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दोहे1
दीपक बाती से कहे , तुम पाओ नि�र्वाा�ण ।
मेरी भी चाहत जलँू , जब तक त� में प्राण ।।
2
कटते - कटते कह रही, र्वा� के म� की आग ।
कैसे गाओगे सखा , अब सार्वा� का राग ।।
3
संग हँसें रोंयें सदा, �हीं मिमल� की रीत ।
प्रभु मेरी तुमसे हुई, ज्यों �ै�� की प्रीत ।।
4
सुर्वाण� मृग की लालसा , छी�े सुख सम्मा� ।
निकस्मत �े उ�का लिलखा, जीर्वा� दुख के �ाम ।।
5
जब लालच की आग को , म� में मिमली प�ाह ।
बेटी का आ�ा यहाँ, तब से हुआ गु�ाह ।।
6
सुख की छाया है कभी , कभी दुखों की धूप ।
– देख भी लो नि�यनित �टी, पल- पल बदले रूप ।।
7
पार्वा�ता पाई �हीं , ज� म� का निर्वाश्वास ।
राम राज में भी मिमला , सीता को र्वा�र्वाास ।।
8
मधुर मिमल� की चाह म� , �ै�� दर्श�� आस ।
कौ� जत� कैसे घटे , अन्तघ�ट की प्यास ।।
9
दुनि�या के बाज़ार में , रही प्रीत अ�मोल ।
ले जाये जो दे सके , म� से मीठे बोल ।।
10
कल ही थामा था यहाँ, दुख �े दिदल का हाथ ।
आकर ऐसे बस गया , ज्यों ज�मों का साथ ।।
11
आहट तक होती �हीं , सुख के इस बाज़ार ।
हम भी दुख की टोकरी , ले�े को लाचार ।।
12
सागर , सुख दुख की लहर , ये सारा संसार ।
मेरी आर्शा ही मुझे , ले जायेगी पार ।।
-0-
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– दोहे पया�र्वारण1
पंछी- पंचायत जुड़ी, सभी जीर्वा बेहाल ।
मा�र्वा �े दूषण निकया , जी�ा हुआ मुहाल । ।
2
र्वाायु प्रदूनिषत कर रहा , तनि�क � आती लाज ।
रे मा�र्वा तू है ब�ा , दा�र्वा का सरताज । ।
3
�दिदया थी संजीर्वा�ी , कैसा तू बे पीर ।
कचरा , मैला भर दिदया , मलिल� निकया है �ीर ॥
4
पा�ी पीकर चंचु भर, पाखी तो उर जाय ।
मा�र्वा लिलप्सा देख लो , पा�ी व्यथ� बहाय । ।
5
मा�र्वा निकत�ा है कुदिटल , म� में �हीं लजाय ।
माता को दूनिषत करे , धरती है नि�रुपाय । ।
6
हर खिखड़की तो मूँद ली ,भर- भर पाथर , ईंट ।
गौरैया घर छी� के, पड़ी खू� की छींट । ।
7
करें बसेरा पेड़ पर, उड़ें खुले आकार्श ।
धरती मैली �ा करें, थोडे़ जल की आस । ।
8
चादर में ओज़ो� की , बढ़ता जाता छेद ।
ए सी तेरे लिसर चढ़ा , आँख चढ़ी है मेद । ।
9
�ीम- गाछ की सारिरका, चह- चह करती भोर ।
घटी सूय� की रोर्श�ी, मचा र्शहर में र्शोर । ।
10
कागा पण्डिRSत जी कहें , ‘’ अर्शुभ चल रहा दौर ।
आश्विश्व� बरसा कोहरा , ‘’माघ आ गया बौर ॥
-0-
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जमा�ा उल्टा है ( कलयुगी दोहे) रनिहम� जमा�ा उल्टा है, मांगे मिमले �ा भीख।
निब� मांगे �ोट मिमले, चमचानिगरी तो सीख ॥
रनिहम� रार्श� राखिखये, निब� रार्श� सब सू� ।
ज�र्वारी की ची�ी मिमले, जब बीत जाये जू� ॥
रनिहम� ज�संख्या यों बढे, ज्यों द्रोपदी का चीर ।
एक- एक से�ापनित के, निहस्से आते दस- दस र्वाीर ॥
कबीरा जुआ ऐसी बला, जो खेले सो कंगाल ।
जूते पङे सर पे तो, बचे � एक ही बाल ॥
चलती ट्यूर्श�खोरी देख कबीरा दिदया रोय ।
इस ब्रह्मास्त्र के निब�ा पास हुआ � कोई ॥
कबीरा देख स्टूSेन्ट की, बदल गई है जात ।
गुटखा बीङी लिस�ेमा के पीछे, पढाई को मारी लात ॥
चलती रिरश्वतखोरी देख, कबीरा दिदया रोय ।
इस काजल की कोठरी में, उजला रहा �ा कोय ॥
-” ”गोपी
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र्शम��् के दोहे
बात जो इतनी जाने, व्यर्थ� न जीवन खोय मि�टटी पे इत्र पडे़, �गर इत्र न मि�टटी होय
न स�झे, स�झ के भी है साईं अन�ोल तुझसे अच्छा साज है, बजे किक किनकले बोल
उलझे धागे की बंधू, मि�ले न जल्दी छोर तकिनक ध्यान से खोलिलए , है अदभुत ये डोर
पूछा क्यों यदिद ज्ञान है, पूछन �ाने सीख किबन �ांगे �ोती मि�ले, �ांगे मि�ले न भीख
न योग, न कोई स�ामिध, ऐसी उठी तरंग न किगरह, न कोई कन्नी, कि<र भी उडे़ पतंग
जब चाहँू देखंू उसे अपने चारों ओर �ेरा उससे है रिरश्ता ज्यों पतंग से डोर
कैसे मि�लन होगा यदिद �न �ें बैठा चोर नगर ढिDंDोरा पीटे, व्यर्थ� �चाय शोर
‘ ’ मि�लेंगे इस कलिलयुग �ें रा� �गर ये �ान पहले खुद से पूछो किक क्या तु� हो हनु�ान
छोड़ कर गृहस्थी जो लेता है संन्यास वो नहीं पक्का योगी, कच्चा है किवश्वास
देखंू लेकिकन ना दिदखे, है आँखों �ें लोर कैसे देखंू चंद्र�ा, घटा मिघरी घनघोर
साईं कृपा ने �ेरी, ऑंखें दी है खोलधन- दौलत की चाह नहीं, साईं �ेरा अन�ोल
एक ही बाती बार के, सौ घर करे अँजोर साईं के संयोग से, नयना लगते भोर
साईं भक्तों से कहूँ , इधर- उधर �त डोल खिखडकी से �त झांक तू , दरवाजे को खोल
रास- डोल ना रहे जल कैसे खिखंचा जाय आँगन कँुआ पड़ा रहे, अकितलिर्थ प्यासा जाय
मि�लते हैं सम्राट �गर, मि�लते नहीं <कीर मि�ल जाय तो जाकिनए वो बदले तक़दीर
ये अन�ोल- रतन जिजसे कहते हैं सब प्यार मि�ल जाए तो बांदिटए , भूखा है संसार
उधेड़- बुन �ें �न रहा, हुआ न �ुझको ज्ञान अंत �ें जाना �ैंने हरिर हीरे की खान
श��न् कहता है सुनो, चाहे �ान-न-�ानध��-अर्थ�-का�-�ोक्ष, सब साईं के हार्थ
दुकिनया इक त�ाशा है, देख इसे चुपचाप पानी जिजतना उबले, किनकले उतनी भाप
कँुए �ें है श्रोत अगर क्या चिचंता की बात जिजतना चाहे खींच लो, लगे रहो दिदन-रात
साईं �ुझ�े है सुनो, बात कहूँ �ैं सांच ज्वाला के जिजतने किनकट, उतनी लगती आंच
अज्ञात हार्थों से वही, रूप अनेक बनाय ऊँगली ज्यों कुम्हार की, चलती घट बन जाय
कोई �ंतर नहीं जो कानों �ें दँू <ँूक �ेरा साईं कह रहा, ये बातें सब झूठ
जीवन �ें संघर्ष� है, �त इससे तू भाग भोजन बनता ही नहीं, किबन चूल्हा किबन आग
साईं का �ांगे कोई होने का प्र�ाण तेरे अंदर है वही, कर ले �ूरख ध्यान
देह को पहुँचायेंगे मि�लकर सब श्�शानसाईं- साईं बोलिलए, है जब तक ये प्राण
जब- जब मिघरे अँधेरा, खोजे नयन प्रकाश दीपक ढँ़ूढ़ो है कहाँ, उसकी हुई तलाश
आँगन सूना रहे ना खाली ये खलिलहान साईं इतना दीजिजए , तुझसे हटे न ध्यान
गुजर रहे जिजस दौर से ऐसा है ये दौर �ेहनत करनेवाला , तरसे एक- एक कौर
चाहे तु� तीर्थ� करो या करो खूब दान भाग्य सँवारे न सँवरे , अगर न होगा ज्ञान
हार्थ ना आया कुछ भी जीवन हुआ त�ा� �र गए जपते-जपते, हुआ न �न किनष्का�
इक चुटकी �ें द्वार खुला, दुल्हन गयो स�ाय ज्यों ढे़ला �ाटी का, जल �ें गयो किबलाय
ऊँचे- ऊँचे भवन हैं, केवल भोग-किवलास �ेरी कुदिटया �ें हरिर, आकर करे किनवास
एक दिदन पदा� उठेगा, देखेंगे सबलोगकब- तक रखेगा लिछपाकर अंत��न का योग
जिजतना जो कुचक्र रचे, आज वही भगवान् पर क्या कभी �ताल को लगता भी है ध्यान
श्रद्धा किकतनी है यही अपने �न से पूछ साईं उनके सार्थ है जो करते �हसूस
उडी आँगन की लिचकिड़या , देखो पंख पसार �ेरा �न- पाखी उड़ा , ज्योंकिह सुनी पुकार
साईं इतना कीजिजए किक किबगडे़ ना किहसाब आऊँ तेरी शरण �ें लेकर सही किकताब
पढ़- लिलखकर अनपढ़ रहा, पढ़ा ना उसका लेख साईं कहता है सुनो, ” ”सबका �ालिलक एक
सीधा �ेरा साईं न कोई लाग-लपेटसाईं- साईं बोलिलए, होगी एक- दिदन भेंट
साईं की भलिक्त जग �ें है सच�ुच बेजोड हो सके तो सबको तू इस धागे से जोड़
लगती है जवानी �ें ये दुकिनया रंगीन अंत घडी तू तडपे, जैसे जल किबन �ीन
घट <ूटने से पहले, खोज ले तू किनकास खारा जल �ीठा लगे, अगर लगी हो प्यास
जीवन के कुहासे �ें नज़र न आती रात साईं �ुझको ललचाय, लगती कभी न र्थाह
साईं- साईं बोलकर प्रकट करँू उदगार अगर देखना है उसे, अपना शीश उतार
रा�- रही� मि�ले जहाँ , साईं का दरबार है अदभुत संयोग ये �ानव �ें अवतार
साईं की भार्षा सीधी, सीधा है संकेत ऊँगली उठा के बोले, ” ”सबका �ालिलक एक
पूछती है ये धरती, पुछ रहा आकाश किकसने ये कुचक्र रचा, किकसने किकया किवनाश
<ैले हैं चारों तर<, हिहंसा और बलात् सत् क्या है जो न जाने, वही करे उत्पात
छोटी- छोटी बात �ें है जीवन का सार उसके आगे ड़ाल दे , नफ़रत के हलिर्थयार
सबका �ालिलक एक है, रा�- रही� �ें देख एक अक्षररूप है वही ओ�् साईं �ें देख
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कहाँ गए �लकूपदोहे
पहले ओला किगर गया, गड�ड पैदावार ! कैसी ग�s बेशर�, आयी है इसबार !!
.झुर�ुट- झुर�ुट झांकता, रात �ें नन्हा चाँद !
पर ज्यों- ज्यों दिदन चढ़ रहा, बढ़ा रहा अवसाद!! .
धूप चDी आकाश �ें, �न �ें ले उपहास !पानी- पानी कर गयी , रेकिगस्तानी किपयास !! .लहर- लहर के लोल पर, ललकी- ललकी धूप !
नदी किपयासी DंूD रही, कहाँ गए नलकूप !!.
– कान्हा कान्हा DँूDती , ताक- झाँक के आज । कौन बचाएगा यहाँ, पांचाली की लाज । ।
. – किगद्ध गो�ायु- बाज �ें, रा�- ना� की होड़ ।
�रघट- �रघट घू�ते, तोते आद�खोर । ।.
– काकितल काकितल DंूD के , �ुद्दई करे गुहार ।�ोल- तोल �ें व्यस्त हैं, �ुंलिस< औ सरकार। । .राग- भैरवी छेड़ गए, – कैसा बे आवाज़ ।
उछल- कूद कर �ंच मि�ला , बन बैठे ककिवराज । ।.घर- घर बांचे शायरी , शायर- – संत फ़कीर ।
भारत देश �हान है , सब तुलसी सब �ीर । । .
राजनीकित के आंगने , परेशान भगवान ।नेत- धर� सब छोड़ के , पंकिडत भयो �हान । । .हंस- हँस कहती धूप से , परबत-पीर- प्र�ाद ।
– बहकी बहकी आंच दे , किपघला दे अवसाद । । .
यौवन की दहलीज पे, गणिणका बांचे का� ।बगूला- किगद्ध- गो�ायु सब, सार्थ किबताये शा� । । .
नदी किपयासी देख के , ना बरसे अब �ेह । धड़कन की अनुगूंज से , बादल बना किवदेह । ।
. लूट रही �ंहगाई, आकरके बाज़ार !
�ौस� सी बदली हुयी, दिदखती है सरकार !!.
किनवा�चन के घाट पे , भई नेतन की भीड़ ! जनता बन गयी द्रौपदी , खींच रहे हैं चीर !!
. गदहा गाये भैरवी , तकिनक न लागै लाज !
शाकाहारी बन गए , किगद्ध - गो�ायु - बाज !!.
पक्ष और प्रकितपक्ष �ें, DंूD रहे सब खोंच ! पांच बरस तक चोंचले, खूब लड़ाए चोंच !!
. हरिरयाली की बात करे , सूख गए जब पात !
जनता भोली देखती , नेता का उत्पात !!.कृष्ण-दु: शासन सार्थ हैं , अजु�न बेपरवाह !
कोई �सीहा आये, दिदखलाये अब राह !!.
तन पे सांकल <ागुनी, नेह लुटाये �ीत ! पके आ� सा �न हुआ , रची पान सी प्रीत !!
. �हुआ पीकर �स्त है, रंग भरी �ुस्कान !
झू� रहे हैं आँगने, बूDे और जवान !!.
धुप चDी आकाश �ें , �न �ें ले उपहास !पानी- पानी कर गयी , बासंती एहसास !! .चूनर- चूनर टांकती , किहला- किहला के पाँव !
शहर से चलकर आया, जबसे साजन गाँव !!
. �ंगल�य हो आपको , होली का त्यौहार ! रसभीनी शुभका�ना, �ेरी बारम्बार !!
.�ह- �ह करती चांदनी , सूख गए जब पात ।
रात नु�ाईश कर गयी , कैसे हँसे प्रभात । ।
() रर्वाीन्द्र प्रभात
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पार्वास दोह आवत देख पयोद नभ, पुलकिकत कोयल �ोर।
नर नारी खेतन चले, लिलएसंग हल Dोर।।1।।
पावस की बलिलहारिरहै पोखर सर हरसाय। बरखा शीतल पवन संग, हर तरवर लहराय।।2।।
क्यूँ दादुर तू स्वारर्थी, पावस �ें टरा�य।गर�ी- सरदी का भयौ, तब क्यूँ ना बरा�य।।3।।
बरखा रुत का�त करै, सैनन सँू बतराय। झूला झूले कामि�नी, चूनर उड़ उड़ जाय।।4।।
किबजरी च�कै दूर सँू, घन गरजै सर आय। सौंधी पवन सुगंध सँू, �न हरसै ललचाय।।5।।
कारे कारे घन चले, सागर सँू जल लेय। किकतने घन संग्रह करैं, किकतने लेबें श्रेय।।6।।
किकतने घन सूखे रहे, कुछ बरसे कुछ रोये। जो बरसे का का� के, खेत सके ना बोये।।7।।
बरखा भी तब का� की, जब ना बाढ़ किबनास। जाते तौ सूखौ भलौ, बनी रहै कछु आस।।8।।
गर�ी सूँ कुम्हलाय तन, चली पवन पुरवाई। �ुसकाये जन कुहके खग, पावस संदेसा लाई।।9।।
बरसा ऐसी हो प्रभू, भर ते ताल तलैया। हो ना बेघर, ले ना करजा, देवें रा� दुहैया।।10।।
‘ ’ आकुल पावस जल संग्रह, हो तणिभसंभव भैया। धरती सोना उगले अपनौ, देस हो सोन लिचरैया।।11।।
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गुरुर्वाे �म: अक्षर ज्ञान दिदवाय कै, उँगली पकड़ चलाय।
पार लगावै गुरु ही या, केवट पार लगाय।।1।।
बन गुरुत्व धरती नहीं, धुर किबन चलै न काक। गुरुजल किबन संयंत्र पर�, गुरु किबन से न धाक।।2।।
सव|परिरस्र्थान है, गुरु कौ यह इकितहास। देव अदेव चराचर प्राणी, करैं सभी अरदास।।3।।
‘ ’ आकुल जग �ें गुरु से, ध��-ज्ञान-प्रताप। आश्रय जो गुरु कौ रहै, दूर रहै संताप।।4।।
गुरु कौ सर पै हार्थ होय, भवसागर तर जाय।श्रद्धा, किनष्ठा, पे्र�, यश, लक्ष�ी सुरसती आय।।5।।
गुरु कौ तोल कराय जो, वो �ूरख कहवाय। तोल �ोल क <ेर �ें, यँू ही जीवन जाय।।6।।
ज्ञान गुरु, दीक्षा गुरु, ध�� गुरु बेजोड़। चलै संस्कृकितइन्हीं सँू, इनकौ न कोई तोड़।।7।।
�ात-किपता-गुरु- राष्ट्र ऋण, कोई न सक्यौ उतार। जब भी जैसे भी मि�लैं इन कँू कभी न तार।।8।।
गुरु किबन स�रर्थ जाकिनये, दो दिदन भलै न खास।‘ ’ आकुल पडै़ अकाल अकेलौ पडै़ खोय किबसवास।।9।।
‘ ’ आकुल वो बड़भाग हैं, ऐसौ कहैं बतायँ। गुरु और �ात- किपता जब जावैं, वाके काँधे जायँ।।10।।
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काक बखा� कोयल कौ घर <ोर कै, घर घर कागा रोय। घकिड़यल आँसू देख कै, कोउ न वाकौ होय।।1।।
बड़- बड़ बानी बोल कै, कागा �ान घटाय। कोऊ वाकौ यार है, ‘ ’ आकुल कोई बताय।।2।।
लिचरजीवी की काकचेष्टा, जग ने करी बखान। किपक बैरी कर आहत सीता, खोयो सब सम्�ान।।3।।
किपक के घर �ें सेव कै, कागा किपक ना होय। लाख �लाई चाट कै, काला लिसत ना होय।।4।।
�ेहनत कर कै घर करै, किपक से यारी होय। कागा सौ ना जीव है, ऐयारी �े कोय।।5।।
गो, बा�न किबन कनागत, दशाह घाट किबन काक। सद्गकितकिबन उत्तर कर�, जीवन का किबन नाक।।6।।
कागा �किह�ा जान ल्यो, पण्डि�डत काक भुश�ड। इंद्र पुत्र जयंत कँू, एक आँख कौ द�ड।।7।।
आमि�र्ष भोजी कागला, कोई न प्रीत बढ़ाय। औघड़ सौ बन- बन घू�ै, यँू ही जीवन जाय।।8।।
कोयल बुलबुल ना लड़ैं, दोनों �ीठौ गायँ। प्रीत बढ़ावै दोसती, कागा स�झै नायँ।।9।।
‘ ’ आकुल या संसार �ें, तू कागा से सीख। ना काहू से दोसती, ना काहू से भीख।।10।।
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निपतृ मनिहमा �ाता कौ वह पूत है, पत्नी कौ भरतार। बच्चन कौ वह बाप है, घर �ें वो सरदार।।1।।
पालन पोर्षण वो करै, घर रक्खै खुशहाल। देवै हार्थ बढ़ाय कै, सुख दुख �ें हर हाल।।2।।
�ैया कौ अणिभ�ान है, �ाँग भरै लिसन्दूर।दादा- दादी ह� सभी, रहैं न उनसै दूर।।3।।
अपनौ- अपनौ का� कर देवैं जो सहयोग। किपता न पीछै कँू हटै, कैसोहु हो संयोग।।4।।
कधै सौं कंधा मि�ला, जा घर �ें हो काज। किपता क�ाये न्यून भी, रुके ना कोई काज।।5।।
प्रकितकिनमिधत्व घर कौ करै, जग या होय स�ाज। बंधु बांधवों �ें रहै, बन कै वो सरताज।।6।।
वंश चलै वा से बढै़, कुल कुटुम्ब कौ ना�।�ात- किपता कौ यश बढै़, करें सपूत प्रना�।।7।।
पर� किपता पर�ात्�ा, जग कौ पालनहार। घर �ें किपता प्र�ान है, घर कौ तारनहार।।8।।
बेटी खींचे जनक किहय, बेटा �ाँ की जान। बनै सखा जब पूत के, णिभड़ैं कान सौं कान।।9।।
‘ ’ आकुल �किह�ा जनक की, जिजससे जग अंजान। �नुस्�ृकित�ें लेख है, किपता सौ आचाय� स�ान।।10।।
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मधुब� माँ की छाँर्वा‘ ’ आकुल या संसार �ें, एक ही ना� है �ाँ।
अनुप� है संसार के, हर प्राणी की �ाँ।।1।।
�ाँ की प्रीत बखाकिनए, का �ुँह से धनवान। कंचन तुला भराइये, ओछो ही पर�ान।।2।।
�न �न सबकौ राखिखकै, घर बर कँू हरसाय। सबहिहं खवायै पेट भर, बचौ खुचौ �ाँ खाय ।।3।।
�धुबन �ाँ की छाँव है, किनमिधवन �ाँ की गोद। काशी �रु्थरा द्वारिरका, दश�न �ाँ के रोज।।4।।
�ाँ के �ारे्थ चंद्र है, कुल किकरीट सौ जान। �ाँ धरती �ाँ स्वग� है, गणपकितलिलख्यौ किवधान।।5।।
�ान कहा अप�ान कहा, �ाँ के बोल कठोर। �ाँ से नेह ना छोकिड़यो, कैसो ही हो दौर।।6।।
‘ ’ आकुल किनयरे राखिखये, जननी जनक सदैव। ज्यौं तुलसी कौ पेड़ है, घर �ें श्री सुखदेव।।7।।
पूत कपूत सपूत हो, ��ता करै ना भेद। �ीठौ ही बोले बंसी, तन �ें किकतने छेद।।8।।
तन �न धन सब वार कै, हँस बोलै बतराय। संकट जब घर पर आवै, दुकिनया से णिभड़ जाय।।9।।
�ातृ-किपतृ-गुरु- राष्ट्र ऋण, कोई न सक्यौ उतार। ‘ ’तर जावैं पुरखे आकुल , इनके चरण पखार।।10।।
‘ ’ आकुल �किह�ा �ातु की, की सबने अपरंपार। सहस्त्र किपता बढ़ �ातु है, �नुस्�ृकितअनुसार।।11।।
तू सृखिष्टकी अमिधष्ठात्री देवी �ाँ तू धन्य। कि<रे न बुजिद्धआकुल की, दे आशीर्ष अनन्य।।12।।
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गणेर्शाष्टक धरा सदृश �ाता है, �ाँ की परिरक्र�ा कर आये।
एकदन्त, गणनायक, गणकिपत प्रर्थ� पूज्य कहलाये।।1।।
लाभ-के्ष�, दो पुत्र, ऋजिद्ध- लिसजिद्धके स्वामि�गजानन। अभय और वर �ुद्रा से करते कल्याण गजानन।।2।।
�ानव-देव- असुर सब पूजें, कित्रदेवों ने गुण गाये। धर कित्रपु�ड �स्तक पर शलिशधर भालचन्द्र कहलाये।।3।।
असुर-नाग-नर- देव स्र्थापक, चतुव�द के ज्ञाता। जन्� चतुर्थs, ध��, अर्थ� और का� �ोक्ष के दाता।।4।।
पंचदेव और पंच �हाभूतों �ें प्र�ुख कहाये। किबना रुके लिलख �हाभारत, �हाआशुलिलकिपक कहलाये।।5।।
अंकुश-पाश-गदा-खड्ग-लड्डू- चक्र र्षड्भुजा धारे। �ोदक किप्रय, �ूर्षक वाहन किप्रय, शैलसुता के प्यारे।।6।।
‘ सप्ताक्षर गणपतये न�:’ सप्तचक्र �ूलाधारी। किवद्या वारिरमिध, वाचस्पकित, �हा�होपाध्याय अनुसारी।।7।।
छंद शास्त्र के अष्टगणामिधष्ठाता अष्टकिवनायक।‘ ’ आकुल जय गणेश, जय गणपकितसबके कष्ट किनवारक ।।8।।
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दोहे पहुँचे पूरे जोश से, ज्यों आंधी तू<ान चाँदी का जूता पड़ा, तो लिसल गई ज�बान
सबने अपनी काटकर, सौंपी उन्हें जुबान लिसध्द हुए वे सहन �ें, किकतने �ूक �हान
सभी जगह पर हैं ग़लत, लोग अयोग अपात्र क्यों न व्यवस्था हो लचर, एक दिदखावा �ात्र
जो जिजसके उपयुक्त है, वही नहीं उस स्थान होना तो र्था फ़ायदा, हुआ �गर नुकसान
चुनने �ें देखा नहीं, तु�ने पात्र, अपात्र उनको प्राध्यापन दिदया, जो किक स्वयं रे्थ छात्र
खास स्थान पर खास को, मि�ला नहीं पद भार लिसफ़ारिरशों ने कर दिदया, सब कुछ बँटाDार
ज़्यादा अपनी जान से, �ुझको रही अज़ीज तु� कहो तो कहो उसे, �ैं न कहूँगा चीज़
पक्षपात बादल करे, किवतरण �ें व्याघात �रुर्थल सूखा रख करे, सागर पर बरसात
इन आँखों के चिसंधु �ें, �न के बहुत स�ीप जो अनदेखे रह गए, हैं कुछ ऐसे द्वीप
�ाना ज़्यादा हैं बुरे, अचे्छ क� किकरदार उन अच्छों की वजह से, अच्छा है संसार
बनी लिलफ़ाफ़ा जीकिवका, �ंच, प्राण की वायु वहीं वहीं गाते कि<रे, और काट ली आयु
गलत आकलन हो गया, ह� स�झे रे्थ क्षुद्र लिसध्द स्वयं को कर गए, वे कर तांडव रुद्र
�ृत्यु- पत्र �ें क्या लिलखँू, �ैं क्या करँू प्रदान ले देकर कुछ पुस्तकें , पुरस्कार, सम्�ान
बस्ती के किहत �ें बना, र्था पहले बाज़ार अभी बस्ती को खा रहा, उसका अकित किवस्तार
दोनों पक्षों का नहीं, सध पाता है हेतु आपस �ें संवाद का, टूट गया है सेतु
ककिव तो ककिव है प्राकृकितक, रचनाकार प्रधान कोई आवश्यक नहीं, ककिव भी हो किवद्वान
ग़लत वकालत �त करो, दो �त झूठे तक�झूठ, झूठ है, सत्य को, नहीं पडे़गा फ़क�
अवसर दोगे दुष्ट को, क्यों न करेगा छेड़ खा जाएगा भेकिड़या, बने रहे यदिद भेड़
मि�लता है व्यलिक्तत्व को, वैसा रूपाकार जैसा होता व्यलिक्त का, किनज आचार-किवचार
धनबल उस पर बाहुबल, तंत्र हुआ लाचार दोनों बल के बल लिलया, जनबल का आधार
धरने, अनशन, रैलिलयाँ, ये हड़तालें, बंद प्रजातंत्र का देश �ें, है इक़बाल बुलंद
कोयल, �ैना, बुलबुलें, सारे सुर से �ूक‘ ’ पॉप लिसखाता है उन्हें, देखो एक उलूक
काव्य- सृजन के पूव� रे्थ, ’ आप जगत औ छन्द जगत हटा तो रह गए, आप और आनन्द
आँखों को जैसा दिदखा, लिलखा उसी अनुसारककिव- कौशल से कर्थन को, र्थोड़ा दिदया किनखार
यश खु़द करता फै़सला, किकसे करे कब शाद कुछ को जीते जी मि�ला, कुछ को �रने बाद
नील नयन की झील �ें, क�ल खिखले रे्थ खूब जो उतरा चुनने उन्हें, गया किबचारा डूब
आग लिलखी है, आग को, आग जलाकर बाँच लपट लगेगी शब्द से, पंलिक्त- पंलिक्त से आँच
प्रजातंत्र की लिसखिध्द है, हो अनेक �ें एक्य प्रजातंत्र की शलिक्त है, होना नहीं �तैक्य
ह�ें प्यार �ें चाकिहए, एकाकी अमिधकार अनामिधक स्वीकार है, हिकंतु न साझेदार
पे्र� स�प�ण भाव की, अकित किवश्वस्त प्रशस्तिस्त‘ ’अपना है कोई कहाँ , देता यह आश्वस्तिस्त
<ागुन �ें बरसा गया, जैसे सावन �ास �ौस� तानाशाह है, नहीं किकसी का दास
अचे्छ को कहते बुरा, कहे पेड़ को ठंूठवे, किवपक्ष उनके लिलए, पक्ष सदा ही झूठ
कहाँ मि�त्रता एक सी, णिभन्न दृमिष्टयाँ, कोणकृष्ण- सुदा�ा है जहाँ, ’ वहीं द्रुपद औ द्रोण
उर्थला ज्ञानाज�न किकया, स�झ न पाते गूढ़ पकडे़ बैठे रुढ़ को, कुछ किवद्वान किव�ूD
कोण भुजाएँ स� रहें, पे्र� कित्रभुज हो भव्यकृष्ण, रामिधका, रुण्डिक्�णी, उदाहरण दृष्टव्य
हर सुयोग दुय|ग का, बनता योगायोग मि�ल बैठे संयोग है, किबछडे़ तो दुय|ग
हारे उसकी जीत है, जीते उसकी हारपे्र�- नदी को डूबकर, करना पड़ता पार
क्यों कितलिर्थ देखें? क्यों करें?, शुक्ल पक्ष की खोजचंद्र�ुखी! तु� सार्थ तो, ह�ें पूर्णिण�ंा रोज़
तुम्हीं अप्सरा, तु� सती, क्या अद्भतु संयोग क्या किवलिचत्र अनुभव हुआ, सार्थ भोग के जोग
हँसी खु़शी इस हार्थ हो, आँसू हो उस हार्थ जीकर तो देखो कभी, खु़शी और ग़� सार्थ
‘कहा बबु्र ने पांडवो! झूठ तुम्हारा गव� एक सुदश�न चक्र ने, ’कौरव �ारे सव�
बड़ों- बड़ों से भी कभी, हो जाती है भूल भीष्� हेतु अंबा-हरण, बना �ृत्यु का शूल
भीड़ बजाएगी बहुत, उत्साहों के शंख उड़ा सकें गे पर तुम्हें, लिसफ़� तुम्हारे पंख
पे्र� भले आया तुम्हें, ह�ें न आया रास तु� इसलिलए प्रसन्न हो, ह� इसलिलए उदास
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साखी सतगुरु से �ांगंू यही, �ोकिह गरीबी देहु।
दूर बडप्पन कीजिजए, नान्हा ही कर लेहु॥
बचन लगा गुरुदेव का, छुटे राज के ताज। हीरा �ोती नारिर सुत सजन गेह गज बाज॥
प्रभु अपने सुख सूं कहेव, साधू �ेरी देह। उनके चरनन की �ुझे प्यारी लागै खेह॥
पे्र�ी को रिरकिनया रं यही ह�ारो सूल। चारिर �ुलिक्त दइ ब्याज �ैं, दे न सकंू अब �ूल॥
भक्त ह�ारो पग धरै, तहां धरंू �ैं हार्थ। लारे लागो ही कि<रंू, कबं न छोडंू सार्थ॥
किप्रर्थवी पावन होत है, सब ही तीरर्थ आद। चरनदास हरिर यौं कहैं, चरन धरैं जहं साध॥
�न �ारे तन बस करै, साधै सकल सरीर। कि<कर <ारिर क<नी करै, ताको ना� <कीर॥
जग �ाहीं ऐसे रहो, ज्यों जिजव्हा �ुख �ाहिहं। घीव घना भच्छन करै, तो भी लिचकनी नाहिहं॥
चरनदास यों कहत हैं, सुकिनयो संत सुजान। �ुलिक्त�ूल आधीनता, नरक �ूल अणिभ�ान॥
सदगुरु शब्दी लाकिगया नावक का सा तीर। कसकत है किनकसत नहीं, होत पे्र� की पीर
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धूप क दोहे किपघले सोने सी कहीं किबखरी पीली धूप।
कहीं पेड़ की छाँव �ें इठलाता है रूप।
तपती धरती जल रही, उर किवयोग की आग। �ेघा किप्रयत� के किबना, व्यर्थ� हुए सब राग।
झरते पत्ते कर रहे, आपस �ें यों बात- जीवन का यह रूप भी, लिलखा ह�ारे �ार्थ।
क्षीणकाय किनब�ल नदी, पडी रेत की सेज।“ आँचल �ें जल नहीं-” इस, पीडा से लबरेज़।
दोपहरी बोजिझल हुई, शा� हुई किनष्प्राण। नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे किवतान।
उजली- उजली रात के, अगणिणत तारों संग। �ंद पवन की क्रोड़ �ें, उपजे प्रणय-प्रसंग।
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दोहे किनकल पड़ा र्था भोर से पूरब का �ज़दूर
दिदन भर बोई धूप को लौटा र्थक कर चूर।
किपघले सोने सी कहीं किबखरी पीली धूप कहीं पेड़ की छाँव �ें इठलाता है रूप।
तपती धरती जल रही, उर किवयोग की आग �ेघा किप्रयत� के किबना, व्यर्थ� हुए सब राग।
झरते पत्ते कर रहे, आपस �ें यों बात- जीवन का यह रूप भी, लिलखा ह�ारे �ार्थ।
क्षीणकाय किनब�ल नदी, पड़ी रेट की सेज“ आँचल �ें जल नहीं-” इस, पीड़ा से लबरेज़।
दोपहरी बोजिझल हुई, शा� हुई किनष्प्राण. नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे किवतान।
उजली- उजली रात के, अगणिणत तारों संग. �ंद पवन की क्रोड़ �ें, उपजे प्रणय-प्रसंग।
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मोको कहां �ोको कहां DूDें तू बंदे �ैं तो तेरे पास �े ।
ना �ैं बकरी ना �ैं भेडी ना �ैं छुरी गंडास �े ।
नही खाल �ें नही पंूछ �ें ना हड्डी ना �ांस �े ॥ ना �ै देवल ना �ै �सजिजद ना काबे कैलाश �े ।
ना तो कोनी किक्रया- क�� �े नही जोग- बैराग �े ॥ खोजी होय तुरंतै मि�लिलहौं पल भर की तलास �े
�ै तो रहौं सहर के बाहर �ेरी पुरी �वास �े कहै कबीर सुनो भाई साधो सब सांसो की सांस �े ॥
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मेरी चु�री में परिरगयो दाग निपया �ेरी चुनरी �ें परिरगयो दाग किपया।
पांच तत की बनी चुनरिरया
सोरह सौ बैद लाग किकया।
यह चुनरी �ेरे �ैके ते आयी
ससुरे �ें �नवा खोय दिदया।
�ल �ल धोये दाग न छूटे
ग्यान का साबुन लाये किपया।
कहत कबीर दाग तब छुदिट है
जब साहब अपनाय लिलया।
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माया महा ठग�ी हम जा�ी �ाया �हा ठगनी ह� जानी।।
कितरगुन <ांस लिलए कर डोले
बोले �धुरे बानी।।
केसव के क�ला वे बैठी
लिशव के भवन भवानी।।
पंडा के �ूरत वे बैठीं
तीरर्थ �ें भई पानी।।
योगी के योगन वे बैठी
राजा के घर रानी।।
काहू के हीरा वे बैठी
काहू के कौड़ी कानी।।
भगतन की भगकितन वे बैठी
बृह्मा के बृह्माणी।।
कहे कबीर सुनो भई साधो
यह सब अकर्थ कहानी।।
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बीत गये दिद� भज� निब�ा रे बीत गये दिदन भजन किबना रे । भजन किबना रे, भजन किबना रे ॥
बाल अवस्था खेल गवांयो । जब यौवन तब �ान घना रे ॥
लाहे कारण �ूल गवाँयो । अजहुं न गयी �न की तृष्णा रे ॥
कहत कबीर सुनो भई साधो । पार उतर गये संत जना रे ॥
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�ीनित के दोहे पे्र� न बाड़ी ऊपजै, पे्र� न हाट किबकाय।
राजा परजा जेकिह रूचै, सीस देइ ले जाय।। जब �ैं र्था तब हरिरनहीं, अब हरिरहैं �ैं नाहिहं।
पे्र� गली अकित सॉंकरी, ता�ें दो न स�ाहिहं।। जिजन DँूDा कितन पाइयॉं, गहरे पानी पैठ।
�ैं बपुरा बूडन डरा, रहा किकनारे बैठ।। बुरा जो देखन �ैं चला, बुरा न मि�लिलया कोय।
जो �न खोजा अपना, �ुझ- सा बुरा न कोय।। सॉंच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके किहरदै सॉंच है, ताके किहरदै आप।। बोली एक अन�ोल है, जो कोई बोलै जाकिन।
किहये तराजू तौलिलके, तब �ुख बाहर आकिन।। अकित का भला न बोलना, अकित की भली न चूप।
अकित का भला न बरसना, अकित की भली न धूप।। काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल �ें परलै होयगी, बहुरिर करैगो कब्ब। हिनंदक किनयरे राखिखए, ऑंगन कुटी छवाय।
किबन पानी, साबुन किबना, किन��ल करे सुभाय।। दोस पराए देखिखकरिर, चला हसंत हसंत।
अपने या न आवई, जिजनका आदिद न अंत।। जाकित न पूछो साधु की, पूछ लीजिजए ग्यान।
�ोल करो तलवार के, पड़ा रहन दो म्यान।।सोना, सज्जन, साधुजन, टूदिट जुरै सौ बार।
दुज�न कंुभ- कुम्हार के, एकै धका दरार।। पाहन पुजे तो हरिर मि�ले, तो �ैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।। कॉंकर पार्थर जोरिर कै, �ण्डिस्जद लई बनाय।
ता चढ़ �ुल्ला बॉंग दे, बकिहरा हुआ खुदाए।।
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दिदर्वाा�े म�, भज� निब�ा दुख पैहौ दिदवाने �न, भजन किबना दुख पैहौ ॥
पकिहला जन� भूत का पै हौ, सात जन� पलिछताहौउ । काँटा पर का पानी पैहौ, प्यासन ही �रिर जैहौ ॥ १॥
दूजा जन� सुवा का पैहौ, बाग बसेरा लैहौ । टूटे पंख �ॅंडराने अध<ड प्रान गॅंवैहौ ॥ २॥
बाजीगर के बानर होइ हौ, लककिडन नाच नचैहौ । ऊॅं च नीच से हाय पसरिर हौ, �ाँगे भीख न पैहौ ॥ ३॥
तेली के घर बैला होइहौ, आॅंॅंखिखन Dाँकिप Dॅंपैहौउ । कोस पचास घरै �ाँ चलिलहौ, बाहर होन न पैहौ ॥ ४॥
पॅंचवा जन� ऊॅं ट का पैहौ, किबन तोलन बोझ लदैहौ । बैठे से तो उठन न पैहौ, खुरच खुरच �रिर जैहौ ॥ ५॥
धोबी घर गदहा होइहौ, कटी घास नहिहं पैंहौ । लदी लादिद आपु चदिD बैठे, लै घटे पहुँचैंहौ ॥ ६॥
पंलिछन �ाँ तो कौवा होइहौ, करर करर गुहरैहौ । उकिड के जय बैदिठ �ैले र्थल, गकिहरे चोंच लगैहौ ॥ ७॥
सत्तना� की हेर न करिरहौ, �न ही �न पलिछतैहौउ । कहै कबीर सुनो भै साधो, नरक नसेनी पैहौ ॥ ८॥
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तेरा मेरा म�ुर्वाां तेरा �ेरा �नुवां कैसे एक होइ रे ।
�ै कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी ।
�ै कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे ॥ �ै कहता तू जागत रकिहयो, तू जाता है सोई रे ।
�ै कहता किनर�ोही रकिहयो, तू जाता है �ोकिह रे ॥जुगन- जुगन स�झावत हारा, कहा न �ानत कोई रे ।
तू तो रंगी कि<रै किबहंगी, सब धन डारा खोई रे ॥ सतगुरू धारा किन��ल बाहै, बा�े काया धोई रे ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ॥
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तू�े रात गँर्वाायी सोय के दिदर्वास गँर्वााया खाय के तूने रात गँवायी सोय के दिदवस गँवाया खाय के । हीरा जन� अ�ोल र्था कौड़ी बदले जाय ॥
सुमि�रन लगन लगाय के �ुख से कछु ना बोल रे । बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे । �ाला <ेरत जुग हुआ गया ना �न का <ेर रे ।
गया ना �न का <ेर रे । हार्थ का �नका छाँकिड़ दे �न का �नका <ेर ॥
दुख �ें सुमि�रन सब करें सुख �ें करे न कोय रे । जो सुख �ें सुमि�रन करे तो दुख काहे को होय रे ।
सुख �ें सुमि�रन ना किकया दुख �ें करता याद रे । दुख �ें करता याद रे । कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रिरयाद ॥
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झी�ी झी�ी बी�ी चदरिरया झीनी झीनी बीनी चदरिरया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिरया ॥ १॥
इडा किपङ्गला ताना भरनी, सुख�न तार से बीनी चदरिरया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिरया ॥ ३॥
साँ को लिसयत �ास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिरया ॥ ४॥
सो चादर सुर नर �ुकिन ओDी, ओदिD कै �ैली कीनी चदरिरया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करिर ओDी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिरया ॥ ६॥
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जीर्वा�- मृतक का अंग` कबीर �न �ृतक भया, दुब�ल भया सरीर ।
तब पैंडे लागा हरिर कि<रै, कहत कबीर , कबीर ॥1॥
– भावार्थ� कबीर कहते हैं - �ेरा �न जब �र गया और शरीर सूखकर कांटा हो गया, तब, हरिर �ेरे पीछे लगे कि<रने �ेरा ना� पुकार-पुकारकर-` अय कबीर ! अय कबीर !’- उलटे वह �ेरा जप करने लगे ।
जीवन र्थैं �रिरबो भलौ, जो �रिर जानैं कोइ । �रनैं पहली जे �रै, तो कलिल अजरावर होइ ॥2॥
– भावार्थ� इस जीने से तो �रना कहीं अच्छा ; �गर �रने- �रने �ें अन्तर है । अगर कोई �रना जानता हो, जीते- जीते ही �र जाय । �रने से पहले ही जो �र गया, वह दूसरे ही क्षण अजर और अ�र हो गया ।[ जिजसने अपनी
वासनाओं को �ार दिदया, वह शरीर रहते हुए भी �ृतक अर्था�त �ुक्त है।]
आपा �ेट्या हरिर मि�लै, हरिर �ेट्या सब जाइ । अकर्थ कहाणी पे्र� की, कह्यां न कोउ पत्याइ ॥3॥
– भावार्थ� अहंकार को मि�टा देने से ही हरिर से भेंट होती है, और हरिर को मि�टा दिदया, भुला दिदया, तो हाकिन-ही- हाकिन है ।पे्र� की कहानी अकर्थनीय है । यदिद इसे कहा जाय तो कौन किवश्वास करेगा ?
` ’ कबीर चेरा संत का, दासकिन का परदास । कबीर ऐसैं होइ रह्या, ज्यंू पाऊँ तलिल घास ॥4॥
– भावार्थ� कबीर सन्तों का दास है, उनके दासों का भी दास है ।वह ऐसे रह रहा है, जैसे पैरों के नीचे घास रहती है ।
रोड़ा है्व रहो बाट का, तजिज पारं्षड अणिभ�ान । ऐसा जे जन है्व रहै, ताकिह मि�लै भगवान ॥5॥
– भावार्थ� पाख�ड और अणिभ�ान को छोड़कर तू रास्ते पर का कंकड़ बन जा । ऐसी रहनी से जो बन्दा रहता है, उसे ही �ेरा �ालिलक मि�लता है ।