एवं एक आदृत सूत्र है। 'पुण्डरीक' का अथ� 'कमल' होता है।

'कमल' पषिवत्रता और पूण�ता का प्रतीक होता है। जैसे पंक (की#ड़) में उत्पन्न होने पर भी कमल उससे चिलप्त नहीं होता, वैसे लोक में उत्पन्न होने पर भी बुद्ध लोक के दो.ों से चिलप्त नहीं होते। इसी अथ� में सद्धम�पुण्डरीक यह ग्रन्थ का साथ�क नाम है।

#ीन, जापान, कोरिरया, षितब्बत आदिद महायानी देर्शों में इसका बड़ा आदर है और यह सूत्र बहुत पषिवत्र माना जाता है।

#ीनी भा.ा में इसके छह अनुवाद हुए, जिजसमें पहला अनुवाद ई. सन् 223 में हुआ। �म�रक्ष, कुमारजीव, ज्ञानगुप्त और �म�गुप्त इन आ#ाय� के अनुवाद भी प्राप्त होते हैं। #ीन और जापान में आ#ाय� कुमारजीव- कृत इसका अनुवाद अत्यन्त लोकषिप्रय है। ईस्वीय 615 व.� में जापान के एक राजपुत्र र्शी-तोकु-ताय-चिर्श ने इस पर एक टीका चिलखी, जो

अत्यन्त आदर के साथ पढ़ी जाती है।

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इस ग्रन्थ पर आ#ाय� वसुबनु्ध ने 'सद्धम�-पुण्डरीकर्शास्त्र' नामक टीका चिलखी, जिजसका बोधि�रुचि# और रत्नमषित ने लगभग 508 ईस्वीय व.� में #ीनी भा.ा में अनुवाद षिकया था। इसका सम्पादन 1992 में प्रो. ए#. कन� एवं बुषिनधियउ नंजिजयों ने षिकया।

इस ग्रन्थ में कुल 27 अध्याय है, जिजन्हें 'परिरवत�' कहा गया है। प्रथम षिनदान परिरवत� में इसमें उपदेर्श की पृxभूधिम और प्रयोजन की ##ा� करते हुए कहा गया है षिक यह 'वैपुल्यसूत्रराज' है। इस परिरचे्छद का मुख्य प्रषितपाद्य तो भगवान का यह कहना है षिक 'तथागत नाना षिनरुचिक्त और षिनदर्श�नों (उदाहरणों) से, षिवषिव� उपायों से नाना अधि�मुचिक्त, रुचि# और (बुजिद्ध की) क्षमता वाले सत्वों को सद्धम� का प्रकार्शन करते हैं। सद्धम� क�ई तक� गो#र नहीं है। तथागत सत्त्वों को तत्त्वज्ञान का सम्यग् अवबो� कराने के चिलए ही लोक में उत्पन्न हुआ करते हैं। तथागत यह महान कृत्य एक ही यान पर आधि�धिxत होकर करते हैं, वह एक यान है 'बुद्धयान' उससे अन्य कोई दूसरा और तीसरा यान नहीं है। वह बुद्धमय ही सव�ज्ञता को प्राप्त कराने वाला है। अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों के बुद्धों ने बुद्धयान को ही अपनाया है। वे बुद्धयान का ही तीन यानों (श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान और बोधि�सत्त्वयान) के रूप में षिनद«र्श करते हैं। अत: बुद्धयान ही एकमात्र यान है।

एकं षिह यानं षिद्वतीयं न षिवद्यतेतृतीयं षिह नैवास्मिस्त कदाषिप लोके।*

षिद्वतीय उपायकौर्शल्यं परिरवत� में भगवान् ने र्शारिरपुत्र के चिलए व्याकरण षिकया षिक वह अनागत काल में पद्मनाभ नाम के तथागत होंगे और सद्धम� का प्रकार्श करेंगे। र्शारिरपुत्र के बारे में व्याकरण सुनकर जब वहाँ उपस्थिस्थत 12 हज़ार श्रावकों को षिवचि#षिकत्सा उत्पन्न हुई तब उसे हटाते हुए भगवान ने तृतीय औपम्यपरिरवत� में एक उदाहरण देते हुए कहा षिक षिकसी महा�नी पुरु. के कई बच्चे हैं, वे खिखलौनों के र्शौकीन हैं। उसके घर में आग लग जाए, उसमें बच्चे धिघर जाए ंऔर षिनकलने का एक ही द्वार हो, तब षिपता बच्चों को पुकार कर कहता है- आओ बच्चों, खिखलौने ले लो, मेरे पास बहुत खिखलौने हैं, जैसे- गोरथ, अश्वरथ, मृगरथ आदिद। तब वे बच्चे खिखलौन के लोभ में बाहर आ जाते हैं। तब र्शारिरपुत्र, वह पुरु. उन सभी बच्चों को सवoत्कृC गोरथ देता है। जो अश्वरथ और मृगरथ आदिद हीन हैं, उन्हें नहीं देता। ऐसा क्यों? इसचिलए षिक वह महा�नी है और उसका को. (खजाना) भरा हुआ है। भगवान कहते हैं षिक उसी प्रकार ये सभी मेरे बच्चे हैं, मुझे #ाषिहए षिक इन सबको समान मान कर उन्हें 'महायान' ही दँू। क्या र्शारिरपुत्र, उस षिपता ने तीनों यानों को बताकर एक ही 'महायान' दिदया, इसमें क्या उनका मृ.ावाद है? र्शारिरपुत्र ने कहा नहीं भगवान तथागत महाकारुत्तिणक हैं, वह सभी सत्वों के षिपता हैं। वे दु:ख रूपी जलते हुए घर से बाहर लाने के चिलए तीनों यानों की देर्शना करते हैं, षिकन्तु अन्त में सबकों बुद्धयान की ही देर्शना देते हैं।

व्याकरणपरिरवत� नामक .x (छठवें) परिरचे्छद में श्रावकयान के अनेक स्थषिवरों के बारे में, जो महायन में प्रषिवC हो #ुके थे, व्याकरण षिकया गया है। बुद्ध कहते हैं षिक महास्थषिवर महाकाश्यप भषिवष्य में 'रस्थिश्मप्रभास' तथागत होंगे। स्थषिवर सुभूषित, 'र्शचिर्शकेतु', महाकात्यायन 'जाम्बूनदप्रभास' तथा महामौदलयायन 'तमालपत्र #न्द्रनगन्ध' नाम के तथागत होंगे। *पञ्#त्तिभकु्षर्शतव्याकरण परिरवत� में पूण� मैत्रायणी पुत्र आदिद अनेक त्तिभकु्षओं के बुद्धत्व-प्रान्तिप्त का व्याकरण षिकया गया है।

नवम परिरवत� में आयुष्मान आनन्द और राहुल आदिद दो सहस्र श्रावकों के बारे में बुद्धत्व-प्रान्तिप्त का व्याकरण है।

उस समय वहाँ महाप्रजापषित गौतमी और त्तिभक्षुणी राहुल माता यर्शो�रा आदिद परिर.द में दु:खी होकर इसचिलए बैठी थीं षिक भगवान ने हमारे बारे में बुद्धत्व का व्याकरण क्यों नहीं षिकया? भगवान् ने उनके चि#� का षिव#ार जानकर कृपापूव�क उनका भी व्याकरण षिकया।

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सद्धम�पुण्डरीक के इस संत्तिक्षप्त पया�लो#न से महायान बौद्ध-�म� का हीनयान से सम्बन्ध स्पC होता है। पाचिल-ग्रन्थों में दो प्रकार की �म� देर्शना है। एक दानकथा, र्शीलकथा आदिद उपाय �म� देर्शना हैं ता दूसरी 'सामुक्कंचिसका �म्मदेर्शना है', जिजसमें #ार आय�सत्यों की देर्शना दी जाती है। इस सद्धम�पुण्डरीक में #ार आयसत्यों की देर्शना तथा सव�ज्ञताज्ञान पय�वसायी दो देर्शनाए ंहैं। यह सव�ज्ञताज्ञान प्राप्त कराने वाली देर्शना भगवान ने र्शारिरपुत्र आदिद को जो पहले नहीं दीं, यह उनका उपायकौर्शल्य है। यह षिद्वतीय देर्शना ही परमाथ� देर्शना है। इसमें र्शारिरपुत्र आदिद महास्थषिवरों और महाप्रजापषित गौतमी आदिद स्थषिवराओं को बुद्धत्व प्रान्तिप्त का आश्वासन दिदया गया है। हीनयान में उपदिदC �म� भी बुद्ध का ही है। उसे एकान्तत: धिमथ्या नहीं कहा गया है, षिकन्तु केवल उपायसत्य है, परमाथ�सत्य तो बुद्धयान ही है।

सद्धम�पुण्डरीक में बुद्धयान एवं तथागत की मषिहमा का वण�न है, तथाषिप इस ग्रन्थ के कुछ अध्यायों में अवलोषिकतेश्वर आदिद बोधि�सत्त्वों की मषिहमा का भी पुष्कल वण�न है। अवलोषिकतेश्वर बोधि�सत्त्व करुणा की मूर्तित2 हैं। अवलोषिकतेश्वर ने यद्यषिप बोधि� की प्रान्तिप्त की है, तथाषिप जब तक संसार में एक भी सत्त्व दु:खी और बद्ध रहेगा, तब तक षिनवा�ण प्राप्त नहीं करने का उनका संकल्प है। वे षिनवा�ण में प्रवेर्श नहीं करेंगे। वे सदा बोधि�सत्व की सा�ना में षिनरत रहते हैं। इससे उनकी मषिहमा कम नहीं होती। बोधि�सत्त्व अवलोषिकतेश्वर के नाम मात्र के उच्चारण में अनेक दु:खों और आपदाओं से रक्षण की र्शचिक्त है। हम बोधि�सत्त्वों की श्रद्धा के साथ उपासना का प्रारम्भ इस ग्रन्थ में देखते हैं।

[संपादिदत करें] लधिलतविवस्तर वैपुल्यसूत्रों में यह एक अन्यतम और पषिवत्रतम महायानसूत्र माना जाता है। इसमें सम्पूण� बुद्ध#रिरत का वण�न है। बुद्ध ने पृथ्वी पर जो-जो क्रीड़ा (लचिलत) की, उनका वण�न होने के कारण इसे 'लचिलतषिवस्तर' कहते हैं।

इसे 'महाव्यूह' भी कहा जाता है। इसमें कुल 27 अध्याय हैं, जिजन्हें 'परिरवत�' कहा जाता है। षितब्बती भा.ा में इसका अनुवाद उपलब्ध है। समग्र मूल ग्रन्थ का सम्पादन डॉ॰ एस 0 लेफमान ने षिकया था।

प्रथम अध्याय में राषित्र के व्यतीत होने पर ईश्वर, महेश्वर, देवपुत्र आदिद जेतवन में प�ारे और भगवान की पादवन्दना कर कहने लगे-'भगवन्, लचिलतषिवस्तर नामक �म�पया�य का व्याकरण करें। भगवान का तुषि.तलोक में षिनवास, गभा�वक्रान्तिन्त, जन्म, कौमाय�#या�, सव� मारमण्डल का षिवध्वंसन इत्यादिद का इस गं्रथ में वण�न है। पूव� के तथागतों ने भी इस ग्रंथ का व्याकरण षिकया था।' भगवान ने देवपुत्रों की प्राथ�ना स्वीकार की। तदनन्तर अषिवदूर षिनदान अथा�त तुषि.तलोक से च्युषित से लेकर सम्यग ज्ञान की प्रान्तिप्त तक की कथा से प्रारम्भ कर समग्र बुद्ध#रिरत का वण�न सुनाने लगे।

बोधि�सत्त्व ने क्षषित्रय कुल में जन्म लेने का षिनण�य षिकया। भगवान ने बताया षिक बोधि�सत्त्व रु्शद्धोदन की मषिह.ी मायादेवी के गभ� में उत्पन्न होंगे। वही बोधि�सत्त्व

के चिलए उपयुक्त माता है। जम्बूद्वीप में कोई दूसरी स्त्री नहीं है, जो बोधि�सत्त्व के तुल्य महापुरु. का गभ� �ारण कर सके। बोधि�सत्त्व ने महानाग अथा�त कुञ्जर के रूप में गभा�वक्रान्तिन्त की।

मायादेवी पषित की आज्ञा से लुन्धिम्बनी वन गईं, जहाँ बोधि�सत्त्व का जन्म हुआ। उसी समय पृथ्वी को भेदकर महापद्म उत्पन्न हुआ। नन्द, उपनन्द आदिद नागराजाओं ने र्शीत और उष्ण जल की �ारा से बोधि�सत्त्व को स्नान कराया। बोधि�सत्त्व ने महापद्म पर बैठकर #ारों दिदर्शाओं का अवलोकन षिकया। बोधि�सत्त्व ने दिदव्य#कु्ष से समस्त, लोक�ातु को देखा और जाना षिक र्शील, समाधि� और प्रज्ञा में मेरे तुल्य कोई अन्य सत्त्व नहीं है। पूवा�त्तिभमुख हो वे सात पग #ले। जहाँ-जहाँ बोधि�सत्त्व पैर रखते थे,

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वहाँ-वहाँ कमल प्रादुभू�त हो जाता था। इसी तरह दत्तिक्षण और पत्ति�म की दिदर्शा में #ले। सातवें कदम पर सिस2ह की भांषित षिननाद षिकया और कहा षिक मैं लोक में ज्येx और शे्रx हूँ। यह मेरा अन्तिन्तम जन्म है। मैं जाषित, जरा और मरण दु:ख का अन्त करँुगा। उ�रात्तिभमुख हो बोधि�सत्त्व ने कहा षिक मैं सभी प्रात्तिणयों में अनु�र हूँ नी#े की ओर सात पग रखकर कहा षिक मार को सेना सषिहत नC करँुगा और नारकीय सत्त्वों पर महा�म�मेघ की वृधिC कर षिनरयाखिग्न को र्शान्त करँूगा। ऊपर की ओर भी सात पग रखे और अन्तरिरक्ष की ओर देखा।

सातवें परिरवत� में बुद्ध और आनन्द का संवाद है, जिजसका सारांर्श है षिक कुछ अत्तिभमानी त्तिभक्षु बोधि�सत्त्व की परिररु्शद्ध गभा�वक्रान्तिन्त पर षिवश्वास नहीं करेंगे, जिजससे उनका घोर अषिनC होगा तथा जो इस सूत्रान्त को सुनकर तथागत में श्रद्धा का उत्पाद करेंगे, अनागत बुद्ध भी उनकी अत्तिभला.ा पूण� करेंगे। जो मेरी र्शरण में आते हैं, वे मेरे धिमत्र हैं। मैं उनका कल्याण साधि�त करँूगा। इसचिलए हे आनन्द, श्रद्धा के उत्पाद के चिलए यत्न करना #ाषिहए।

बुद्ध की गभा�वक्रान्तिन्त एवं जन्म की जो कथा लचिलतषिवस्तर में धिमलती है, वह पाचिल ग्रंथों में वर्णिण2त कथा से कहीं-कहीं पर त्तिभन्न भी है। पाचिल गं्रथों में षिवर्शे.त: संयुक्त षिनकाय, दीघ� षिनकाय आदिद में यद्यषिप बुद्ध के अनेक अद्भतु �म� का वण�न है, तथाषिप वे अद्भतु �म� से समन्वागत होते हुए भी अन्य मनुष्यों के समान जरा, मरण आदिद दु:ख एवं दौम�नस्य के अ�ीन थे। *पाचिल ग्रन्थों के अनुसार बुद्ध लोको�र केवल इसी अथ� में है षिक उन्होंने मोक्ष के माग� का अन्वे.ण षिकया था तथा उनके द्वारा उपदिदC माग� का अनुसरण करने से दूसरे लोग भी षिनवा�ण और अह�प्व पद प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु महासांधिघक लोको�रवादी षिनकाय के लोग इसी अथ� में लोको�र र्शब्द का प्रयोग नहीं करते। इसीचिलए लोको�रता को लेकर उनमें वाद-षिववाद था।

आगे का लचिलतषिवस्तर का वण�न महावग्ग की कथा से बहुत कुछ धिमलता-जुलता है। जहाँ समानता है, वहाँ भी लचिलतषिवस्तर में कुछ बातें ऐसी हैं, जो अन्यत्र नहीं पाई जातीं। उदाहरणाथ� र्शाक्यों के कहने से जब र्शुद्धोदन कुमार को अपने देवकुल में ले गये तो सब प्रषितमाए ंअपने-अपने स्वरूप में आकर कुमार के पैरों पर षिगर पड़ी। इसी तरह कुमार जब चिर्शक्षा के चिलए चिलषिप र्शाला में ले जाये गये तो आ#ाय�, कुमार के तेज को सहन नहीं कर पाये और मूर्च्छिच्छ2त होकर षिगर पडे़। तब बोधि�सत्व ने आ#ाय� से कहा- आप मुझे षिकस चिलषिप की चिर्शक्षा देंगे। तब कुमार ने ब्राह्मी, खरोxी, पुष्करसारिर, अंग, बंग, मग� आदिद 64 चिलषिपयाँ षिगनाईं। आ#ाय� ने कुमार का कौर्शन देखकर उनका अत्तिभवादन षिकया।

बुद्ध के जीवन की प्र�ान घटनाए ंहैं- षिनधिम� दर्श�न, जिजनसे बुद्ध ने जरा, व्याधि�, मृत्यु एवं प्रव्रज्या का ज्ञान प्राप्त षिकया। इसके अषितरिरक्त अत्तिभषिनष्क्रमण, षिबन्धिम्बसार के समीप गमन, दुष्कर#या�, मार�.�ण, अत्तिभसंबोधि� एवं �म�#क्रप्रवत�न आदिद घटनाए ंहैं। जहाँ तक इन घटनाओं का सम्बन्ध है, लचिलतषिवस्तर का वण�न बहुत त्तिभन्न नहीं है। षिकन्तु लचिलतषिवस्तर में कुछ अषितर्शयताए ँअवश्य हैं। 27 वें परिरवत� में ग्रन्थ के माहात्म्य का वण�न है।

यह षिनत्ति�त है षिक जिजन चिर्शस्थिल्पयों ने जावा में स्थिस्थत बोरोबुदूर के मजिन्दर को प्रषितमाओं से अलंकृत षिकया था, वे लचिलतषिवस्तर के षिकसी न षिकसी पाठ से अवश्य परिरचि#त थे। चिर्शल्प में बुद्ध का #रिरत इस प्रकार उत्कीण� है, मानों चिर्शल्पी लचिलतषिवस्तर को हाथ में लेकर इस काय� में प्रवृ� हुए थे। जिजन चिर्शस्थिल्पयों ने उ�र भारत में स्तूप आदिद कलात्मक वस्तुओं को बुद्ध#रिरत के दृश्यों से अलंकृत षिकया था, वे भी लचिलतषिवस्तर में वर्णिण2त बुद्ध कथा से परिरचि#त थे।

[संपादिदत करें] सुवण�प्रभास

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महायान सूत्र साषिहत्य में सुवण�प्रभास की महत्त्वपूण� सूत्रों में गणना की जाती है। #ीन और जापान में इसके प्रषित अषितर्शय श्रद्धा है। फलस्वरूप �म�रक्ष ने 412-426 ईस्वी में, परमाथ� ने 548 ईस्वी में, यर्शोगुप्त ने 561-577 ईस्वी में, पाओक्की ने 597 ईस्वी में तथा इस्थित्संग ने 703 ईस्वी में इसका #ीनी भा.ा में अनुवाद षिकया।

इसी तरह जापानी भा.ा में भी तीन या #ार अनुवाद हुए। षितब्बती भा.ा में भी इसका अनुवाद उपलब्ध है। साथ ही उइगर (Uigur) और खोतन में भी इसका अनुवाद हुआ। इन अनुवादों से यह चिसद्ध होता है षिक इस सूत्र का आदर एवं लोकषिप्रयता व्यापक क्षेत्र में थी। इस सूत्र में दर्श�न, नीषित, तन्त्र एवं आ#ार का उपाख्यानों द्वारा सुस्पC षिनरूपण षिकया गया है। इस तरह बौद्धों के महायान चिसद्धान्तों का षिवस्तृत प्रषितपादन है। इसमें कुल 21 परिरवत� हैं।

प्रथम परिरवत� में सुवण�प्रभास के श्रवण का माहात्म्य वर्णिण2त है। षिद्वतीय परिरवत� में जिजस षिव.य की आलो#ना की गई है, वह अत्यन्त महत्वपूण� है। बुद्ध ने दी.ा�यु होने

के दो कारण बताए हैं। प्रथम प्रात्तिणव� से षिवरत होना तथा षिद्वतीय प्रात्तिणयों के अनुकूल भोजन प्रदान करना। बोधि�सत्त्व रुचि#रकेतु को सन्देह हुआ षिक भगवान ने दीघा�युष्कता के दोनों सा�नों का आ#रण षिकया, षिफर भी अस्सी व.� में ही उनकी आयु समाप्त हो गई। अत: उनके व#न का कोई प्रामाण्य नहीं है।

इस र्शंका का समा�ान करने के चिलए #ार बुद्ध अक्षोभ्य, रत्नकेतु, अधिमतायु और दुन्दुत्तिभस्वर की कथा की तथा चिलस्थिच्छषिव कुमार ब्राह्मण कोस्थिण्डन्य की कथा की अवतारणा की गई। आर्शय यह है षिक बुद्ध का र्शरीर पार्शिथ2व नहीं है, अत: उसमें स.�प (सरसों) के बराबर भी �ातु नहीं है तथा उनका र्शरीर �म�मय एवं षिनत्य है। अत: पूवoक्त र्शंका का कोई अवसर नहीं है।

तथा षिह: यदा र्शर्शषिव.ाणेन षिन:श्रेणी सुकृता भवेत्।स्वग�स्यारोहणाथा�य तदा �ातुभ�षिवष्यषित॥अनस्थिस्थरुधि�रे काये कुतो �ातुभ�षिवष्यषित।*अषिप #, न बुद्ध: परिरषिनवा�षित न �म�: परिरहीयते। सत्त्वानां परिरपाकाय परिरषिनवा�णं षिनदश्य�ते॥अचि#न्त्यो भगवान् बुद्धो षिनत्यकायस्तथागत:।देर्शेषित षिवषिव�ान वू्यहान् सत्त्वानां षिहतकारणात्।*

तृतीय परिरवत� में रुचि#रकेतु बोधि�सत्त्व स्वप्न में एक ब्राह्मण को दुन्दुत्तिभ बजाते देखता है और दुन्दुत्तिभ से �म� गाथाए ंषिनकल रही हैं। जागने पर भी बोधि�सत्त्व को गाथाए ंयाद रहती हैं और वह उन्हें भगवान के सामने षिनवेदिदत करता है।

#तुथ� परिरवत� में महायान के मौचिलक चिसद्धान्तों का गाथाओं द्वारा उपपादन षिकया गया है। पञ्#म परिरवत� में बुद्ध के स्तव हैं, जिजनका सामूषिहक नाम कमलाकर है। इनमें बुद्ध की मषिहमा का

वण�न है। .x परिरवत� में वस्तुमात्र की र्शून्यता के परिरर्शीलन का षिनद«र्श है। सप्तम में सुवण�प्रभास के माहात्म्य का वण�न है। अCम परिरवत� में सरस्वती देवी बुद्ध के सम्मुख आषिवभू�त हुई और सुवण�प्रभास में प्रषितपादिदत �म� का

व्याख्यान करने वाले �म�भाणक को बुद्ध की प्रषितभा से सम्पन्न करने की प्रषितज्ञा की। *नवम परिरवत� में

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महादेवी बुद्ध के सम्मुख प्रकट हुईं और घो.णा की षिक मैं व्यावहारिरक और आध्यान्धित्मक सम्पत्ति� से �म�भाणक को सम्पन्न करँूगी।

दर्शम परिरवत� में षिवत्तिभन्न तथागतों एवं बोधि�सत्त्वों के नामों का संकीत�न षिकया गया है। एकादर्श परिरवत� में दृढ़ा नामक पृथ्वी देवी भगवान के सम्मख उपस्थिस्थत हुईं और कहा षिक �म�भाणक

के चिलए जो उपवेर्शन-पीठ हे, वह यथासम्भव सुखप्रदायक होगा। साथ ही आग्रह षिकया षिक �म�भाणक के �मा�मृत से अपने को तृप्त करँूगी।

द्वादर्श परिरवत� में यक्ष सेनापषित अपने अट्ठाइस सेनापषितयों के साथ भगवान के पास आये और सुवण�प्रभास के प्र#ार के चिलए अपने सहयोग का व#न दिदया। साथ ही �म�भाणकों की रक्षा का आश्वासन भी दिदया।

त्रयोदर्श परिरवत� में राजर्शास्त्र सम्बन्धी षिव.यों का प्रषितपादन है। #तुद�र्श परिरवत� में सुसम्भव नामक राजा का वृ�ान्त है। पं#दर्श परिरवत� में यक्षों और अन्य देवताओं ने सुवण�प्रभास के श्रोताओं की रक्षा की प्रषितज्ञा की। .ोडर्श परिरवत� में भगवान ने दर्श सहस्र देवपुत्रों के बुद्धत्व लाभ की भषिवष्यवाणी की। सप्तदर्श परिरवत� में व्याधि�यों के उपर्शमन करने का षिववरण दिदया गया है। अCादर्श परिरवत� में जलवाहन द्वारा मत्स्यों को बौद्ध�म� में प्रवेर्श कराने के ##ा� है। उन्नीसवें परिरवत� में भगवान ने बोधि�सत्त्व अवस्था में एक व्याघ्री की भूख धिमटाने के चिलए अपने र्शरीर

का परिरत्याग षिकया था, उसकी ##ा� है। बीसवें परिरवत� में सुवण�रत्नाकरछत्रकूट नामक तथागत की बोधि�सत्त्वों द्वारा की गई गाथामय स्तुषित

प्रषितपादिदत है। इक्कीसवें परिरवत� में बोधि�सत्त्वसमुच्चया नामक कुल-देवता द्वारा व्यक्त सव�र्शून्यताषिव.यक गाथाए ं

उस्थिल्लखिखत हैं।

[संपादिदत करें] तथागतगुह्यक प्रारस्मिम्भक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत धिमलते-जुलते हैं। उदाहरणाथ� मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के

अन्तग�त 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रचिसद्ध है। षिवद्वानों की राय है षिक तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अCादर्शपटल तीनों एक ही हैं। अथा�त ग्रन्थ

में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण धिमलते हैं, वे गुह्यसमाज से त्तिभन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अथा�त त्तिभन्न-त्तिभन्न हैं।

'अCादर्श' इस नाम से यह प्रकट होता है षिक इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिरचे्छद हैं। तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधि�सत्त्व प्रत्तिण�ान करता है षिक श्मर्शान में स्थिस्थत उसके मृत र्शरीर का

षितय�ग योषिन में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिरभोग की वजह से वे स्वग� से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिरषिनवा�ण का भी हेतु हो।[1]

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पुर�, तदनुसार बोधि�सत्त्व �म�काय से प्रभाषिवत होता है, इसचिलए वह अपने दर्श�न, श्रवण और स्पर्श� से भी सत्त्वों का षिहत करता है।[2]

उसी सूत्र में अन्यत्र उस्थिल्लखिखत है षिक जैसे र्शान्तमषित, जो वृक्ष मूल से उखड़ गया हो, उसकी सभी र्शाखाए ंडाचिलयां और प�े सूख जाते हैं, उसी प्रकार सत्कायदृधिC का नार्श हो जाने से बोधि�सत्त्व के सभी क्लेर्श र्शान्त हो जाते हैं।[3]

अषिप #, महायान में प्रस्थिस्थत बोधि�सत्त्व के ये #ार �म� षिवरे्श. गमन के और अपरिरहात्तिण के हेतु होते हैं। कौन #ार? श्रद्धा, गौरव, षिनमा�नता (अनहंकार) एवं वीय�।[4]

पुन�, बोधि�स�त्त्व सव�दा अप्रमादी होता है और अप्रमाद का अथ� है 'इजिन्द्रयसंवर'। वह न षिनधिम� का ग्रहण करता है और न अनुव्यजंन का। वह सभी �म� के आस्वाद, आदीनव और षिन:सरण को ठीक-ठीक जानता है।[5]

अप्रमाद अपने चि#� का दमन करता है, दूसरों के चि#�ों की रक्षा, क्लेर्श में अरषित एवं �म� में रषित है।[6]

योषिनर्श: प्रयुक्त बोधि�सत्त्व 'जो है' उसे अस्मिस्त के रूप में और 'जो नहीं है' उसे नास्मिस्त के रूप में जानता है।[7]

तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार जिजस राषित्र में तथागत ने अत्तिभसम्बोधि� प्राप्त की तथा जिजस राषित्र में परिरषिनवा�ण प्राप्त करेंगे, इस बी# में तथागत ने एक भी अक्षर न कहा और न कहेंगे। प्रश्न है षिक तब समस्त सुर, असुर, मनुष्य, षिकन्नर, चिसद्ध, षिवद्या�र, नाग आदिद षिवनेयजनों को उन्होंने कैसे षिवषिव� प्रकार की देर्शना की? मात्र एक क्षण की ध्वषिन के उच्चारण से वह षिवषिव�जनों के मानचिसक अन्धकार का नार्श करने वाली, उनके बुजिद्धरूपी कमल को षिवकचिसत करने वाली, जरा, मरण आदिद रूपी नदी और समुद्र का र्शो.ण करने वाली तथा प्रलयकालानल को लस्थिज्जत करने वाली र्शरत्काचिलक अरुण-प्रभा के समान थी। वस्तुत: जैसे तूरी नामक वाद्ययन्त्र वायु के झोकों से बजती है, वहां कोई बजाने वाला नहीं होता, षिफर भी र्शब्द षिनकलते हैं, वैसे ही सत्त्वों की वासना से पे्ररिरत होकर बुद्ध की वाणी भी षिन:सृत होती है, जबषिक उनमें षिकसी भी प्रकार की कल्पना नहीं होती।[8]

नाना आर्शय वाले सत्त्व समझते हैं षिक तथागत के मुख से वाणी षिनकल रही है। उन्हें ऐसा लगता है, मानों भगवान हमें �म� की देर्शना कर रहे हैं और हम देर्शना सुन रहे हैं, षिकन्तु तथागत में कोई षिवकल्प नहीं होता, क्योंषिक उन्होंने समस्त षिवकल्प जालों का प्रहाण कर दिदया है।[9]

इस प्रकार हम देखते हैं षिक आ#ाय� र्शान्तिन्तदेव के चिर्शक्षासमुच्चय और #न्द्रकीर्तित2 की प्रसन्नपदा मूल माध्यधिमक कारिरका टीका में अनेक स्थलों पर तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण उपलब्ध हैं, जिजनका हमने भी यथासम्भव पाददिटप्पणी में उल्लेख षिकया है। यदिद ये उद्धरण प्रकाचिर्शत वत�मान गुह्यसमाज में उपलब्ध नहीं होते है- तो समझा जाना #ाषिहए षिक तथागतगुह्यसूत्र और गुह्यसमाज अत्तिभन्न नहीं है, जैसे षिक कुछ षिवद्वानों की �ारणा है। आ#ाय� र्शान्तिन्तदेव और #न्द्रकीर्तित2 के काल में ये दोनों अवश्य त्तिभन्न-त्तिभन्न थे।

[संपादिदत करें] दर्शभूमीश्वर गण्डव्यूह की भाँषित यह सूत्र भी अवतंसक का एक भाग माना जाता है। इसमें बोधि�सत्त्व की दस

आय�भूधिमयों का षिवस्तृत वण�न है, जिजन भूधिमयों पर क्रमर्श: अधि�रोहण करते हुए बुद्धत्व अवस्था तक सा�क पहँु#ता है। 'महावस्तु' में इस चिसद्धान्त का पूव�रूप उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में उक्त चिसद्धान्त का परिरपाक हुआ है।

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महायान में इस सूत्र का अत्युच्च स्थान है। इसे दर्शभूधिमक, दर्शभूमीश्वर एवं दर्शभूमक नाम से भी जाना जाता है।

आय� असंग ने 'दर्शभूमक' र्शब्द का ही प्रयोग षिकया है। इसकी लोकषिप्रयता एवं प्रामात्तिणकता में यह प्रमाण है षिक अत्यन्त प्रा#ीनकाल में ही इसके षितब्बती, #ीनी, जापानी एव मंगोचिलयन अनुवाद हो गये थे।

श्री �म�रक्ष ने इसका #ीनी अनुवाद ई. सन 297 में कर दिदया था। इसके प्रषितपादन की रै्शली में लम्बे-लम्बे समस्त पद एवं रूपकों की भरमार है।

धिमचिथला षिवद्यापीठ ने डॉ॰ जोनेस राठर के संस्करण के आ�ार पर इसका पुन: संस्करण षिकया है। ज्ञात है षिक महायान में दस आय�भूधिमयाँ मानी जाती हैं, यथा- प्रमुदिदता, षिवमला, प्रभाकरी, अर्शि#2ष्मती,

सुदज�या, अत्तिभमुखी, दूरङ्गमा, अ#ला, सा�ुमती एवं �म�मे�ा। आया�वस्था से पूव� जो पृथग्जन भूधिम होती है, उसे 'अधि�मुचिक्त#या�भूधिम' कहते हैं। महायान में पाँ# माग�

होते हैं- सम्भारमाग�, प्रयोगमाग�, दर्श�नमाग�, भावनामाग� एवं अर्शैक्षमाग�। दर्श�नमाग� प्राप्त होने पर बोधि�सत्त्व 'आय�' कहलाने लगता है। उपयु�क्त दस भूधिमयाँ आय� की भूधिमयाँ हैं। दर्श�न माग� की प्रान्तिप्त से पूव� बोधि�सत्व पृथग्जन होता है। सम्भारमाग� एवं प्रयोगमाग� पृथग्जनमाग� हैं और उनकी भूधिम अधि�मुचिक्त#या�भूधिम कहलाती है।

महायान गोत्रीय व्यचिक्त बोधि�चि#� का उत्पाद कर महायान में प्रवेर्श करता है। पृथग्जन अवस्था में सम्भार माग� एवं प्रयोगमाग� का अभ्यास कर दर्श�न माग� प्राप्त करते ही आय� होकर प्रथम प्रमुदिदता भूधिम को प्राप्त करता है।

पारधिमताए ंभी दस होती हैं, यथा-दान, र्शील, क्षान्तिन्त, वीय�, ध्यान, प्रज्ञा, उपायकौर्शल, प्रत्तिण�ान, बल एवं ज्ञान पारधिमता। बोधि�सत्त्व प्रत्येक भूधिम में सामान्यत: इन सभी पारधिमताओं का अभ्यास करता है, षिकन्तु प्रत्येक भूधिम में षिकसी एक पारधिमता का प्रा�ान्य हुआ करता है। ग्रन्थ में इन भूधिमयों के वैचिर्शष्ट्य का षिवस्तृत प्रषितपादन षिकया गया है-

प्रमुदिदता

संबोधि� को तथा सत्त्वषिहत की चिसजिद्ध को आसन्न देखकर इस भूधिम में प्रकृC (तीव्र) मोद (ह.�) उत्पन्न होता है, अत: इसे 'प्रमुदिदता' भूधिम कहते हैं। इस अवस्था में बोधि�सत्त्व पां# भयों से मुक्त हो जाता है, यथा- जीषिवकाभय, षिनन्दभय, मृत्युभय, दुग�षितभय एवं परिर.दर््शारद्य (लज्जा का) भय। जो बोधि�सत्त्व प्रमुदिदता भूधिम में अधि�धिxत हो जाता है, वह जम्बूद्वीप पर आधि�पत्य करने में समथ� हो जाता है। इस भूधिम में बोधि�सत्त्व सामान्यत: दान, षिप्रयव#न, परषिहतसम्पादन (अथ�#या�) एवं समानाथ�ता (सव��म�समता)- इन कृत्यों का सम्पादन करता है। षिवर्शे.त: इस भूधिम में उसकी दानपारधिमता की पूर्तित2 होती है।

विवमला

दौ:र्शील्य एवं आभोग आदिद सभी मलो से व्यपगत (रषिहत) होने के कारण यह भूधिम 'षिवमला' कही जाती है। इस भूधिम में बोधि�सत्त्व र्शील में प्रषितधिxत होकर दस प्रकार के कुर्शलकमo का सम्पादन करता है। इस भूधिम में #ार संग्रह वस्तुओं[10] में षिप्रयवादिदता एवं र्शीलपारधिमता का प्रा�ान्य होता है।

प्रभाकरी

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षिवचिर्शC (महान) �म� का अवभास कराने के कारण यह भूधिम 'प्रभाकरी' कहलाती है। इस अवस्था में बोधि�सत्त्व सभी संस्कार �म� को अषिनत्य, दु:ख, अनात्म एवं र्शून्य देखता है। सभी वस्तुए ंउत्पन्न होकर षिवनC हो जाती हैं। वे अतीत अवस्था में संक्रान्त नहीं होतीं, भषिवष्य में कहीं जाकर स्थिस्थत नहीं होतीं तथा वत�मान में भी कहीं उनका अवस्थान नहीं होता। र्शरीर दु:खस्कन्धात्मक हैं- ऐसा बोधि�सत्त्व अव�ारण करता है। उसमें र्शान्तिन्त, र्शम, औदाय� एवं षिप्रयवादिदता आदिद गुणों का उत्क.� होता है। इस भूधिम में अवस्थिस्थत बोधि�सत्त्व इन्द्र के समान बन जाते हैं। इस भूधिम में सत्त्वषिहत #या� बलवती होती है और र्शान्तिन्तपराधिमता का आधि�क्य होता है तथा बोधि�सत्व दूसरों में �म� का अवभास करता है।

अर्चि$oष्मती

बोधि�पात्तिक्षक प्रज्ञा इस भूधिम में क्लेर्शावरण एवं ज्ञेयावरण का दहन करती है। बोधि�पात्तिक्षक �म� अर्शि#2.् (ज्वाला) के समान होते हैं। फलत: बोधि�पात्तिक्षक �म� और प्रज्ञा से युक्त होने के कारण यह भूधिम 'अर्शि#2ष्मती' कहलाती है। बोधि�सत्त्व इस भूधिम में दस प्रकार के �मा�लोक के साथ अधि�रूढ होता है। बोधि�पात्तिक्षक �म� सैंतीस होते है।, यथा-#ार स्मृत्युपस्थान, #ार प्र�ान, #ार ऋजिद्धपाद, पाँ# इजिन्द्रय, पाँ# बल, सात बोध्यङ्य और आठ आय�माग� (आय�अCाषिङ्गक माग�) बोधि�सत्त्व इन बोधि�पात्तिक्षक �म� का इस भूधिम में षिवर्शे. लाभ करता है। अन्य पारिरमताओं की अपेक्षा इस भूधिम में वीय�पारधिमता की प्र�ानता होती है तथा संग्रह वस्तुओं में समानाथ�ता अधि�क उत्क.� को प्राप्त होती है।

सुदुज�या

बोधि�सत्त्व इस भूधिम में सत्त्वों का परिरपाक और अपनी चि#� की षिवर्शे. रूप से रक्षा करता है। ये दोनों काय� अत्यन्त दुष्कर हैं। इन पर जय प्राप्त करने के कारण यह भूधिम 'सुदुज�या' कहलाती है। बोधि�सत्त्व इस भूधिम में दस प्रकार की चि#�षिवरु्शजिद्धयों को प्राप्त करता है तथा #तुर्तिव2� आय�सत्व के यथाथ�ज्ञान का लाभ करता है। इस स्थिस्थषित में बोधि�सत्त्व को यह उपलस्मिब्ध होती है षिक समू्पण� षिवश्व रू्शन्य है। सभी प्रात्तिणयों के प्रषित उसमें महाकरुणा का प्रादुभा�व होता है तथा महामैत्री का आलोक उत्पन्न होता है। वह दान, षिप्रयवादिदता एवं �मoपदेर्श आदिद के द्वारा संसार में कल्याण के माग� का षिनद«र्श करता है। इस भूधिम में अन्य पारधिमताओं की अपेक्षा ध्यानपारधिमता की प्र�ानता होती है।

अणिभमुखी

इस भूधिम में प्रज्ञा का प्रा�ान्य होता है। प्रज्ञापारधिमता की वजह से संसार और षिनवा�ण दोनों में प्रषितधिxत नहीं होने के कारण यह भूधिम संसार और षिनवा�ण दोनों के अत्तिभमुख होती है। इसचिलए 'अत्तिभमुखी' कहलाती है। इस भूधिम में बोधि�सत्व बोध्यङ्गों की षिनष्पत्ति� का षिवर्शे. प्रयास करते हैं। इस भूधिम में प्रज्ञापारधिमता अन्य पारधिमताओं की अपेक्षा अधि�क प्र�ान होती है।

दूरङ्गमा

संबोधि� को प्राप्त कराने वाले एकायन माग� से अन्तिन्वत होने के कारण यह भूधिम उपाय और प्रज्ञा के के्षत्र में दूर तक प्रषिवC है, क्योंषिक बोधि�सत्त्व अभ्यास की सीमा को पार कर गया है, इसचिलए यह भूधिम 'दूरङ्गमा' कहलाती है। इस अवस्था में बोधि�सत्त्व रू्शन्यता, अषिनधिम� और अप्रत्तिणषिहत इन षित्रषिवधि� षिवमोक्ष या समाधि�यों का लाभ करता है। इस भूधिम में अन्य पारधिमताओं की अपेक्षा 'उपायकौर्शल पारधिमता' अधि�क बलवती होती है।

अ$ला

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नाम से ही स्पC है षिक इस भूधिम पर अधि�रूढ होने पर बोधि�सत्त्व की परावृत्ति� (पीछे लौटने) की सम्भावना नहीं रहती। इस भूधिम में वह अनुत्पत्ति�क �म�क्षान्तिन्त से समन्तिन्वत होता है। षिनधिम�ाभोगसंज्ञा और अषिनधिम�ाभोगसंज्ञा इन दोनों संज्ञाओं से षिव#चिलत नहीं होने के कारण यह भूधिम 'अ#ला' कहलाती है। इस भूधिम का लाभ करने पर बोधि�सत्त्व षिनवा�ण की भी इच्छा नहीं करते, क्योंषिक ऐसा करने पर सभी दु:खी प्रात्तिणयों का कल्याण करने की उनकी जो प्रषितज्ञा है, उसके भङ्ग होने की आंर्शका होती है। वे लोक में ही अवस्थान करते हैं। इनका पूव� प्रत्तिण�ान इस अवस्था में बलवान् होता है। जो बोधि�सत्त्व इस भूधिम में अवस्थान करते हैं, उनमें आयुव�चिर्शता, #ेतोवचिर्शता, कम�वचिर्शता आदिद दर्श वचिर्शताए ंतथा अर्शयबल, अध्यार्शय बल, महाकरुणा आदिद दर्श बल सम्पन्न होते हैं। इस भूधिम में अन्य पारधिमताओं की अपेक्षा 'प्रत्तिण�ान पारधिमता' का आधि�क्य रहता है।

सा�ुमती

#ार प्रषितसंषिवद ्(षिवरे्श. ज्ञान) होती हैं, यथा- �म�प्रषितसंषिवद ्अथ�प्रषितसंषिवद,् षिनरुचिक्तप्रषितसंषिवद ्एवं प्रषितभानप्रषितसंषिवद।् इस भूधिम में बोधि�सत्व इन #ारों प्रषितसंषिवद ्में प्रवीण (=सा�ु अथा�त कम�ण्य) हो जाता है, इसचिलए यह भूधिम 'सा�ुमती' कहलाती है। �म�प्रषितसंषिवद ्के द्वारा वह �म� के स्वलक्षण को जानता है। अथ�प्रषितसंषिवद ्के द्वारा �म� के षिवभाग को जानता है। षिनरुचिक्तप्रषितसंषिवद ्के द्वारा �म� को अषिवभक्त देर्शना को जानता है तथा प्रषितभानप्रषितसंषिवद ्के द्वारा �म� के अनुप्रबन्ध अथा�त् षिनरवस्थिच्छन्नता को जानता है। इस अवस्थ् में बोधि�सत्त्व कुर्शल और अकुर्शलों को षिनष्पत्ति� के प्रकार को ठीक-ठीक जान लेता है। इस भूधिम में पारधिमताओं में 'बल पारधिमता' का प्रा�ान्य होता है।

�म�मेघा

�म� रूपी आकार्श षिवषिव� समाधि� मुख और षिवषिव� �ारणीमुख रूपी मेघों से इस भूधिम में व्याप्त हो जाता है, अत: यह भूधिम '�म�मेघा' कहलाती है। यह भूधिम अत्तिभ.ेक भूधिम आदिद नामों से भी परिरचि#त है। इस भूधिम में बोधि�सत्त्व की 'सव�ज्ञानात्तिभ.ेक समाधि�' षिनष्पन्न होती है। बोधि�स�व जब इस समाधि� का लाभ करते हैं तब वे 'महारत्नराजपद्म' नामक आसन पर उपषिवC दिदखलाई पड़ते हैं। वे अज्ञान से उत्पन्न क्लेर्श रूपी अखिग्न का �म�मेघ के वण�न से उपर्शमन करते है। अथा�त् क्लेर्शरूपी अखिग्न को बुझा देते हैं, इसचिलए इस भूधिम का नाम '�म�मेघा' है। इस भूधिम में उनकी 'ज्ञानपारधिमता' अन्य पारधिमताओं की अपेक्षा प्रा�ान्य का लाभ करती है।

[संपादिदत करें] प्रज्ञापारमिमतासू1 प्रज्ञापारधिमतासूत्र प्रमुखत: भगवान बुद्ध द्वारा गृध्रकूट पव�त पर षिद्वतीय �म�#क्र के काल में उपदिदC

देर्शनाए ंहैं। कालान्तर में ये सूत्र जम्बूद्वीप में षिवलुप्त हो गये। आ#ाय� नागाजु�न ने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त षिकया और वे वहाँ से पुन: जम्बूद्वीप लाए।

प्रज्ञापारधिमतासूत्रों के दो पक्ष हैं।

1. एक दर्श�नपक्ष है, जिजसे प्रज्ञापक्ष या रू्शन्यतापक्ष भी कहा जाता है। 2. दूसरा है सा�नापक्ष, जिजसे उपायपक्ष या करुणापक्ष भी कहा जाता है।

नागाजु�न ने प्रज्ञापारधिमतासूत्रों के दर्श�न पक्ष को अपनी कृषितयों द्वारा प्रकाचिर्शत षिकया। प्रज्ञापारधिमतासूत्रों के आ�ार पर उन्होंने प्रमुखत: मूलमाध्यधिमककारिरका आदिद ग्रन्थों में र्शून्यता-दर्श�न को युचिक्तयों द्वारा प्रषितxाषिपत षिकया, जिजसे आगे #लकर उनके अनुयाधिययों ने और अधि�क षिवकचिसत षिकया। प्रज्ञापारधिमतासूत्रों के सा�नापक्ष को आय� असंग ने अपनी कृषितयों द्वारा प्रकाचिर्शत षिकया। तदनन्तर उनके अनुयाधिययों ने उसे और अधि�क पल्लषिवत एवं पुन्धिष्पत षिकया। र्शून्यता, अनुत्पाद,

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अषिनरो� आदिद पया�यवा#ी र्शब्द हैं। सभी �म� की षिन:स्वभावता प्रज्ञापारधिमतासूत्रों का मुख्य प्रषितपाद्य है। प्रज्ञापारधिमतासूत्रों की संख्या अत्यधि�क है। र्शतसाहत्तिस्रका (एक लाख श्लोकात्मक) प्रज्ञापारधिमता से लेकर एकाक्षरी प्रज्ञापारधिमता तक ये सूत्र पाये जाते हैं। महायानी वैपुल्यसूत्रों के दो प्रकार हैं। एक प्रकार के वे सूत्र हैं, जिजनमें बुद्ध, बोधि�सत्त्व, बुद्धयान आदिद की मह�ा प्रदर्शिर्श2त की गई है। लचिलतषिवस्तर, सद्धम�पुण्डरीक आदिद सूत्र इसी प्रकार के हैं। दूसरे प्रकार में वे सूत्र आते हैं, जिजनमें रू्शन्यता और प्रज्ञा की मह�ा प्रदर्शिर्श2त है, ये सूत्र प्रज्ञापारधिमतासूत्र ही हैं। रू्शन्यता और महाकरुणा- इन दोनों का समन्वय प्रज्ञापारधिमतासूत्रों में दृधिCगो#र होता है।

महायान साषिहत्य में प्रज्ञापारधिमतासूत्रों का अत्यधि�क महत्त्व है। अन्य सूत्रों में अधि�कतर बुद्ध और बोधि�सत्त्वों का संवाद दिदखलाई देता है, जबषिक प्रज्ञापारधिमतासूत्रों में बुद्ध सुभूषित नामक स्थषिवर से प्रश्न करते हैं। सुभूषित और र्शारिरपुत्र इन दो स्थषिवरों का रू्शन्यता के बारे में संवाद ही तास्मित्त्वक एवं गम्भीर है। इन सूत्रों की प्रा#ीनता इसी से प्रमात्तिणत है षिक ई. सन 179 में प्रज्ञापारधिमतासूत्र का #ीनी भा.ा में रूपान्तर हो गया था। प्राय: सभी बौद्ध �मा�नुयायी देर्शों में इन सूत्रों का अत्यधि�क समादर है।

नेपाली परम्परा के अनुसार मूल प्रज्ञापारधिमता महायान सूत्र सवा लाख श्लोकात्मक है। पुन: एक लक्षात्मक, पच्चीस हज़ार, दस हज़ार और आठ हज़ार श्लोकात्मक प्रज्ञापारधिमतासूत्र भी प्रकाचिर्शत हैं। #ीनी और षितब्बती परम्परा में इसके और भी अनेक प्रकार हैं।

संस्कृत में षिनम्नचिलखिखत सूत्र अंर्शत: या पूण�रूपेण उपलब्ध होते हैं-

1. र्शतसाहत्तिस्रकाप्रज्ञापारधिमता, 2. पञ्#विव2र्शषितसाहन्धिस्त्रका प्रज्ञापारधिमता, 3. अCसाहन्धिस्त्रकाप्रज्ञापारधिमता, 4. सा��षिद्वसाहन्धिस्त्रका प्रज्ञापारधिमता, 5. सप्तर्शषितका प्रज्ञापारधिमता, 6. वज्रचे्छदिदका (षित्रर्शषितका) प्रज्ञापारधिमता, 7. अल्पाक्षरा प्रज्ञापारधिमता, 8. भगवती प्रज्ञापारधिमतासूत्र आदिद।

प्रज्ञापारधिमतासूत्रों को जननी सूत्र भी कहते हैं। प्रज्ञापारधिमता के षिबना बुद्धत्व का लाभ सम्भव नहीं है, अत: यह बुद्धत्व को उत्पन्न करने वाली है। इसी अथ� में इसे जननी, बुद्धमाता आदिद र्शब्दों से भी अत्तिभषिहत करते हैं। इन्हें 'भगवती' भी कहते हैं, जो इनके प्रषित अत्यधि�क आदर का सू#क है। जननी सूत्रों का तीन में षिवभाजन भी षिकया जाता है, यथा- षिवस्तृत, मध्यम एवं संत्तिक्षप्त जिजनजननीसूत्र।

र्शतसाहन्धिस्त्रका प्रज्ञापारधिमता षिवस्तृत जिजनजननीसूत्र है, जिजसका उपदेर्श भगवान ने मृदु-इजिन्द्रय और षिवस्तृतरुचि# षिवनेयजनों के चिलए षिकया है। मध्येजिन्द्रय और मध्यरुचि# षिवनेयजनों के चिलए मध्यम जिजनजननी अथा�त पञ्#विव2र्शषित साहन्धिस्त्रका प्रज्ञापारधिमता का तथा तीक्ष्णेजिन्द्रय और संत्तिक्षप्त रुचि# षिवनेयजनों के चिलए संत्तिक्षप्त जिजनजननी अथा�त अCसाहन्धिस्त्रका प्रज्ञापारधिमता का भगवान ने उपदेर्श षिकया है। इन सभी में अCसाहन्धिस्त्रका पूण�त: उपलब्ध है, अत: उसका यहाँ षिनरुपण षिकया जा रहा है।

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[संपादिदत करें] अवदान साविहत्य इस र्शब्द की व्युत्पत्ति� अज्ञात है। पाचिल में इसके समकक्ष 'अपदान' र्शब्द है। सम्भवत: इसका

प्रारस्मिम्भक अथ� असा�ारण या अद्भतु काय� है। अवदान कथाए ंकम�-प्राबल्य को चिसद्ध करती हैं। आजकल अवदान का अथ� कथामात्र रह गया है। महावस्तु को भी 'अवदान' कहते हैं। अवदान कथाओं का प्रा#ीनतम संग्रह 'अवदानर्शतक' है। तीसरी र्शताब्दी में इसका #ीनी अनुवाद हो गया था। प्रत्येक कथा के अन्त में यह षिनष्क.� दिदया जाता है

षिक र्शुक्ल कम� का र्शुक्ल फल, कृष्ण कम� का कृष्ण फल तथा व्याधिमश्र का व्याधिमश्र फल होता है। इनमें से अनेक में अतीत जन्म की कथा है। इसे हम जातक भी कह सकते हैं। क्योंषिक जातक में बोधि�सत्त्व के जन्म की कथा दी गयी है। षिकन्तु ऐसे भी अवदान हैं, जिजनमें अतीत की कथा नहीं पाई जाती। कुछ अवदान 'व्याकरण' के रूप में हैं अथा�त इनमें प्रत्युत्पन्न कथा का वण�न करके अनागत काल का व्याकरण षिकया गया है। षितब्बती भा.ा में भी अवदान साषिहत्य अनूदिदत हुआ है।

[संपादिदत करें] अवदानर्शतक यह हीनयान का ग्रन्थ है- ऐसी मान्यता है। इसके #ीनी अनुवादकों का ही नहीं, अषिपतु इसके अन्तरंग

प्रमाण भी हैं। सवा�स्मिस्तवादी आगम के परिरषिनवा�णसूत्र तथा अन्य सूत्रों के उद्धरण अवदानर्शतक में पाये जाते हैं।

यद्यषिप इसकी कथाओं में बुद्ध पूजा की प्र�ानता है, तथाषिप बोधि�सत्त्व का उल्लेख नहीं धिमलता। अवदानर्शतक की कई कथाए ंअवदान के अन्य संग्रहों में और कुछ पाचिल-अपदानों में भी आती हैं।

[संपादिदत करें] दिदव्यावदान इस बौजिद्धक ग्रन्थ में पुष्यधिमत्र को मौय� वंर्श का अन्तिन्तम र्शासक बतलाया गया है । इसमें महायान एवं हीनयान दोनों के अंर्श पाए जाते हैं। षिवश्वास है षिक इसकी सामग्री बहुत कुछ मूल

सवा�स्मिस्तवादी षिवनय से प्राप्त हुई है। दिदव्यावदान में दीघा�गम, उदान, स्थषिवरगाथा आदिद के उद्धरण प्राय: धिमलते हैं। कहीं-कहीं बौद्ध त्तिभक्षुओं की #या�ओं के षिनयम भी दिदये गये हैं, जो इस तथ्य की पुधिC करते हैं षिक दिदव्यावदान मूलत: षिवनयप्र�ान ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ गद्य-पद्यात्मक है। इसमें 'दीनार' र्शब्द का प्रयोग कई बार षिकया गया है। इसमें र्शुंगकाल के राजाओं का भी वण�न है।

र्शादू�लकणा�वदान का अनुवाद #ीनी भा.ा में 265 ई. में हुआ था। दिदव्यावदान में अर्शोकावदान एवं कुमारलात की कल्पनामस्थिण्डषितका के अनेक उद्धरण हैं। इसकी

कथाए ंअत्यन्त रो#क हैं। उपगुप्त और मार की कथा तथा कुणालावदान इसके अचे्छ उदाहरण हैं। अवदानर्शतक की सहायता से अनेक अवदानों की र#ना हुई है, यथा- कल्पद्रुमावदानमाला,

अर्शोकावदानमाला, द्वाविव2र्शत्यवदानमाला भी अवदानर्शतक की ऋणी हैं। अवदानों के अन्य संग्रह भद्रकल्यावदान और षिवचि#त्रकर्णिण2कावदान हैं। इनमें से प्राय: सभी अप्रकाचिर्शत हैं। कुछ के षितब्बती और #ीनी अनुवाद धिमलते हैं।

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के्षमेन्द्र की अवदानकल्पलता का उल्लेख करना भी प्रसंग प्राप्त है। इस ग्रन्थ की समान्तिप्त 1052 ई. में हुई। षितब्बत में इस ग्रन्थ का अत्यधि�क आदर है। इस संग्रह में 107 कथाए ंहैं।

के्षमेन्द्र के पुत्र सोमेन्द्र ने न केवल इस ग्रन्थ की भूधिमका ही चिलखी, अषिपतु अपनी ओर से एक कथा भी जोड़ी है। यह जीमूतवाहन अवदान है।

[संपादिदत करें] अश्वघो> साविहत्य 1892 ई. में चिसलवां लेवी द्वारा बुद्ध#रिरत के प्रथम सग� के प्रकार्शन से पूव� यूरोप में कोई नहीं जानता

था षिक अश्वघो. एक महान कषिव हुए हैं। षितब्बती और #ीनी आम्नाय के अनुसार अश्वघो. महाराज कषिनष्क के समकालीन थे। जो प्रमाण उपलब्ध हैं, उनके अनुसार वे अश्वघो. के समकालीन या उससे कुछ पूव�वतD थे।

#ीनी आम्नाय के अनुसार अश्वघो. का सम्बन्ध षिवभा.ा से भी था, षिकन्तु षिवद्वानों को इसमें सन्देह है। अश्वघो. की काव्यर्शैली चिसद्ध करती है षिक वह काचिलदास से कई र्शताब्दी पूव� थे। भास उनका अनुसरण करते हैं। र्शब्द प्रयोग से लगता है षिक कौदिटल्य के षिनकटवतD थे। अश्वघो. अपने को 'साकेतक' कहते हैं और माता का नाम 'सुवणा�क्षी' बताते हैं। रामायण का उनके ग्रन्थों पर षिवरे्श. प्रभाव है। उनका कहना है षिक र्शाक्य इक्ष्वाकुवंर्शीय थे। अश्वघो.

ब्राह्मण थे, उसी प्रकार उनकी चिर्शक्षा भी हुई थी। बाद में वे बौद्ध �म� मे दीत्तिक्षत हुए। उनके ग्रन्थों से चिसद्ध होता है षिक वे बौद्ध �म� के प्र#ार-प्रसार में अत्यन्त व्यस्त थे। षितब्बती षिववरण के अनुसार वे एक अचे्छ संगीतज्ञ भी थे और गायकों की मण्डली के साथ भ्रमण करते थे तथा बौद्ध �म� का प्र#ार वे गानों के माध्यम से करते थे।

1. बुद्ध#रिरत,

2. सौन्दरनन्द और 3. र्शारिरपुत्र प्रकरण- ये तीनों ग्रन्थ उनकी र#नाए ंहैं।

बुद्ध$रिरत में बुद्ध की कथा वर्णिण2त है। इसमें 28 वग� हैं। बुद्ध कथा भगवान के जन्म से प्रारम्भ होती है औ संवेगोत्पत्ति�, अत्तिभषिनष्क्रमण, मारषिवजय, संबोधि� �म�#क्रप्रवत�न, परिरषिनवा�ण आदिद घटनाओं का वण�न कर प्रथम संगीषित और अर्शोक के राज्यकाल पर समाप्त होती है।

सौन्दरनन्द में बुद्ध के भाई नन्द के बौद्ध �म� में दीत्तिक्षत होने की कथा है। इस ग्रन्थ में 18 सग� हैं। समग्र ग्रन्थ सुरत्तिक्षत है।

र्शारिरपु1 प्रकरण यह नाटक ग्रन्थ है। इसमें 9 अंक हैं। इसमें र्शारिरपुत्र औ मौद्गल्यायन के बौद्ध �म� में दीत्तिक्षत होने की कथा वर्णिण2त है। यह खस्थिण्डत रूप में प्राप्य है। इसका उद्धार प्रोफेसर लुडस� ने षिकया है। ये तीनों ग्रन्थ एक र#धियता द्वारा र#े हुए प्रतीत होते हैं। श्री जान्सटन ने बुद्ध#रिरत का सम्पादन षिकया है। पूरा अषिवकल ग्रन्थ संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। प्रथम सग� और 14 वें सग� का कुछ अंर्श खस्थिण्डत है। 2-13 सग� ठीक हैं। 15 सग� से आगे मूल संस्कृत में अनुपलब्ध है।

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षितब्बती और #ीनीपरम्परा अश्वघो. को अन्य ग्रन्थों का भी र#धियता मानती है। टामस ने उनकी सू#ी प्रकाचिर्शत की है, षिकन्तु वे संस्कृत में अप्राप्य हैं, इसचिलए उनके बारे में कुछ कहना सम्भव नहीं है। प्रोफेसर लुडस� को र्शारिरपुत्रप्रकरण के साथ दो और नाटकों के अंर्श धिमले हैं। एक के मात्र तीन पत्र धिमले हैं, जिजनमें बुद्ध के ऋदिदबल का प्रदर्श�न है। दूसरे में एक नवयुवक की कथा है, जिजसने बौद्ध �म� की दीक्षा ली। षिकन्तु इनके अश्वघो. की र#ना होने में षिवद्वानों में ऐकमत्य नहीं है।

तीन और ग्रन्थ अश्वघो. के बताये जाते हैं- वज्रसू#ी, गण्डीस्तोत्र एवं सूत्रालङ्कार। #ीनी अनुवादक सूत्रालंकार को अश्वघो. की कृषित मानते हैं। बाद में प्रोफेसर लुडस� को मध्य एचिर्शया में इस ग्रन्थ के मूल संस्कृत में कुछ अंर्श धिमले हैं, उन्होंने चिसद्ध षिकया है षिक वहाँ ग्रन्थकार का नाम कुमारलात है और ग्रन्थ का नाम कल्पनामस्थिण्डषितका है। सामान्यत: षिवद्वान् इन्हें अश्वघो. की र#ना नहीं मानते।

अपनी र#नाओं में अश्वघो. ने श्रद्धा की मषिहमा का जोरदार वण�न षिकया है।

श्रद्धाङ्कुरधिममं तस्मात् संव��धियतुमह�चिस।तद्वदृ्धौ व��ते �म� मूलवृद्धौ यथा द्रुम:॥ (सौन्दरनन्द 12:)

षिवद्वानों का मानना है षिक अश्वघो. बाहुश्रुषितक हैं। बाहुश्रुषितक महासांधिघक की र्शाखा है। इसचिलए ये महादेव की पां# वस्तुओं को स्वीकारते हैं। इनमें से #तुथ� के अनुसार अह�त परप्रत्यय से ज्ञान लाभ करते हैं। पर-प्रत्यय के चिलए श्रद्धा आवश्यक है।

जान्सटन के अनुसार अश्वघो. बाहुश्रुषितक या कौक्कुदिटक या कौक्कुचिलक हैं। तारानाथ के अनुसार मातृ#ेट अश्वघो. का दूसरा नाम है। मातृ#ेट का स्तोत्र अत्यन्त लोकषिप्रय था। जातकमाला के र#धियता आय�रू्शर अश्वघो. के ऋणी हैं। जातकमाला में 34 जातककथाओं का संग्रह

है, लगभग सभी कथांए पाचिल जातक में पाई जाती हैं।

महायान के आ$ाय�ब्रज विडस्कवरी, एक मुM ज्ञानको> सेयहां जाईये: नषेिवगेर्शन, खोज

नागाजु�न आ#ाय� आय�देव आ#ाय�

बुद्धपाचिलत आ#ाय�

भावषिववेक आ#ाय�

#न्द्रकीर्तित2 आ#ाय�

असंग आ#ाय�

वसुबनु्ध आ#ाय�

स्थिस्थरमषित आ#ाय�

दिदङ्नाग आ#ाय�

�म�कीर्तित2 आ#ाय�

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बोधि��म� आ#ाय�

र्शान्तरत्तिक्षत आ#ाय�

कमलर्शील आ#ाय�

पद्मसंभव आ#ाय�

र्शान्तिन्तदेव आ#ाय�

दीपङ्कर श्रीज्ञान आ#ाय�

आ$ाय� नागाजु�न / Acharya Nagarjun ह्रेनसांग के अनुसार अश्वघो., नागाजु�न, आय�देव और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे। राजतंरषिगणी और तारानाथ के मतानुसार नागाजु�न कषिनष्क के काल में पैदा हुए थे। नागाजु�न के काल

के बारे में इतने मत-मतान्तर हैं षिक कोई षिनत्ति�त समय चिसद्ध कर पाना अत्यन्त कदिठन है, षिफर भी ई.पू. प्रथम र्शताब्दी से ईस्वीय प्रथम-षिद्वतीय र्शताब्दी के बी# कहीं उनका समय होना #ाषिहए। कुमारजीव ने 405 ई. के लगभग #ीनी भा.ा में नागाजु�न की जीवनी का अनुवाद षिकया था। ये दत्तिक्षण भारत के षिवदभ� प्रदेर्श में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे ज्योषित., आयुव«द, दर्श�न एवं तन्त्र आदिद षिवद्याओं में अत्यन्त षिनपुण थे और प्रचिसद्ध चिसद्ध तान्तिन्त्रक थे।

प्रज्ञापारधिमतासूत्रों के आ�ार पर उन्होंने माध्यधिमक दर्श�न का प्रवत�न षिकया था। कहा जाता है षिक उनके काल में प्रज्ञापारधिमतासूत्र जम्बूद्वीप में अनुपलब्ध थे। उन्होंने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त षिकया तथा उन सूत्रों के दर्श�न पक्ष को माध्यधिमक दर्श�न के रूप में प्रस्तुत षिकया।

अस्मिस्तत्व का षिवशे्ल.ण दर्श�नों का प्रमुख षिव.य रहा है। भारतव.� में इसी के षिवशे्ल.ण में दर्श�नों का अभूतपूव� षिवकास हुआ है। उपषिन.द-�ारा में आ#ाय� रं्शकर का अदै्वत वेदान्त तथा बौद्ध-�ारा में आ#ाय� नागाजु�न का र्शून्याद्वयवाद चिर्शखरायमाण है। परस्पर के वाद-षिववाद ने इन दोनों �ाराओं के दर्श�नों को उत्क.� की पराकाxा तक पहुं#ाया है। यद्यषिप आ#ाय� र्शंकर का काल नागाजु�न से बहुत बाद का है, षिफर भी नागाजु�न के समय औपषिन.दिदक �ारा के अस्मिस्तत्व का अपलाप नहीं षिकया जा सकता, षिकन्तु उसकी व्याख्या आ#ाय� रं्शकर की व्याख्या से षिनत्ति�त ही त्तिभन्न रही होगी। आ#ाय� नागाजु�न के आषिवभा�व के बाद भारतीय दार्श�षिनक चि#न्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गषित एवं प्रखरता का प्रादुभा�व हुआ। वस्तुत: नागाजु�न के बाद ही भारतव.� में यथाथ� दार्श�षिनक चि#न्तन प्रारम्भ हुआ। नागाजु�न ने जो मत स्थाषिपत षिकया, उसका प्राय: सभी बौद्ध-बौदे्धतर दर्श�नों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उसी के खण्डन-मण्डन में अन्य दर्श�नों ने अपने को #रिरताथ� षिकया।

नागाजु�न के मतानुसार वस्तु की परमाथ�त: स�ा का एक 'र्शाश्वत अन्त' है तथा व्यवहारत: अस�ा दूसरा 'उचे्छद अन्त' है। इन दोनों अन्तों का परिरहास कर वे अपना अनूठा मध्यम माग� प्रकाचिर्शत करते हैं। उनके अनुसार परमाथ�त: 'भाव' नहीं है तथा व्यवहारत: या संवृत्ति�त: 'अभाव' भी नहीं है। यही नागाजु�न का मध्यम माग� या माध्यधिमक दर्श�न है। इस मध्यम माग� की व्यवस्था उन्होंने अन्य बौद्धों की भाँषित प्रतीत्यसमुत्पाद की अपनी षिवचिर्शC व्याख्या के आ�ार पर की है। वे 'प्रतीत्य' र्शब्द द्वारा र्शाश्वत अन्त का तथा 'समुत्पाद' र्शब्द द्वारा उचे्छद अन्त का परिरहास करते हैं और रू्शन्यतादर्श�न की स्थापना करते हैं।

नागाजु�न के नाम पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, षिकन्तु उनमें

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1. मूलमाध्यधिमककारिरका, 2. षिवग्रहव्यावत�नी, 3. युचिक्त.धिCका, 4. रू्शन्यतासप्तषित,

5. रत्नावली और 6. वैदल्यसूत्र प्रमुख हैं।

इनमें मूलमाध्यधिमककारिरका र्शरीर स्थानीय है तथा अन्य ग्रन्थ उसी के अवयव या पूरक के रूप में माने जाते हैं। कहा जाता है षिक उन्होंने मूलामाध्यधिमककारिरका पर 'अकुतोभया' नाम की वृत्ति� चिलखी थी, षिकन्तु अन्य साक्ष्यों के प्रकार्श में आने पर अब यह मत षिवद्वानों में मान्य नहीं है। इसके अषितरिरक्त सुहृल्लेख एवं सूत्रसमुच्चय आदिद भी उनकी कृषितयाँ हैं।

भारतीय बौद्ध आ#ाय� का कृषितयों का षितब्बत के 'तन-ग्युर' नामक संग्रह में संकलन षिकया गया है।

आ$ाय� आय�देव / Acharya Aryadev आय�देव आ#ाय� नागाजु�न के पट्ट चिर्शष्यों में से अन्यतम हैं। इनके और नागाजु�न के दर्श�न में कुछ भी

अन्तर नहीं है। उन्होंने नागाजु�न के दर्श�न को ही सरल भा.ा में स्पC रूप से प्रषितपादिदत षिकया है। इनकी र#नाओं में '#तु:र्शतक' प्रमुख है, जिजसे 'योगा#ार #तु:र्शतक' भी कहते हैं। #न्द्रकीर्तित2 के ग्रन्थों में इसका 'र्शतक' या 'र्शतकर्शास्त्र' के नाम से भी उल्लेख है। हे्रनसांग ने इसका #ीनी भा.ा में अनुवाद षिकया था। संस्कृत में यह ग्रन्थ पूण�तया उपलब्ध नहीं है। सातवें से सोलहवें प्रकरण तक भोट भा.ा से संस्कृत में रूपान्तरिरत रूप में उपलब्ध होता है। यह रूपान्तरण भी र्शत-प्रषितर्शत ठीक नहीं है। प्रश्नो�र रै्शली में माध्यधिमक चिसद्धान्त बडे़ ही रो#क ढंग से आय�देव ने प्रषितपादिदत षिकये हैं। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जिजन्हें आज के षिवद्वान भी उपस्थिस्थत करते हैं, जिजनका आय�देव ने सुन्दर समा�ान षिकया है।

[संपादिदत करें] ह्रेनसांग के अनुसार ह्रेनसांग के अनुसार ये सिस2हल देर्श से भारत आये थे। इनकी एक ही आंख थी, इसचिलए इन्हें काणदेव

भी कहा जाता था। इनके देव एवं नीलनेत्र नाम भी प्रचिसद्ध थे। कुमारजीव ने ई.सन 405 में इनकी जीवनी का अनुवाद #ीनी भा.ा में षिकया था। 'चि#�षिवरु्शजिद्धप्रकरण' ग्रन्थ भी इनकी र#ना है- ऐसी प्रचिसजिद्ध है। 'हस्तवालप्रकरण' या 'मुधिCप्रकरण' भी इनका ग्रन्थ माना जाता है। परम्परा में जिजतना नागाजु�न को प्रामात्तिणक माना जाता है, उतना ही आय�देव को भी। इन दोनों आ#ाय� के ग्रन्थ माध्यधिमक परम्परा में 'मूलर्शास्त्र' या 'आगम' के रूप में माने जाते हैं।

आ$ाय� बुद्धपाधिलत / Acharya Buddhapalit माध्यधिमकों की आ#ाय� परम्परा में आय�देव के बाद बुद्धपाचिलत ही ऐसे आ#ाय� हैं जिजन्होंने नागाजु�न की

प्रमुख र#ना मूलमाध्यधिमककारिरका पर एक प्रर्शस्त व्याख्या चिलखी, जो 'बुद्धपाचिलती' के नाम से प्रचिसद्ध है। यह संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भोटभा.ा में इसका अनुवाद उपलब्ध है। यद्यषिप इनके और नागाजु�न के बी# आय�रू्शर और नागबोधि� आदिद आ#ाय� सम्भाषिवत हैं, षिकन्तु उनकी कोई भी र#ना उपलब्ध नहीं है, अत: उनके बारे में ठीक-ठीक षिनत्ति�त रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

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षिवद्वानों की राय में बुद्धपाचिलत के चिसद्धान्त नागाजु�न से षिबल्कुल त्तिभन्न नहीं हैं, षिफर भी वे माध्यधिमक परम्परा में अत्यधि�क #र्शि#2त हैं। मूलमाध्यधिमककारिरका की व्याख्या में उन्होंने सव�त्र प्रसंग-वाक्यों का प्रयोग षिकया है, सा�न वाक्यों का नहीं, जैसे षिक बौद्ध नैयाधियक सा�न वाक्यों का प्रयोग करते हैं। इसी को लेकर भावषिववेक ने उनका खण्डन षिकया और आ#ाय� #न्द्रकीर्तित2 ने भावषिववेक का खण्डन कर बुद्धपाचिलत के षिव#ारों का समथ�न षिकया।

आ#ाय� नागाजु�न द्वारा प्रषितपादिदत षिन:स्वभावता (रू्शन्यता) को स्वतन्त्र हेतुओं से चिसद्ध करना #ाषिहए, अथवा नहीं - इस षिव.य को लेकर माध्यधिमकों मे दो र्शाखाए ँषिवकचिसत हो गईं-

1. स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक एवं 2. प्रासंषिगक माध्यधिमक।

स्वातन्तिन्त्रकों का कहना है षिक षिन:स्वभावता को स्वतन्त्र हेतुओं से चिसद्ध करना #ाषिहए,

जबषिक प्रासंषिगकों का कहना है षिक ऐसा करना माध्यधिमक के चिलए उचि#त नहीं है, क्योंषिक वे हेतु, पक्ष आदिद षिकसी की भी स�ा नहीं मानते।

इसचिलए जो लोग स्वभावस�ा की हेतुओं द्वारा चिसजिद्ध करते हैं, माध्यधिमक को #ाषिहए षिक उनके हेतुओं में दो. दिदखलाकर यह चिसद्ध करना #ाषिहए षिक उनके हेतु षिकसी की भी स्वभावस�ा चिसद्ध करने में सक्षम नहीं है। इस प्रकार दो. दिदखलाना ही 'प्रसंग' का अथ� है। केवल प्रसंग का प्रयोग करने के कारण वे प्रासंषिगक कहलाते हैं।

आगे #लकर स्वातान्तिन्त्रकों में भी दो र्शाखाए ँषिवकचिसत हो गई-

1. सूत्रा#ार स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक एवं 2. योगा#ार स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक।

प्रथम र्शाखा के प्रवत�क आ#ाय� भावषिववेक एवं दूसरी के आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत हैं।

आ$ाय� भावविववेक / Acharya Bhavvivek माध्यधिमक आ#ाय�-परम्परा में आ#ाय� भावषिववेक या भव्य का षिवचिर्शC स्थान है। आ#ाय� #न्द्रकीर्तित2 ने इन्हें प्रकाण्ड पस्थिण्डत एवं महान तार्तिक2क कहा है। आ#ाय� नागाजु�न की मूलमाध्यधिमककारिरका की टीका प्रज्ञाप्रदीप, मध्यमकह्रदय एवं उसकी वृत्ति�

तक� ज्वाला तथा मध्यमकाथ�संग्रह आदिद इनकी प्रमुख र#नाए ँहैं। तक� ज्वाला इनकी षिवचिर्शC र#ना है, जो षिवद्वानों में अत्यधि�क #र्शि#2त है। इसमें उन्होंने बौद्ध एवं बौदे्धतर सभी दर्श�नों की स्पC एवं षिवस्तृत आलो#ना की है। दुभा�ग्य से आज भावषिववेक की कोई भी र#ना संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भावषिववेक परमाथ�त: रू्शन्यवादी होते हुए भी व्यवहार में बाह्याथ�वादी हैं- यह उनकी र#नाओं के

अनुर्शीलन से स्पC है।

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आ$ाय� $न्द्रकीर्तितo / Acharya Chandrakirti आ#ाय� #न्द्रकीर्तित2 प्रासंषिगक माध्यधिमक मत के प्रबल समथ�क रहे हैं। आ#ाय� भावषिववेक ने बुद्धपाचिलत

द्वारा केवल प्रसंगवाक्यों का ही प्रयोग षिकया जाने पर अनेक आके्षप षिकये। उन (भावषिववेक) का कहना है षिक केवल प्रसंगवाक्यों के द्वारा परवादी को रू्शन्यता का ज्ञान नहीं कराया जा सकता, अत: स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग षिनतान्त आवश्यक है। इस पर #न्द्रकीर्तित2 का कहना है षिक असली माध्यधिमक को स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग नहीं ही करना #ाषिहए।

स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग तभी सम्भव है, जबषिक व्यवहार में वस्तु की स्वलक्षणस�ा स्वीकार की जाए। #न्द्रकीर्तित2 के मतानुसार स्वलक्षणस�ा व्यवहार में भी नहीं है। यही नागाजु�न का भी अत्तिभप्राय है। उनका कहना है षिक परमाथ�त: रु्शन्यता मानते हुए व्यवहार में स्वलक्षणस�ा मानकर भावषिववेक ने नागाजु�न के अत्तिभप्राय के षिवपरीत आ#रण षिकया है। #न्द्रकीर्तित2 के अनुसार भावषिववेक नागाजु�न के सही मन्तव्य को नहीं समझ सके।

#न्द्रकीर्तित2 प्रसंगवाक्यों का प्रयोजन परवादी को अनुमान षिवरो� दिदखलाना मात्र मानते हैं। प्रषितवादी जब अपने मत में षिवरो� देखता है तो स्वयं उससे हट जाता है। यदिद षिवरो� दिदखलाने पर भी वह नहीं हटता है तो स्वतन्त्र हेतु के प्रयोग से भी उसे नहीं हटाया जा सकता, अत: स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग व्यथ� है। स्वतन्त्र अनुमान नहीं मानने पर भी #न्द्रकीर्तित2 प्रचिसद्ध अनुमान मानते हैं, जिजसके �मD, पक्ष�म�ता आदिद प्रषितपक्ष को मान्य होते हैं।

न्याय परम्परा के अनुसार पक्ष-प्रषितपक्ष दोनों द्वारा मान्य उभयप्रचिसद्ध अनुमान का प्रयोग उचि#त माना जाता है। अथा�त दृCान्त आदिद वादी एवं प्रषितवादी दोनों को मान्य होना #ाषिहए। षिकन्तु #न्द्रकीर्तित2 यह आवश्यक नहीं मानते। उनका कहना है षिक यह उभय प्रचिसजिद्ध स्वतन्त्र हेतु मानने पर षिनभ�र है।

स्वतन्त्र हेतु स्वलक्षणस�ा मानने पर षिनभ�र है। स्वलक्षणस�ा मानना ही सारी गड़बड़ी का मूल है। अत: #न्द्रकीर्तित2 के अनुसार भवषिववेक ने स्वलक्षणस�ा मानकर नागाजु�न के दर्श�न को षिवकृत कर दिदया है। केवल प्रसंग का प्रयोग ही पया�प्त है और उसी से परप्रषितज्ञा का षिन.े� हो जाता है।

षिवद्वानों की राय में #न्द्रकीर्तित2 ने आ#ाय� नागाजु�न के अत्तिभप्राय को यथाथ�रूप में प्रस्तुत षिकया। आ#ाय� #न्द्रकीर्तित2 की अनेक र#नाए ँहैं, जिजनमें नागाजु�न- प्रणीत मुलमाध्यधिमककारिरका की टीका

प्रसन्नपदा, आय�देव के #तु:र्शतक की टीका, मध्यमकावतार और उसकी स्ववृत्ति� प्रमुख है। इन र#नाओं के द्वारा #न्द्रकीर्तित2 ने नागाजु�न के माध्यधिमक दर्श�न की सही समझ पैदा की है।

आ$ाय� असङ्ग / Acharya Asang आय� असंग, वसुबनु्ध एवं षिवरिरस्थिञ्#वत्स तीनों भाई थे। इनमें आय� असंग सबसे बडे़ एवं षिवरिरस्थिञ्#वत्स

सबसे छोटे थे। गान्धार प्रदेर्श के पुरु.पुर में इनका जन्म हुआ था। ये कौचिर्शकगोत्रीय ब्राह्मण थे। एक अन्य परम्परा के

अनुसार असंग और वसुबन्धु की माँ एक थीं, षिकन्तु षिपता त्तिभन्न-त्तिभन्न थे। तारानाथ के अनुसार माता ब्राह्मणी थी और उनका नाम प्रकार्शर्शीला था। असंग के षिपता क्षषित्रय थे

तथा वसुबनु्ध के षिपता ब्राह्मण। इनके काल के बारे में अत्यधि�क वाद-षिववाद है, षिकन्तु सबका परिरर्शीलन करने के अनन्तर इनका काल

#तुथ� र्शताब्दी मानना उचि#त है।

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आ#ाय� असंग बौद्ध दर्श�न के योगा#ार अथा�त षिवज्ञानवाद प्रस्थान के प्रवत�क हैं। परम्परा के अनुसार अनागत बुद्ध मैत्रेय बोधि�सत्त्व ने तुषि.तलोक में आय� असंग को पाँ# ग्रन्थ प्रकाचिर्शत

षिकये थे, जिजनका असंग ने लोक में प्रसार षिकया। इ�र षिवद्वानों की यह �ारणा बनी षिक जिजन ग्रन्थों के बारे में ऐसी प्रचिसजिद्ध है, वे असंग के गुरु षिकसी

मानवरूपी मैते्रयनाथ की र#नाए ँहैं। अत: अब यह सम्भावना व्यक्त की जा रही है षिक योगा#ार प्रस्थान के प्रवत�क वस्तुत: मैते्रयनाथ हैं।

योगा#ार (षिवज्ञानवाद) के षिवकास के इषितहास में असंग अत्यधि�क महत्वपूण� आ#ाय� हैं। मैते्रयनाथ की समस्त र#नाए ँषिवज्ञानवादषिव.यक ही हैं, यह षिनत्ति�तरूप से नहीं कहा जा सकता।

उ�रतन्त्र और अत्तिभसमयालङ्कार तो षिन�य ही माध्यधिमक ग्रन्थ हैं। असंग के साषिहत्य में षिवज्ञानवाद का बहुत प्रषितपादन है।

आ#ाय� असंग की रै्शली आगमों की तरह है और उन्होंने युचिक्त से अधि�क आगमों का आश्रय चिलया है। आ#ाय� असंग की अनेक कृषितयाँ हैं, जिजनका संस्कृत मूल प्राय: अनुपलब्ध है। भोटभा.ा में उनका अनुवाद उपलब्ध होता है। तथा वे वहाँ के 'तन-ग्युर' संग्रह में संकचिलत हैं।

आ$ाय� स्थिस्थरमवित / Acharya Sthirmati आ#ाय� स्थिस्थरमषित आ#ाय� वसुबनु्ध के #ार प्रख्यात चिर्शष्यों में से अन्यतम हैं। उनके #ार चिर्शष्य अत्यन्त

प्रचिसद्ध थे। ये अपने षिव.य में अपने गुरु से भी बढ़-#ढ़ कर थे, यथा- अत्तिभ�म� में स्थिस्थरमषित, प्रज्ञापारधिमता में षिवमुचिक्तसेन, षिवनय में गुणप्रभ तथा न्यायर्शास्त्र में दिदनांग। आ#ाय� स्थिस्थरमषित का जन्म दण्डकारण्य में एक व्यापारी के घर हुआ था।

अन्य षिवद्वानों के अनुसार वे मध्यभारत के ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। परम्परा के अनुसार सात व.� की आयु में ही वे वसुबनु्ध के पास पहुँ# गये थे। तारानाथ के अनुसार तारादेवी उनकी इC देवता थीं। वसुबनु्ध के समान ये भी दु��.� र्शास्त्राथD थे।

वसुबनु्ध के अनन्तर इन्होंने अनेक तैर्शिथ2कों को र्शास्त्राथ� करके पराजिजत षिकया था। तारानाथ ने चिलखा है षिक स्थिस्थरमषित ने आय�रत्नकूट और मूलमाध्यधिमककारिरका की व्याख्या भी चिलखी थी तथा उन्होंने मूलमाध्यधिमकाकारिरका का अत्तिभप्राय षिवज्ञन्तिप्तमात्रता के अथ� में चिलया था।

तारानाथ ने आगे चिलखा है षिक अत्तिभ�म�कोर्श पर टीका चिलखने वाले स्थिस्थरमषित कौन स्थिस्थरमषित हैं? यह अज्ञात है। इसका तात्पय� यह है षिक उन्हें अत्तिभ�म�कोर्श एवं वित्र2चिर्शका की टीका चिलखने वाले स्थिस्थरमषित के एक होने में सन्देह है। इनका काल पां#वी र्शताब्दी का उ�रा�� माना जाता है।

[संपादिदत करें] कृवितयाँषितब्बती भा.ा में स्थिस्थरमषित की छह र#नाए ंउपलब्ध हैं। ये सभी र#नाए ंउच्चकोदिट की हैं। (1) आय�महारत्नकूट �म�पया�यर्शतसाहन्धिस्त्रकापरिरवत�काश्यपपरिरवत� टीका। यह आय�महारत्नकूट की टीका है, जिजसका उल्लेख तारानाथ ने षिकया है। यह बहुत ही षिवस्तृत एवं स्थूलकाय ग्रन्थ है। (2) सूत्रालङ्कारवृत्ति�भाष्य- यह वसुबनु्ध की सूत्रालङ्कारवृत्ति� पर भाष्य है। (3) पञ्#स्कन्धप्रकरण- वैभाष्य- यह वसुबनु्ध के पञ्#स्कन्धप्रकरण पर भाष्य है।

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(4) मध्यान्तषिवभङ्ग-टीका- यह मैते्रयनाथ के मध्यान्तषिवभङ्ग टीका है। (5) अत्तिभ�म�कोर्शभाष्यटीका- यह अत्तिभ�म�कोर्श भाष्य पर तात्पय� नाम की टीका है। (6) वित्र2चिर्शकाभाष्य। इनके समस्त ग्रन्थ टीका या भाष्य के रूप में ही हैं। इनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इनके माध्यम से आ#ाय� वसुबनु्ध का अत्तिभप्राय पूण� रूप से प्रकट हुआ है।

आ$ाय� दिदङ्नाग / Acharya Dinang

अनुक्रम[छुपा]

1 आ#ाय� दिदङ्नाग / Acharya Dinang 2 समय 3 युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिन्तक 4 प्रमाणसमुच्चय

5 सम्बंधि�त सिल2क आ#ाय� दिदङ्नाग का जन्म दत्तिक्षण भारत के काञ्#ीनगर के समीप सिस2हवक्त्र नामक स्थान पर षिवद्या-

षिवनयसम्पन्न ब्राह्मण कुल में हुआ था। उन्होंने अपने आरस्मिम्भक जीवन में परम्परागत सभी र्शास्त्रों का षिवधि�वत अध्ययन षिकया था और उनमें पूण� पारंगत पस्थिण्डत हो गये थे। इसके बाद वे वात्सीपुत्रीय षिनकाय के महास्थषिवर नागद� से प्रव्रज्या ग्रहण कर बौद्ध त्तिभक्षु हो गये। *'दिदङ्नाग' यह नाम प्रव्रज्या के अवसर पर दिदया हुआ उनका नाम है।

महास्थषिवर नागद� से ही उन्होंने समस्त श्रावक षिपटकों एवं र्शास्त्रों का अध्ययन षिकया था और उनमें परम षिनष्णात हो गये थे। एक दिदन महास्थषिवर नागद� ने उन्हें 'र्शमथ' और 'षिवपश्यना' षिव.य को समझाते हुए अषिनव�#नीय पुद्गल की देर्शना की।

दिदङ्नाग अत्यन्त तीक्ष्ण बुजिद्ध के स्वतन्त्र षिव#ारक पस्थिण्डत थे। उन्हें अषिनव�#नीय पुद्गल का चिसद्धान्त रुचि#कर प्रतीत नहीं हुआ। गुरु के उपदेर्श की परीक्षा के चिलए अपने षिनवास-स्थान पर आकर उन्होंने दिदन में सारे दरवाजों-खिखड़षिकयों को खोलकर तथा रात में #ारों ओर दीपक जलाकर कपड़ों को उतार कर चिसर से पैर तक सारे अंगों को बाहर-भीतर सूक्ष्म रूप में षिनरीक्षण करते हुए अषिनव�#नीय पुद्गल को देखना र्शुरु षिकया। अपने साथ अध्ययन करने वाले साचिथयों के यह पूछने पर षिक 'यह आप क्या कर रहे हैं'? दिदङ्नाग ने कहा- 'पुद्गल की खोज कर रहा हँू'। सूक्ष्मतया षिनरीक्षण करने पर भी उन्होंने कहीं पुद्गल की प्रान्तिप्त नहीं की। चिर्शष्य परम्परा से यह बात महास्थषिवर गुरु नागद� तक पहुँ# गई। नागद� को लगा षिक दिदङ्नाग हमारा अपमान कर रहा है और अपने षिनकाय के चिसद्धान्तों के प्रषित उसे अषिवश्वास है। गुरु ने दिदङ्नाग पर कुषिपत होकर उन्हें संघ से बाहर षिनकाल दिदया। षिनकाल दिदये जाने के बाद क्रमर्श: #ारिरका करते हुए वे आ#ाय� वसुबनु्ध के समीप पहुँ#े। इस अनुश्रुषित से यह षिनष्क.� षिनकलता है षिक दिदङ्नाग पहले वात्सीपुत्रीय षिनकाय में प्रव्रजिजत हुए थे, षिकन्तु उस षिनकाय के दार्श�षिनक चिसद्धान्त उन्हें रुचि#कर प्रतीत नहीं हुए। इसके बाद आ#ाय� वसुबनु्ध के समीप रहकर उन्होंने समस्त श्रावक और महायान षिपटक, सम्पूण� बौद्ध र्शास्त्र और षिवरे्श.त: प्रमाणर्शास्त्र का गम्भीर अध्ययन षिकया।

कहा जाता है षिक आ#ाय� वसुबनु्ध के #ार चिर्शष्य अपने-अपने षिव.यों में वसुबनु्ध से भी अधि�क षिवद्वान थे। जैसे-

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1. आ#ाय� गुणप्रभ- षिवनय-र्शास्त्रों में, 2. आ#ाय� स्थिस्थरमषित- अत्तिभ�म� षिव.य में, 3. आ#ाय� षिवमुचिक्तसेन- प्रज्ञापारधिमता र्शास्त्र में तथा 4. आ#ाय� दिदङ्नाग- प्रमाणर्शास्त्र में।

कुछ षिवद्वानों की राय है षिक आ#ाय� षिवमुचिक्तसेन दिदङ्नाग के चिर्शष्य थे, वसुबनु्ध के नहीं। भोटदेर्शीय षिवद्वत्परम्परा तो उन्हें वसुबनु्ध का चिर्शष्य ही षिन�ा�रिरत करती है।

भारतीय इषितहास के मम�ज्ञ भोटषिवज्ञान लामा तारानाथ का कहना है षिक षित्ररत्न दास और संघदास भी वसुबनु्ध के चिर्शष्य थे।

[संपादिदत करें] समय आ#ाय� दिदङ्नाग के समय को लेकर षिवद्वानों में षिववाद अधि�क है। डॉ॰ सतीर्श#न्द्र षिवद्याभू.ण उनका काल ईस्वीय सन 450 से 520 के बी# षिन�ा�रिरत करते हैं। डॉ॰ एस. एन. दास गुप्त उन्हें ईस्वीय पाँ#वीं र्शताब्दी के अन्त में उत्पन्न मानते हैं। डॉ॰ षिवनयघो. भट्टा#ाय� मानते हैं षिक वे 345 से 425 ईस्वीय व.� में षिवद्यमान थे। पस्थिण्डत दलसुखभाई मालवत्तिणयाँ इस मत का समथ�न करते हैं। न्यायसूत्रों के भाष्यकार वात्स्यायन और प्रर्शस्तपाद के मतों की दिदङ्नाग ने युचिक्तपूव�क समालो#ना की

है तथा न्यायवार्तित2कार उद्योतकर ने दिदङ्नाग के मत की समालो#ना दिदङ्नाग की र#नाओं का अनुवाद #ीनी भा.ा में 557 से 569 ईस्वीय व.� में सम्पन्न हो गया था। इन सब साक्ष्यों के आ�ार पर आ#ाय� दिदङ्नाग का काल ईस्वीय पाँ#वीं र्शताब्दी का पूवा�द्ध� मानना समी#ीन मालूम होता है।

महापस्थिण्डत राहुल सांकृत्यायन भी उन्हें 425 ईस्वीय व.� में षिवद्यमान मानते हैं। आ#ाय� दिदङ्नाग की अनेक र#नाए ंहैं। उन्होंने षिवत्तिभन्न षिव.यों पर ग्रन्थों का प्रणयन षिकया है।

[संपादिदत करें] युक्त्यनुयायी सौ1ाप्तिन्तक आ#ाय� दिदङ्नाग के प्राय: सभी ग्रन्थ षिवरु्शद्ध प्रमाणमीमांसा से सम्बद्ध तथा स्वतन्त्र एवं मौचिलक ग्रन्थ

हैं। इसीचिलए वे भारतीय तक� र्शास्त्र के प्रवत�क महान तार्तिक2क माने जाते हैं। इन ग्रन्थों में जिजन षिव.यों को आ#ाय� ने प्रषितपादिदत षिकया है, वे सौत्रान्तिन्तक दर्श�न सम्मत ही हैं। बाह्याथ� की स�ा एवं ज्ञान की साकारता को मानते हुए उन्होंने षिव.य का षिनरूपण षिकया है। प्रमाणसमुच्चय के अवलोकन से यह षिनत्ति�त होता है षिक केवल प्रमाणफल के षिनरूपण के अवसर पर ही उन्होंने षिवज्ञानवादी दृधिCकोण अपनाया है। प्रमाण और प्रमेयों की स्थापना उन्होंने षिवरे्श.त: सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के अनुरूप ही की है। दिदङ्नाग के इन षिव#ारों ने सौत्रान्तिन्तक षिनकाय के चि#न्तन की एक अपूव� दिदर्शा उद्धादिटत की है, जिजससे उक्त षिनकाय के चि#न्तन में नूतन परिरवत�न परिरलत्तिक्षत होता है। दिदङ्नाग के इस प्रयास से तत्त्वचि#न्तन के के्षत्र में तक� षिवद्या की महती प्रषितxा हुई और ज्ञान की परीक्षा के नए षिनयम षिवकचिसत हुए तथा वे षिनयम सभी र्शास्त्रीय परम्पराओं और सम्प्रदायों में मान्य हुए। वास्तव में दिदङ्नाग से ही षिवर्शुद्ध तक� र्शास्त्र

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प्रारम्भ हुआ। फलत: सौत्रान्तिन्तक षिनकाय ने आगम की परिरधि� से बाहर षिनकल कर अभ्युदय और षिन:श्रेयस के सा�क दार्श�षिनक के्षत्र में पदाप�ण षिकया।

दिदङ्नाग के बाद आ#ाय� �म�कीर्तित2 ने दिदङ्नाग के ग्रन्थों में चिछपे हुए गूढ़ तथ्यों का प्रकार्शन करते हुए सात ग्रन्थों (सप्त प्रमाणर्शास्त्र) की र#ना की। उन ग्रन्थों में न्यायपरमेश्वर �म�कीर्तित2 ने बुद्धव#नों की नेयाथ�ता और नीताथ�ता का षिववे#न करते हुए र्शतसाहन्धिस्त्रका प्रज्ञापारधिमता आदिद प्रज्ञापारधिमता सूत्रों को बुद्धव#न के रूप में प्रमात्तिणत षिकया। आ#ाय� �म�कीर्तित2 के इस सत्प्रयास से दिदङ्नाग के बारे में जो धिमथ्या दृधिCयाँ और भ्रम उत्पन्न हो गये थे, उनका षिनरास हुआ। लोग कहते थे षिक दिदङ्नाग ने केवल वाद-षिववाद एव जय-पराजय मूलक तक� र्शास्त्रों की र#ना की है। उनमें माग� और फल का षिनरूपण नहीं है और ऐसे र्शास्त्रों की र#ना करना अध्यात्म प्र�ान बौद्ध �म� के अनुयायी एक त्तिभक्षु को र्शोभा नहीं देता। �म�कीर्तित2 की व्याख्या की वजह से दिदङ्नाग समस्त बुद्ध व#नों के उत्कृC व्याख्याता और महान रथी चिसद्ध हुए। साथ ही, सौत्रान्तिन्तकों की दार्श�षिनक परम्परा का नया आयाम प्रकाचिर्शत हुआ। फलत: इन दोनों के बाद सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के जो भी आ#ाय� उत्पन्न हुए, वे सब 'युचिक्त-अनुयायी सौत्रान्तिन्तक' कहलाए। इसी परम्परा में आगे #लकर प्रचिसद्ध सौत्रान्तिन्तक आ#ाय� र्शुभगुप्त भी उत्पन्न हुए।

युचिक्त-अनुयायी सौत्रान्तिन्तक दर्श�न-प्रस्थान के षिवकास में षिन:सन्देह आ#ाय� �म�कीर्तित2 का योगदान रहा है, षिकन्तु इसका प्राथधिमक श्रेय आ#ाय� दिदङ्नाग को जाता है। यह सही है षिक प्रमाणर्शास्त्र और न्यायप्रषिक्रया के षिवकास में आ#ाय� �म�कीर्तित2 के षिवचिर्शC मत और मौचिलक उद्भावनाए ंरही हैं, षिकन्तु सभी पारवतD आ#ाय� और षिवद्वान् उन्हें दिदङ्नाग के व्याख्याकार ही मानते हैं। �म�कीर्तित2 द्वारा प्रणीत सभी ग्रन्थों के षिव.य वे ही रहे हैं, जो दिदङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय के हैं। यद्यषिप �म�कीर्तित2 ने प्रमाणवार्तित2क के प्रथम परिरचे्छद में प्रमेयव्यवस्था और प्रमाणफल की स्थापना के सन्दभ� में षिवज्ञन्तिप्तमात्रता की ##ा� की है और इस तरह षिवज्ञानवाद की प्रषितxा की है, षिकन्तु इन थोडे़ स्थानों को छोड़कर रे्श. सम्पूण� ग्रन्थ में सौत्रान्तिन्तक दृधिC से ही षिव.य की स्थापना की है। इसचिलए आ#ाय� दिदङ्नाग और �म�कीर्तित2 यद्यषिप महायान के अनुयायी हैं, षिफर भी यह कहा जा सकता है षिक ये दोनों सौत्रान्तिन्तक आ#ाय� थे। युचिक्त-अनुयायी सौत्रान्तिन्तक दर्श�नपरम्परा का स्वरूप उसके दर्श�न के स्वरूप का षिनरूपण करते समय आगे षिववेचि#त है।

आ#ाय� �म�कीर्तित2 के प्रमेय सम्बन्धी षिव#ार आ#ाय� दिदङ्नाग के समान ही हैं। �म�कीर्तित2 द्वारा प्रणीत प्रमाणवार्तित2क, प्रमाणषिवषिन�य, न्यायषिबन्दु, हेतुषिबन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, सन्तानन्तरचिसजिद्ध और वादन्याय सातों प्रचिसद्ध ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की टीका के रूप में उपषिनबद्ध हैं। यद्यषिप इन ग्रन्थों में प्रमेयव्यवस्था के अवसर पर युचिक्त-अनुयायी सौत्रान्तिन्तक और युचिक्त-अनुयायी षिवज्ञानवादिदयों की षिव#ार�ारा के अनुरूप तत्त्वमीमांसा की षिवर्शे. रूप से ##ा� की गई है, तथाषिप ये ग्रन्थ मुख्य रूप से प्रमाणमीमांसा के प्रषितपादक ही हैं।

[संपादिदत करें] प्रमाणसमुच्चययह ग्रन्थ आ#ाय� दिदङ्नाग की कृषित है। यह आ#ाय� की अनेक चिछटपुट र#नाओं का समुच्चय है और अत्यन्त महत्त्वपूण� है। यह महनीय भावी बौद्ध न्याय के षिवकास का आ�ार और बौद्ध षिव#ारों में नई उत्क्रान्तिन्त का वाहक रहा है। इस ग्रन्थ के प्रभाव से भारतीय दार्श�षिनक चि#न्तन�ारा में नए एवं षिवचिर्शC परिरवत�न का सूत्रपात हुआ। ज्ञान के सम्यक्त्व की परीक्षा, पूवा�ग्रहमुक्त तत्त्वचि#न्तन, प्रमाण के प्रामाण्य आदिद का षिन�ा�रण आदिद वे षिवरे्श.ताए ंहैं, जिजनका षिवशे्ल.ण दिदङ्नाग के बाद प्राय: सभी भारतीय दर्श�नों में बहुलता से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार हम षिवर्शुद्ध ज्ञानमीमांसा और षिनरपेक्ष प्रमाणमीमांसा का प्रादुभा�व दिदङ्नाग के बाद घदिटत होते हुए देखते हैं। इस ग्रन्थ में छह परिरचे्छद हैं, यथा-

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1. प्रत्यक्ष परिरचे्छद, 2. स्वाथ�नुमान परिरचे्छद,

3. पराथ�नुमान परिरचे्छद,

4. दृCान्तपरीक्षा, 5. अपोहपरीक्षा एवं 6. जात्यु�र परीक्षा।

इन परिरचे्छदों के षिव.य उनके नाम से ही प्रकट है। इनमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की सुस्पC स्थापना, प्रमाणद्वय का स्पC षिन�ा�रण, ज्ञान की ही प्रमाणता, सा�न और दू.ण का षिववे#न, र्शब्दाथ�-षिव.यक चि#न्तन (अपोहषिव#ार), प्रमाण और प्रमाणफल की एकात्मकता एवं प्रसंग के स्वरूप का षिन�ा�रण आदिद षिव.य षिवर्शे. रूप से #र्शि#2त हुए हैं।

आ$ाय� �म�कीर्तितo / Acharya Dharmkirtiआ#ाय� दिदङ्नाग ने जब 'प्रमाणसमुच्चय' चिलखकर बौद्ध प्रमाणर्शास्त्र का बीज वपन षिकया तो अन्य बौदे्धतर दार्श�षिनकों में उसकी प्रषितषिक्रया होना स्वाभाषिवक था। तदनुसार न्याय दर्श�न के व्याख्याकारों में उद्योतकर ने, मीमांसक मत के आ#ाय� कुमारिरल ने, जैन आ#ायाÑ में आ#ाय� मल्लवादी ने दिदङ्नाग के मन्तव्यों की समालो#ना की। फलस्वरूप बौद्ध षिवद्वानों को भी प्रमाणर्शास्त्र के षिव.य में अपने षिव#ारों को सुव्यवस्थिस्थत करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसे षिवद्वानों में आ#ाय� �म�कीर्तित2 प्रमुख हैं, जिजन्होंने दिदङ्नाग के दार्श�षिनक मन्तव्यों का सुषिवर्शद षिववे#न षिकया तथा उद्योतकर, कुमारिरल आदिद दार्श�षिनकों की जमकर समालो#ना करके बौद्ध प्रमाणर्शास्त्र की भूधिमका को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने केवल बौदे्धतर षिवद्वानों की ही आलो#ना नहीं की, अषिपतु कुछ गौण षिव.यों में अपना मत दिदङ्नाग से त्तिभन्न रूप में भी प्रस्तुत षिकया। उन्होंने दिदङ्नाग के चिर्शष्य ईश्वरसेन की भी, जिजन्होंने दिदङ्नाग के मन्तव्यों की अपनी समझ के अनुसार व्याख्या की थी, उनकी भी समालो#ना कर बौद्ध प्रमाणर्शास्त्र को परिरपुC षिकया।

आ#ाय� �म�कीर्तित2 के प्रमाणर्शास्त्र षिव.यक सात ग्रन्थ प्रचिसद्ध हैं। ये सातों ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या के रूप में ही हैं। प्रमाणसमुच्चय में प्रषितपादिदत षिव.यों का ही इन ग्रन्थों में षिवरे्श. षिववरण है। षिकन्तु एक बात असजिन्दग्� हैं षिक �म�कीर्तित2 के ग्रन्थों के प्रकार्श में आने के बाद दिदङ्नाग के ग्रन्थों का अध्ययन गौण हो गया।

[संपादिदत करें] कृवितयाँआ#ाय� �म�कीर्तित2 के सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-

1. प्रमाणवार्तित2क, 2. प्रमाणषिवषिन�य,

3. न्यायषिबन्दु,

4. हेतुषिबन्दु,

5. वादन्याय,

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6. सम्बन्धपरीक्षा एवं 7. सन्तानान्तरचिसजिद्ध।

इनके अषितरिरक्त प्रमाणवार्तित2क के 'स्वाथा�नुमान परिरचे्छद' की वृत्ति� एवं 'सम्बन्धपरीक्षा की टीका' भी स्वयं �म�कीर्तित2 ने चिलखी है।

आ#ाय� �म�कीर्तित2 के इस ग्रन्थों का प्र�ान और पूरक के रूप में भी षिवभाजन षिकया जाता है। तथा षिह- 'न्यायषिबन्दु' की र#ना तीक्ष्णबुजिद्ध पुरु.ों के चिलए, 'प्रमाणषिवषिन�य' की र#ना मध्यबुजिद्ध पुरु.ों के चिलए तथा 'प्रमाणवार्तित2क' का षिनमा�ण मन्दबुजिद्ध पुरु.ों के चिलए हैं- ये ही तीनों प्र�ान ग्रन्थ है।, जिजनमें प्रमाणों से सम्बद्ध सभी वक्तव्यों का सुषिवर्शद षिनरूपण षिकया गया है। अवचिर्शC #ार ग्रन्थ पूरक के रूप में हैं। तथाषिह-स्वाथा�नुमान से सम्बद्ध हेतुओं का षिनरूपण 'हेतुषिबन्दु' में है। हेतुओं का अपने साध्य के साथ सम्बन्ध का षिनरूपण 'सम्बन्धपरीक्षा' में है। पराथा�नुमान से सम्बद्ध षिव.यों का षिनरूपण 'वादन्याय' में है अथा�त इसमें पराथा�नुमान के अवयवों का तथा जय-पराजय की व्यवस्था कैसे हो- इसका षिवर्शे. प्रषितपादन षिकया गया है।

आ#ाय� �म�कीर्तित2 दत्तिक्षण के षित्रमलय में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने प्रारस्मिम्भक अध्ययन वैदिदक दर्श�नों का षिकया था। तदनन्तर वसुबनु्ध के चिर्शष्य �म�पाल, जो उन दिदनों अत्यन्त वृद्ध हो #ुके थे, उनके पास षिवर्शे. रूप से बौद्ध दर्श�न का अध्ययन करने के चिलए वे नालन्दा पहुँ#े। उनको तक� र्शास्त्र में षिवर्शे. रुचि# थी, इसचिलए दिदङ्नाग के चिर्शष्य ईश्वरसेन से उन्होंने प्रमाणर्शास्त्र का षिवरे्श. अध्ययन षिकया तथा अपनी प्रषितभा के बल से दिदङ्नाग के प्रमाणर्शास्त्र में ईश्वरसेन से भी आगे बढ़ गये। तदनन्तर अपना अगला जीवन उन्होंने वाद-षिववाद और प्रमाणवार्तित2क आदिद सप्त प्रमाणर्शास्त्रों की र#ना में षिबताया। अन्त में कसिल2ग देर्श में उनकी मृत्यु हुई।

[संपादिदत करें] समयषितब्बती परम्परा के अनुसार आ#ाय� कुमारिरल और आ#ाय� �म�कीर्तित2 समकालीन थे। कुमारिरल ने दिदङ्नाग का खण्डन तो षिकया है, षिकन्तु �म�कीर्तित2 का नहीं, जबषिक �म�कीर्तित2 ने कुमारिरल का खण्डन षिकया है। ऐसी स्थिस्थषित में कुमारिरल आ#ाय� �म�कीर्तित2 के वृद्ध समकालीन ही हो सकते हैं। आ#ाय� �म�कीर्तित2 ने तक� र्शास्त्र का अध्ययन ईश्वरसेन से षिकया था, षिकन्तु उनके दीक्षा गुरु प्रचिसद्ध षिवद्वान एवं नालन्दा के आ#ाय� �म�पाल थे। �म�पाल को वसुबनु्ध का चिर्शष्य कहा गया है। वसुबनु्ध का समय #ौथी र्शताब्दी षिनत्ति�त षिकया गया है। �म�पाल के चिर्शष्य र्शीलभद्र ईस्वीय व.� 635 में षिवद्यमान थे, जब ह्रेनसांग नालन्दा पहँु#े थे। अत: यह मानना होगा षिक जिजस समय �म�कीर्तित2 दीत्तिक्षत हुए, उस समय �म�पाल मरणासन्न थे। इस दृधिC से षिव#ार करने पर �म�कीर्तित2 का काल 550-600 हो सकता है।

आ#ाय� �म�कीर्तित2 के मन्तव्यों का खण्डन वैरे्शषि.क दर्श�न में व्योमचिर्शव ने, मीमांसा दर्श�न में र्शाचिलकनाथ ने, न्याय दर्श�न में जयन्त और वा#स्पषित धिमश्र ने, वेदान्त में भी वा#स्पषित धिमश्र ने तथा जैन दर्श�न में अकलङ्क आदिद आ#ाय� ने षिकया है। �म�कीर्तित2 के टीकाकारों ने उन आक्षेपों का यथासम्भव षिनराकरण षिकया है। �म�कीर्तित2 के टीकाकारों को तीन वग� में षिवभक्त षिकया जाता है।

1. प्रथम वग� के पुरस्कता� देवेन्द्रबुजिद्ध माने जाते हैं, जो �म�कीर्तित2 के साक्षात चिर्शष्य थे और जिजन्होंने र्शब्द प्र�ान व्याख्या की है। देवेन्द्र बुजिद्ध ने प्रमाणवार्तित2क की दो बार व्याख्या चिलखकर �म�कीर्तित2 को दिदखाई और दोनों ही बार �म�कीर्तित2 ने उसे षिनरस्त कर दिदया। अन्त में तीसरी बार असन्तुC रहते हुए भी उसे स्वीकार कर चिलया और मन में यह सो#कर षिनरार्श हुए षिक वस्तुत: मेरा प्रमाण र्शास्त्र यथाथ� रूप में कोई समझ नहीं सकेगा। र्शाक्यबुजिद्ध एवं प्रभाबुजिद्ध आदिद भी इसी प्रथम वग� के आ#ाय� हैं।

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2. दूसरे वग� के ऐसे आ#ाय� हैं, जिजन्होंने र्शब्द प्र�ान व्याख्या का माग� छोड़कर �म�कीर्तित2 के तत्त्वज्ञान को महत्त्व दिदया। इस वग� के पुरस्कता� आ#ाय� �मo�र है। �मo�र का काय�के्षत्र कश्मीर रहा, अत: उनकी परम्परा को कश्मीर-परम्परा भी कहते हैं। वस्तुत: �म�कीर्तित2 के मन्तव्यों का प्रकार्शन �मo�र-परम्परा भी कहते है। वस्तुत: �म�कीर्तित2 के मन्तव्यों के प्रकार्शन �मo�र द्वारा ही हुआ है। ध्वन्यालोक के कता� आनन्दव��न ने भी �मo�र कृत प्रमाणषिवषिन�य की टीका पर टीका चिलखी है, षिकन्तु वह अनुपलब्ध है। इसी परम्परा में र्शंकरानन्द ने भी प्रमाणवार्तित2क पर एक षिवस्तृत व्याख्या चिलखना रु्शरू षिकया, षिकन्तु वह अ�ूरी रही।

3. तीसरे वग� में �ार्मिम2क दृधिC को महत्त्व देने वाले �म�कीर्तित2 के टीकाकार हैं। उनमें प्रज्ञाकर गुप्त प्र�ान है। उन्होंने स्वाथा�नुमान को छोड़कर रे्श. तीन परिरचे्छदों पर 'अलंकार' नामक भाष्य चिलखा, जिजसे 'प्रमाणवार्तित2कालङ्कार भाष्य' कहते हैं। इस श्रेणी के टीकाकारों में प्रमाणवार्तित2क के प्रमाणपरिरचे्छद का अत्यधि�क महत्त्व है, क्योंषिक उसमें भगवान बुद्ध की सव�ज्ञता तथा उनके �म�काय आदिद की चिसजिद्ध की गई है। प्रज्ञाकर गुप्त का अनुसरण करने वाले आ#ाय� हुए है। 'जिजन' नामक आ#ाय� ने प्रज्ञाकर के षिव#ारों की पुधिC की है। रषिवगुप्त प्रज्ञाकर के साक्षात चिर्शष्य थे। ज्ञानश्रीधिमत्र भी इसी परम्परा के अनुयायी थे। ज्ञानश्री के चिर्शष्य यमारिर ने भी अलंकार की टीका की। कण�गोमी ने स्वथा�नुमान परिरचे्छद ने #ारों परिरचे्छदों पर टीका चिलखी है, षिकन्तु उसे र्शब्दाथ�परक व्याख्या ही मानना #ाषिहए।

�म�कीर्तित2 के ग्रन्थों की टीका-परम्परा केवल संस्कृत में ही नहीं रही, अषिपतु जब बौद्ध �म� का प्रसार एवं षिवकास षितब्बत में हो गया तो वहाँ के अनेक भोट षिवद्वानों ने भी षितब्बती भा.ा में स्वतन्त्र टीकाए ंप्रमाणवार्तित2क आदिद ग्रन्थों पर चिलखीं तथा उनका अध्ययन-अध्यापन आज भी षितब्बती परम्परा में प्र#चिलत है। इस प्रकार हम देखते हैं षिक दिदङ्नाग के द्वारा जो बौद्ध प्रमाणर्शास्त्र का बीजवपन षिकया गया, वह �म�कीर्तित2 और उनके अनुयाधिययों के प्रयासों से षिवर्शाल वटवृक्ष के रूप मं परिरणत हो गया।

आ$ाय� र्शान्तरणिक्षत / Acharya Shantrakshit आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत सुप्रचिसद्ध स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक आ#ाय� हैं। उन्होंने 'योगा#ार स्वातन्तिन्त्रक

माध्यधिमक' दर्श�नप्रस्थान की स्थापना की। उनका एक मात्र ग्रन्थ 'तत्त्वसंग्रह' संस्कृत में उपलब्ध है। उन्होंने 'मध्यमकालङ्कार कारिरका' नामक माध्यधिमक ग्रन्थ एवं उस पर स्ववृत्ति� की भी र#ना की है। इन्हीं में उन्होंने अपने षिवचिर्शC माध्यधिमक दृधिCकोण को स्पC षिकया है। षिकन्तु ये ग्रन्थ संस्कृत में उपलब्ध नहीं हैं, षिकन्तु उसका भोट भा.ा के आ�ार पर संस्कृत रूपान्तरण षितब्बती-संस्थान, सारनाथ से प्रकाचिर्शत हुआ है, जो उपलब्ध है।

आ#ाय� कमलर्शील और आ#ाय� हरिरभद्र इनके प्रमुख चिर्शष्य हैं। आ#ाय� हरिरभद्र षिवरचि#त अत्तिभसमयालङ्कार की टीका 'आलोक' संस्कृत में उपलब्ध है। यह अत्यन्त षिवस्तृत टीका है, जो अत्तिभसमयालङ्कार की सु्फटाथा� टीका भी चिलखी है, जो अत्यन्त प्रामात्तिणक मानी जाती है। षितब्बत में अत्तिभसमय के अध्ययन के प्रसंग में उसी का पठन-पाठन प्र#चिलत है। उसका भोटभा.ा से संस्कृत में रूपान्तरण हो गया है और यह केन्द्रीय उच्च षितब्बती चिर्शक्षा संस्थान, सारनाथ से प्रकाचिर्शत है।

आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत वङ्गभूधिम (आ�ुषिनक बंगलादेर्श) के ढाका मण्डल के अन्तग�त षिवक्रमपुरा अनुमण्डल के 'जहोर' नामक स्थान में क्षषित्रय कुल में उत्पन्न हुए थे। ये नालन्दा के षिनमन्त्रण पर षितब्बत गये और उन्होंने बौद्ध �म� की स्थापना की। अस्सी से अधि�क व.� तक ये जीषिवत रहे और षितब्बत में ही उनका देहावसान हुआ। आठवीं र्शताब्दी प्राय: इनका काल माना जाता है।

आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत ने अपनी र#नाओं में बाह्याथ� की स�ा मानने वाले भावषिववेक का खण्डन षिकया और व्यवहार में षिवज्ञन्तिप्तमात्रता की स्थापना की है। उनकी राय में आय� नागाजु�न का यही वास्तषिवक अत्तिभप्राय है।

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यद्यषिप आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत बाह्याथ� नहीं मानते, षिफर भी बाह्याथ�र्शून्यता उनके मतानुसार परमाथ� सत्य नहीं है, जैसे षिक षिवज्ञानवादी उसे परमाथ� सत्य मानते हैं, अषिपतु वह संवृषित सत्य या व्यवहार सत्य है। भावषिववेक की भाँषित वे भी 'परमाथ�त:' षिन:स्वभावता' को परमाथ� सत्य मानते हैं। व्यवहार में वे साकार षिवज्ञानवादी हैं। षिवज्ञानवाद का र्शान्तरत्तिक्षत पर अत्यधि�क प्रभाव हैं। वे #न्द्रकीर्तित2 की षिन:स्वभावता को परमाथ�सत्य नहीं मानते। भावषिववेक की भाँषित वे स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग भी स्वीकार करते हैं। वे आलयषिवज्ञान को नहीं मानते। स्वसंवेदन का प्रषितपादन उन्होंने अपनी र#नाओं में षिकया है, अत: वे स्वसंवेदन स्वीकार करते हैं।

[संपादिदत करें] कृवितयाँ आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत भारतीय दर्श�नों के प्रकाण्ड पस्थिण्डत थे। यह उनके 'तत्त्वसंग्रह' नामक ग्रन्थ से स्पC होता है। इस ग्रन्थ में उन्होंने प्राय: बौदे्धतर भारतीय दर्श�नों को पूव�पक्ष के रूप में प्रस्तुत कर बौद्ध दृधिC से उनका

खण्डन षिकया है। इस ग्रन्थ के अनुर्शीलन से भारतीय दर्श�नों के ऐसे-ऐसे पक्ष प्रकाचिर्शत होते हैं, जो इस समय प्राय:

अपरिरचि#त से हो गये हैं। वस्तुत: यह ग्रन्थ भारतीय दर्श�नों का महाकोर्श है। इनकी अन्य र#नाओं में मध्यमकालङ्कारकारिरका एवं उसकी स्ववृत्ति� है। इसके माध्यम से उन्होंने योगा#ार स्वातन्तिन्त्रक माध्यधिमक र्शाखा का प्रवत�न षिकया है। वे व्यावहारिरक सा�क और प्रचिसद्ध तान्तिन्त्रक भी थे। तत्त्वचिसजिद्ध, वादन्याय की षिवपस्थिञ्#ताथा� वृत्ति� एवं हेतु#क्रडमरू भी उनके ग्रन्थ माने जाते हैं।

आ$ाय� कमलर्शील / Acharya Kamalshil आ#ाय� कमलर्शील आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत के प्रमुख चिर्शष्यों में अन्यतम थे। यद्यषिप आ#ाय� के जन्म आदिद

के बारे में षिकसी षिनत्ति�त षितचिथ पर षिवद्वान् एकमत नहीं हैं, षिफर भी भोट देर्श के नरेर्श दिठसोङ् देउ#न* के र्शासनकाल में 792 ईसवीय व.� के आसपास षितब्बत पहँु#े थे। आ#ाय� नालन्दा के अग्रणी षिवद्वानों में से एक थे। उनकी षिवद्वता का प्रमाण उनकी गम्भीर एवं षिवर्शाल कृषितयाँ हैं।

भोट देर्श में उनका पहुँ#ना तब होता है, जब समस्त भोट जनता #ीनी त्तिभक्षु ह्रर्शङ्ग के कुदर्श�न से प्रभाषिवत होकर दिदग्भ्रधिमत हो रही थी और भारतीय बौद्ध �म� के षिवलोप का खतरा उपस्थिस्थत हो गया था। मन की षिव#ारहीनता की अवस्था को ह्रर्शङ्ग-बुद्धत्व-प्रान्तिप्त का उपाय बता रहे थे। उस समय र्शान्तरत्तिक्षत की मृत्यु हो #ुकी थी और आ#ाय� पद्मसम्भव षितब्बत से अन्यत्र जा #ुके थे। यद्यषिप राजा दिठसोङ् देउ#न भारतीय बौद्ध �म� के पक्षपाती थे, षिकन्तु ह्रर्शङ्ग के नवीन अनुयाधिययों का समझा पाने में असमथ� थे। तब आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत के षितब्बती चिर्शष्य ने उन्हें आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत की भषिवष्यवाणी का स्मरण कराया, जिजसमें कहा गया था षिक जब षितब्बत में बौद्ध �म� के अनुयाधिययों में आन्तरिरक षिववाद उत्पन्न होगा, उस समय आ#ाय� कमलर्शील को आमन्तिन्त्रत करके उनसे र्शास्त्राथ� करवाना।

तदनुसार राजा के द्वारा आ#ाय� कमलर्शील को षितब्बत बुलाया गया और वे वहाँ पहुँ#े। उन्होंने #ीनी त्तिभक्षु ह्रर्शङ्ग को र्शास्त्राथ� में पराजिजत षिकया और भारतीय बुद्धर्शासन की वहाँ पुन: प्रषितxा की। भोट

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नरेर्श ने आ#ाय� कमलर्शील का सम्मान षिकया और उन्हें आध्यान्धित्मक षिवद्या के षिवभाग का प्र�ान घोषि.त षिकया तथा #ीनी त्तिभक्षु ह्रर्शङ्ग को देर्श से षिनकाल दिदया। इस तरह आ#ाय� ने वहाँ आय� नागाजु�न के चिसद्धान्त एवं सवा�स्मिस्तवादी षिवनय की रक्षा की।

[संपादिदत करें] कृवितयाँउनकी प्रमुख कृषितयाँ षिनम्नचिलखिखत हैं, जिजन्हें भोटदेर्शीय तन-ग्युर संग्रह के आ�ार पर प्रस्तुत षिकया जा रहा है : (1) आय� सप्तर्शषितका प्रज्ञापारधिमता टीका, (2) आय� वज्रचे्छदिदका प्रज्ञापारधिमता टीका, (3) मध्यमकालङ्कारपस्थिञ्जका,(4) मध्यमकालोक, (5) तत्त्वालोक प्रकरण, (6) सव��म�षिन: स्वभावताचिसजिद्ध,(7) बोधि�चि#�भावना, (8) भावनाक्रम, (9) भावनायोगावतार, (10) आय� षिवकल्पप्रवेर्श�ारणी-टीका, (11) आय�र्शाचिलस्तम्ब-टीका, (12) श्रद्धोत्पादप्रदीप, (13) न्यायषिबन्दु पूव�पक्षसंक्षेप, (14) तत्त्वसंग्रहपस्थिञ्जका, (15) श्रमणपञ्#ार्शत्कारिरकापदात्तिभस्मरण, (16) ब्राह्मणीदत्तिक्षणाम्बायै अCदु:खषिवरे्श.षिनद«र्श, (17) प्रत्तिण�ानद्वयषिव�ा।

आ$ाय� पद्मसंभव / Acharya Padmsambhav भारत के पत्ति�म में ओषिÒयान नाम एक स्थान है। इन्द्रभूषित नामक राजा वहाँ राज्य करते थे। अनेक

राषिनयों के होने पर भी उनके कोई सन्तान न थी। उन्होंने महादान षिकया। या#कों की इच्छाए ँपूण� करने के चिलए स्वण�द्वीप में स्थिस्थत नागकन्या से चि#न्तामत्तिण रत्न प्राप्त रकने के चिलए उन्होंने महासमुद्र की यात्रा की। लौटते समय उन्होंने एक द्वीप में कमल के भीतर स्थिस्थत लगभग अCव.Dय बालक को देखा। उसे वे अपने साथ ले आए और उसका उन्होंने राज्यात्तिभ.ेक षिकया। राजपुत्र का नाम सरोरुहवज्र रखा गया। राज्य के प्रषित अरुचि# के कारण उन्होंने षित्रर्शूल और खट्वाङ्ग लेकर, अस्थिस्थयों की माला �ारण कर लंगे वदन होकर व्रता#रण आरम्भ कर दिदया। नृत्य करते समय उनके खट्वाङ्ग से एक मन्त्री के पुत्र की मृत्यु हो गई। दण्डस्वरूप उन्हें वहां से षिनष्काचिसत कर दिदया गया। वे ओषिÒयान के दत्तिक्षण में स्थिस्थत र्शीतवन नामक श्मर्शान में रहने लगे। वहाँ रहते हुए उन्होंने मन्त्र#या� के बल से कम�-डाषिकषिनयों को अपने वर्श में कर चिलया और लोगों ने उन्हें 'र्शान्तरत्तिक्षत' नाम दिदया।

वहाँ से वे जहोर प्रदेर्श के आनन्दवन नामक श्मर्शान में गए और षिवचिर्शC #या� के कारण डाषिकनी मारजिजता द्वारा अत्तिभ.ेक के साथ अधि�धिxत षिकये गए। तदनन्तर वहाँ से पुन: उस द्वीप में गयें, जहाँ वे पद्म में उत्पन्न हुए थे। वहाँ उन्होंने डाषिकनी के संकेतानुसार गुह्यतन्त्र की सा�ना की और वज्रवाराही का दर्श�न षिकया। वहीं पर उन्होंने समुद्रीय डाषिकषिनयों को वर्श में षिकया और आकार्शीय ग्रहों पर अधि�कार प्राप्त षिकया। डाषिकषिनयों ने इनका नाम 'रौद्रवज्रषिवक्रम' रखा।

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एक बार उनके मन में भारतीय आ#ाय� से बौद्ध एवं बौदे्धतर र्शास्त्रों के अध्ययन की इच्छा उत्पन्न हुई। तदनुसार जहोर प्रदेर्श के त्तिभकु्ष र्शाक्यमुषिन के साथ आ#ाय� प्रहषित के पास पहुँ#े। वहाँ उन्होंने व्रज्रज्या ग्रहण की और उनका नाम 'र्शाक्यसिस2ह' रखा गया।

तदनन्तर वे मलय पव�त पर षिनवास करने वाले आ#ाय� मञ्जुश्रीधिमत्र के पास गए। उन्होंने उन्हें त्तिभक्षुणी आनन्दी के पास भेजा। त्तिभक्षुणी आनन्दी ने उन्हें अनेक अत्तिभ.ेक प्रदान षिकये। उनके साषिनध्य में उन्हें आयुर्तिव2द्या एवं महामुद्रा में अधि�कार प्राप्त हुआ। तदनन्तर अन्य आ#ायाÑ से उन्होंने प्रज्रकीलषिवधि�, पद्मवाखिग्वधि�, र्शान्त-क्रो� माया �म� एवं उग्र मन्त्रों का श्रवण षिकया।

तदनन्तर वे जहोर प्रदेर्श गये और वहाँ की राजकुमारी को वर्श में करके पोतलक पव�त पर #ले गए। उस पव�त की गुफ़ा में उन्होंने अपरिरधिमतायु मण्डल का प्रत्यक्ष दर्श�न करके आयु:सा�ना की और तीन माह की सा�ना के अनन्तर वैरो#न अधिमतायु बुद्ध का साक्षात् दर्श�न षिकया। इसके बाद वे जहोर और ओषिÒयान गए और वहाँ के लोगों को सद्धम� में प्रषितधिxत षिकया। उन्होंने अनेक तैर्शिथ2कों को र्शास्त्राथ� में परास्त षिकया तथा नेपाल जाकर महामुद्रा की चिसजिद्ध की।

[संपादिदत करें] वितब्बत में बौद्ध�म� की स्थापना भोट देर्श में बौद्ध �म� को प्रषितधिxत करने में आ#ाय� पद्मसंभव की महत्त्वपूण� भूधिमका रही है। यद्यषिप

भारतीय आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत ने तत्कालीन भोट- सम्राट् दिठसोङृ दे#न की सहायता से भोट देर्श में बौद्ध �म� का प्र#ार षिकया, षिकन्तु पद्मसंभव की सहायता के षिबना वे उसमें सफल नहीं हो सके। उनकी ऋजिद्ध के बल से राक्षस, षिपर्शा# आदिद दुC र्शचिक्तयाँ षितब्बत छोड़कर #ामर द्वीप #ली गईं।

षितब्बत में उनकी चिर्शष्य परम्परा आज भी कायम है, जो समस्त षिहमालयी के्षत्र में भी फैले हुए हैं। पद्मसंभव की बीज मन्त्र 'ओं आ: हूँ वज्रगुरु पद्म चिसजिद्ध हूँ, का जप करने मं बौद्ध �मा�वलम्बी अपना कल्याण समझते हैं। आय� अवलोषिकतेश्वर के बीज मन्त्र 'ओं मत्तिण मद्मे हूँ' के बाद इसी मन्त्र का षितब्बत में सवा�धि�क जप होता है। प्रत्येक दर्शमी के दिदन गुरु पद्मसंभव की षिवर्शे. पूजा बौद्ध �म� के अनेक सम्प्रदायों में आयोजिजत की जाती है, जिजसके पीछे यह मान्यता षिनषिहत है षिक दर्शमी के दिदन गुरु पद्मसंभव साक्षात् दर्श�न देते हैं।

ज्ञात है षिक आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत ने ल्हासा में 'समयस्' नामक षिवहार बनाना प्रारम्भ षिकया, षिकन्तु दुC र्शचिक्तयों ने उसमें पुन:-पुन: षिवघ्न उपस्थिस्थत षिकया। जो भी षिनमा�ण काय� दिदन में होता था, उसे राषित्र में ध्वस्त कर दिदया जाता था। अन्त में आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत ने राजा से भारत से आ#ाय� पद्मसंभव को बुलाने के चिलए कहा। राजा ने दूत भेजकर आ#ाय� को षितब्बत आने के चिलए षिनमन्तिन्त्रत षिकया। आ#ाय� पद्मसंभव महान् तान्तिन्त्रक थे। षितब्बत आकर उन्होंने अमानु.ी दुC र्शचिक्तयों का षिनग्रह षिकया और काय�-योग्य वातावरण का षिनमा�ण षिकया। फलत: महान् 'समयस्' षिवहार का षिनमा�ण संभव हो सका, जहाँ से #ारों दिदर्शाओं में �म� का प्रत्येक मास की दर्शमी षितचिथयों में प्रत्यक्ष दर्श�न देने का व#न दिदया। कू्रर लोगों को षिवनीत करने के चिलए वे यावत्-संसार लोक में स्थिस्थत रहेंगे- ऐसी बौद्ध श्रद्धालुओं की मान्यता है।

आ$ाय� र्शाप्तिन्तदेव / Acharya Shantidev माघ्यधिमक आ#ाय� में आ#ाय� र्शान्तिन्तदेव का महत्वपूण� स्थान है। इनकी र#नाएं, अत्यन्त प्राञ्जल एवं

भावप्रवण हैं, जो पाठक के हृदय का स्पर्श� करती हैं और उसे प्रभाषिवत करती हैं। माध्यधिमक दर्श�न और महायान �म� के प्रसार में इनका अपूव� योगदान है।

[संपादिदत करें] दार्श�विनक मान्यता

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माध्यधिमकों में सैद्धान्तिन्तक दृधिC से स्वातन्तिन्त्रक एवं प्रासषिङ्गक भेद अत्यन्त प्रचिसद्ध है। स्वातन्तिन्त्रक माध्यषितकों में भी सूत्रा#ार स्वातन्तिन्त्रक और योगा#ार स्वातन्तिन्त्रक ये दो भेद हैं। आ#ाय� र्शान्तिन्तदेव प्रासषिङ्गक मत के प्रबल समथ�क हैं। षिव#ारों और तक� में ये आ#ाय� #न्द्रकीर्तित2 का पूण�तया अनुगमन करते हैं। उनकी र#नाओं में बोधि�#या�वतार प्रमुख है। इसमें दस परिरचे्छद हैं। नौवें प्रज्ञापरिरचे्छद में इनकी दार्श�षिनक मान्यताए ंपरिरसु्फदिटत हुई हैं। इस परिरचे्छद में संवृषित और परमाथ� इन दो सत्यों का इन्होंने सुस्पC षिनरूपण षिकया है। इस षिनरूपण में इनका #न्द्रकीर्तित2 से कुछ भी अन्तर प्रतीत नहीं होता।

मूल सैद्धान्तिन्तक आ�ार पर ही माध्यधिमकों क दो वग� हैं। प्रथम वग� में वे माध्यधिमक दार्श�षिनक आते हैं, जो पदाथ� की स्वलक्षणस�ा स्वीकार करते हैं और परमाथ�त: उनकी षिन:स्वभावता मानते हैं, जिजसे वे 'रू्शन्यता' कहते हैं। दूसरे वग� में वे दार्श�षिनक परिरगत्तिणत होते हैं, जो स्वलक्षणस�ा कथमषिप स्वीकार नहीं करते और उस षिन:स्वलक्षणा को ही 'रू्शन्यता' कहते हैं। इनमें प्रथम वग� के माध्यधिमक दार्श�षिनक स्वातन्तिन्त्रक तथा दूसरे वग� के माध्यधिमक प्रासषिङ्गक कहलाते हैं। इन दोनों की मान्यताओं में यह आ�ारभूत अन्तर है, जिजसकी ओर जिजज्ञासुओं का ध्यान जाना #ाषिहए, अन्यथा माध्यधिमक दर्श�न की षिनगूढ़ अथ� परिरज्ञात नहीं होगा। व्यवहार में षिकसी �म� का अस्मिस्तत्व या उसकी स�ा को स्वीकार करना या न करना मूलभूत अन्तर नहीं है, अषिपतु उस षिन.ेध्य के स्वरूप में जो मूलभूत अन्तर है, वह महत्त्वपूण� है, जिजस (षिन.ेध्य) का षिन.े� र्शून्यता कहलाती है तथा जिजसके षिन.े� से सारी व्यवस्थाए ंसम्पन्न होती हैं। वस्तुत: स्वतन्त्र अनुमान या स्वतन्त्र हेतुओं का प्रयोग या अप्रयोग भी इसी षिन.ेध्य पर आत्तिश्रत है। र्शून्यता के सम्यक् परिरज्ञान के चिलए उसके षिन.ेध्य को सव�प्रथम जानना परमावश्यक है, अन्यथा उस (रू्शन्यता) का अभ्रान्तज्ञान असम्भव है। षिबना षिन.ेध्य को ठीक से जाने र्शून्यता का षिव#ार षिनरथ�क होगा और ऐसी स्थिस्थषित में रू्शन्यता का अथ� अत्यन्त तुच्छता या षिनतान्त अलीकता के अथ� में ग्रहण करने की सम्भावना बन जाती है। इसचिलए आ#ाय� नागाजु�न ने भी आगाह षिकया है। षिवनार्शयषित दु�दृCा र्शून्यता मन्दमे�सम्। सपo यथा दुग�हीतो षिवद्या वा दुष्प्रसाधि�ता॥*

जब स्वभावस�ा या स्वलक्षणस�ा का षिन.े� षिकया जाता है तो उसका यह अथ� कतई नहीं होता है षिक

स्वलक्षण स�ा कहीं हो और सामने स्थिस्थत षिकसी �म� में, यथा- घट या पट में उसका षिन.े� षिकया जाता हो। अथवा र्शर्श (खरगोर्श) कहीं हो और श्रृङ्ग (सींग) भी कहीं हो, षिकन्तु उन दोनों की षिकसी एक स्थान में षिवद्यमानता का षिन.े� षिकया जाता हो, अषिपतु सभी �म� अथा�त् वस्तुमात्र में स्वलक्षणस�ा का षिन.े� षिकया जाता है। कहने का आर्शय यह है षिक घट स्वयं (स्वत:) या पट स्वयं स्वलक्षण�ावान् नहीं है। इसी तरह कोई भी �म� स्वभावत: सत् या स्वत: सत् नहीं है। इसका यह भी अथ� नहीं है षिक वस्तु षिकसी भी रूप में नहीं है। स्वभावत: सत् नहीं होने पर भी वस्तु का अपलाप नहीं षिकया जाता, अषिपतु इसका सापेक्ष या षिन:स्वभाव अस्मिस्तत्व स्वीकार षिकया जाता है और उसी के आ�ार पर काय�-कारण, बन्ध-मोक्ष आदिद सारी व्यवस्थाए ंसु#ारुतया सम्पन्न होती हैं। यद्यषिप सभी �म� स्वलक्षणत: या स्वभावत: सत् नहीं हैं, षिफर भी वे अषिवद्या के कारण स्वभावत: सत् के रूप में दृधिCगो#र होते हैं और स्वभावत: सत् के रूप में उनके प्रषित अत्तिभषिनवेर्श भी होता है। �म� जैसे प्रतीत होते हैं, वस्तुत: उनका वैसा अस्मिस्तत्व नहीं होता। उनके यथादर्श�न या प्रतीषित के अनुरूप अस्मिस्तत्व में तार्शिथ2क बा�ाए ंहैं, अत: अषिवद्या के षिव.य को बाधि�त करना ही षिन.े� का तात्पय� है।

इस तरह षिन:स्वभावता के आ�ार पर आ#ाय� र्शान्तिन्तदेव ने जन्म-मरण, पाप-पुण्य, पूवा�पर जन्म आदिद की व्यावहारिरक स�ा का प्रषितपादन षिकया है। इसी तरह अत्यन्त सरल एवं प्रसाद गुणयुक्त भा.ा में उन्होंने स्वसंवेदनप्रत्यक्ष के षिबना स्मरण की उत्पत्ति�, व्यवहृताथ� का अन्वे.ण करने पर उसकी अनुपलस्मिब्ध तथा अषिव#ारिरत रमणीय लोकप्रचिसजिद्ध के आ�ार पर सारी व्यवस्थाओं का सुन्दर षिनरूपण

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षिकया है। व्यावहारिरक स�ा पर उनका सवा�धि�क जोर इसचिलए भी है षिक जागषितक व्यवस्थाए ंसु#ारू रूप से सम्पन्न हो सकें ।

[संपादिदत करें] जीवन परिर$य आ#ाय� र्शान्तिन्तदेव सातवीं र्शताब्दी के माने जाते हैं। ये सौराष्ट्र के षिनवासी थे। बुस्तोन के अनुसार ये वहाँ

के राजा कल्याणवमा� के पुत्र थे। इनके ब#पन का नाम र्शान्तिन्त वमा� था। यद्यषिप वे युवराज थे, षिकन्तु भगवती तारा की पे्ररणा से उन्होंने राज्य का परिरत्याग कर दिदया। कहा जाता है षिक स्वयं बोधि�सत्त्व मञु्जश्री ने योगी के रूप में उन्हें दीक्षा दी थी और वे त्तिभकु्ष बन गए।

[संपादिदत करें] र$नाएँ प्रचिसद्ध इषितहासकार लामा तारानाथ के अनुसार उनकी तीन र#नाए ंप्रचिसद्ध हैं, यथा- बोधि�#या�वतार,

चिर्शक्षासमुच्चय एवं सूत्रसमुच्चय। बोधि�#या�वतार सम्भवत: उनकी अन्तिन्तम र#ना है, क्योंषिक अन्य दो ग्रन्थों का उल्लेख स्वयं उन्होंने बोधि�#या�वतार में षिकया है। सव�प्रथम बोधि�#या�वतार का प्रकार्शन रूसी षिवद्वान् आई.पी. धिमनायेव ने षिकया। तदनन्तर म.म. हरप्रसाद र्शास्त्री ने बुजिद्धस्ट टेक्स्ट सोसाइटी के जनरल में इसे प्रकाचिर्शत षिकया। फ्रें # अनुवाद के साथ प्रज्ञाकर मषित की टीका 'ला वली पँूसे' ने षिबस्थिब्लओचिथका इस्थिण्डका में सन् 1902 में प्रकाचिर्शत की। नांजिजयों के कैटलाग में बोधि�#या�वतार की एक त्तिभन्न व्याख्या है, उसमें तीन तालपत्र उपलब्ध हुए, जिजनमें र्शान्तिन्तदेव का जीवन #रिरत दिदया हुआ है। इसके अनुसार र्शान्तिन्तदेव षिकसी राजा के पुत्र थे। राजा का नाम मञु्जवमा� चिलखा हुआ है, षिकन्तु तारानाथ के अनुसार वे सौराष्ट्र के राजा के पुत्र थे। भोट भा.ा में बोधि�#या�वतार का प्राञ्जल एवं हृदयावज�क अनुवाद है।

आ#ाय� र्शान्तिन्तदेव पारधिमतायान के साथ-साथ मन्त्रनय के भी प्रकाण्ड पस्थिण्डत थे। इतना ही नहीं, वे महान् सा�क भी थे। #ौरासी चिसद्धों में इनकी गणना की जाती है। तन्त्रर्शास्त्र पर इनकी महत्वपूण� र#नाए ंहैं। हमेर्शा सोते एवं खाते रहने के कारण इनका नाम 'भुसुकु' पड़ गया था। वस्तुत: 'भुसुकु' नामक समाधि� में सव�दा समापन्न रहने के कारण ये 'भुसुकु' कहलाते थे। संस्कृत में इनके 'श्री गुह्यसमाजमहायोगतन्त्र-बचिलषिवधि�' नामक तन्त्रग्रन्थ की सू#ना है। #या�#य�षिवषिन�य से ज्ञात होता है षिक भुसुकु ने वज्रयान के कई ग्रन्थ चिलखे। बंगाली या अपभं्रर्श में इनके कई गान भी पाए जाते हैं। ये गीत बौद्ध �म� के सहजिजया सम्पद्राय में प्र#चिलत हैं।

र्शान्त, मौन एवं षिवनोदी स्वभाव के कारण लोग उनकी षिवद्वता से कम परिरचि#त थे। नालन्दा की स्थानीय परम्परा के अनुसार ज्येx मास के र्शुक्ल पक्ष में प्रषितव.� �म�#या� का आयोजन होता था। नालन्दा के अध्येता युवकों ने एक बार उनके ज्ञान की परीक्षा करने का काय�क्रम बनाया। उनका ख्याल था षिक आ#ाय� र्शान्तिन्तदेव कुछ भी बोल नहीं पाएगें और अच्छा मजा आएगा। वे आ#ाय� के पास गए और �मा�सन पर बैठकर �मoपदेर्श करने का उनसे आग्रह षिकया। आ#ाय� ने षिनमन्त्रण स्वीकार कर चिलया। नालन्दा महाषिवहार के उ�र पूव� में एक �मा�गार था। उसमें पस्थिण्डत एकत्र हुए और र्शान्तिन्तदेव एक ऊँ#े सिस2हासन पर बैठाए गए। उन्होंने तत्काल पूछा- 'मैं आ.� (भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिदC) का पाठ करँू या अथा�.� (आ#ाय� द्वारा व्याख्याधियत) का पाठ करँू? पस्थिण्डत लोग आ�य�#षिकत हुए और उन्होंने अथा�.� का पाठ सुनाने को कहा। उन्होंने (र्शान्तिन्तदेव ने) सो#ा षिक स्वरचि#त तीन ग्रन्थों में से षिकसका पाठ करँू? अन्त में उन्होंने बोधि�#या�वतार को पसन्द षिकया और पढ़ने लगे। सुगतान् ससुतान् स�म�कायान्प्रत्तिणपत्यादरतोऽखिखलां� वन्द्यान्*यहाँ से लेकर-यदा न भावो नाभावो मते: सन्तिन्तxते पुर:।

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तदान्यगत्यभावेन षिनरालम्बा प्रर्शाम्यषित॥*तक पहुँ#े तब भगवान् सम्मुख प्रादुभू�त हुए और र्शान्तिन्तदेव को अपने लोक में ले गए। यह वण�न उपयु�क्त तालपत्रों से प्राप्त होता है। पस्थिण्डत लोग आ�य�#षिकत हुए तदनन्तर उनकी पढु-कुटी ढंूटी गई, जिजसमें उन्हें उनके तीनों ग्रन्थ प्राप्त हुए।

आ$ाय� दीपङ्कर श्रीज्ञान / Acharya Dipankar Shrigyanअषिद्वतीय महान् आ#ाय� दीपङ्कर श्रीज्ञान आय�देर्श के सभी षिनकायों तथा सभी यानों के प्रामात्तिणक षिवद्वान् एवं चिसद्ध पुरु. थे। षितब्बत में षिवरु्शद्ध बौद्ध �म� के षिवकास में उनका अपूव� योगदान है। भोट देर्श में 'लङ् दरमा' के र्शासन काल में बौद्ध �म� जब अत्यन्त अवनत परिरस्थिस्थषित में पहुँ# गया था तब 'ङारीस' के 'ल्हा लामा खुबोन्' द्वारा प्राणों की परवाह षिकये षिबना अनेक कCों के बावजूद उन्हें षितब्बत में आमन्तिन्त्रत षिकया गया। 'ङारीस' तथा 'वुइस् #ङ्' प्रदेर्श के अनेक के्षत्रों में षिनवास करते हुए उन्होंने बुद्धर्शासन का अपूव� र्शुद्धीकरण षिकया। सूत्र तथा तन्त्र की समस्त �म�षिवधि� का एक पुद्गल के जीवन में कैसे युगपद ्अनुxान षिकया जाए- इसके स्वरूप को स्पC करके उन्होंने षिहमवत्-प्रदेर्श में षिवमल बुद्धर्शासनरत्न को पुन: सूय�वत् प्रकाचिर्शत षिकया, जिजनकी उपकारराचिर्श महामहोपाध्याय बोधि�सत्त्व आ#ाय� र्शान्तरत्तिक्षत के समान ही है।

[संपादिदत करें] जीवन परिर$यवत�मान बंगला देर्श, जिजसे, 'जहोर' या 'सहोर' कहते हैं, प्रा#ीन समय में यह एक समृद्ध राष्ट्र था। यहाँ के राजा कल्याणश्री या र्शुभपाल थें इनके अधि�कारक्षेत्र में बहुत बड़ा भूभाग था। इनका महल स्वण�ध्वज कहलाता था। उनकी रानी श्रीप्रभावती थी। इन दोनों की तीन सन्तानें थीं। बडे़ राजकुमार 'पद्मगभ�' मझले राजकुमार '#न्द्रगभ�' तथा सबसे छोटे 'श्रीगभ�' कहलाते थे। आ#ाय� दीपङ्कर श्रीज्ञान मध्य के राजकुमार '#न्द्रगभ�' हैं, जिजनका ईसवीय व.� 982 में जन्म हुआ था।

बो�गया स्थिस्थत मषितषिवहार के महासंधिघक सम्प्रदाय के महास्थषिवर र्शीलरत्तिक्षत से 29 व.� की आयु में इन्होंने प्रव्रज्या एवं उपसम्पदा ग्रहण की। 31 व.� तक पहुं#ते-पहुं#ते इन्होंने लगभग #ारों सम्प्रदायों के षिपटकों का श्रवण एवं मनन कर चिलया। साथ ही, षिवनय के षिव�ानों में भी पारङ्गत हो गए। अपनी अषिद्वतीय षिवद्व�ा के कारण वे अत्यन्त प्रचिसद्ध हो गए और अनेक जिजज्ञासु जन �म�, दर्श�न एवं षिवनय से सम्बद्ध प्रश्नों के समा�ान के चिलए उनके पास आने लगे।

षितब्बत में उनके अनेक चिर्शष्य थे, षिकन्तु उनमें 'डोम' प्रमुख थे। अपने जीवन के अन्तिन्तम समय में उन्होंने डोम से कहा षिक अब बुद्ध र्शासन का भार तुम्हारे हाथों में सौंपना #ाहता हूँ। यह सुनकर डोम को आभास हो गया षिक अब आ#ाय� बहुत दिदन जीषिवत नहीं रहेंगे। उन्होंने आ#ाय� की बात भारी मन से मान ली। इस तरह अपना काय�भार एक सुयोग्य चिर्शष्य को सौंपकर वे महान् गुरु दीपङ्कर श्रीज्ञान 1054 ईसवीय व.� में र्शरीर त्याग कर तुषि.त लोक में #ले गये।

[संपादिदत करें] र$नाएँ षितब्बती क-ग्युर एवं तन-ग्युर के अवलोकन से आ#ाय� दीपङ्कर षिवरचि#त ग्रन्थों की सू#ी बहुत बड़ी है। लगभग 103 ग्रन्थ उनसे सम्बद्ध हैं। संस्कृत में उनका एक भी ग्रन्थ उपलब्ध न था।

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षिकन्तु इ�र केन्द्रीय उच्च षितब्बती चिर्शक्षा संस्थान, सारनथ से भोट भा.ा से संस्कृत में पुनरुद्वार कर कुछ ग्रन्थ प्रकाचिर्शत षिकये गये हैं।

उनमें बोधि�पथप्रदीप, एकादर्श लघुग्रन्थों का एक संग्रह तथा उनके पाँ# लघुग्रन्थों का एक संग्रह उल्लेखनीय है।

साथ ही षित्रसकन्घसूत्रटीका के अन्तग�त दीपङ्कर का कमा�वरणषिवर्शो�नभाष्य भी प्रकाचिर्शत है।

बुद्ध प्रषितमा का षिन#ला भागLower Part Of Buddha