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International Journal of Information Movement Vol.2 Issue I (May 2017) Website: www.ijim.in ISSN: 2456-0553 (online) Pages 52-64 `52 | Page फोध क भाय शाॊडडम& ऩयाॊक शाचामय व-चरय का वरेषणाभक अममन& पराक शाचायय क - चरर का ववऱेषणामक अययन सुफोध क भाय शाॊडडम शोधाथी ( हदी ववबाग ) भ० वव० , फोधगमा Email: [email protected] - चरय वाभी ऩयाॊक शाचामय की एक गीताभक यचना है। उहने ऩौयाणणक आमान को गीताभकता दान कयते ह ए उसभ भौलरकता का आधान कमा है। - चरय ीभदागवत भहाऩ याण के चत थय कॊ ध भ सववताय वणणयत है। वे शा के सचे ऩा यखी थे। उहोन शा भ अवत तव को भन - भानस भ यखते ह - चरय को रोक - रब बाषाओॊ भ त त ककमा है , ताकक आभजन इस ऩावन चरय का वन - बजन - भनन कय वमॊ के जीवन को ऩयभाभतव भ रगाकय अऩने को क ताथय कय सक । भहवषमास ने इस हदम एवॊ अरौककक चरय के भामभ से नननलरणखत रोकाम सॊदेश को कालशत कमा है। मथा : - याजा की काभाॊधता नाश का कायण फनती है , सवनतमा डाह घय - ऩरयवाय भ अशाॊनत का स जन कयती है , बततभागय भ आम की सीभा नहीॊ होत, कठोय तऩ के फर ऩय ऩयभाभा को बी आने के लरए वववश ककमा जा सकता है। सॊत सभागभ का अभोघ बाव होता है तथा सकाभ बत ननकाभ बतत से म न होती है। वाभी ऩयाक शाचामय - चरय की श रआत भाता की भहहभा के ग णगान के साथ की है। वे ऻानी सॊत थे। वे भाॉ के भभव एवॊ भहव को फख फी सभझते थे। वे जानते थे कक भाता लभ औय ग र बी होती है। भाता के सानम भ असबव को बी सबव ककमा जा सकता है। मही कायण है क वे लरखते ह : - भाता स मोम ऩाकय स तमा न कय सके ?‟ वाभी जी कहते है क अॊजनी के ताऩ से हन भान रॊका को जरा सके , नायद से ऻान ऩाकय कमाध ने राद जैसा ऩ यन उऩन ककमा , भहान् भाता ऩ था के कायण ही ऩाथय का आगभन ह , जो गीता का ऻान ऩाकय अनतशम स दय ह ए। स दय स नी नत भाता के कायण ही ऩाॉच वषय का फारक व हरयचयण का मान कय सका। नमभ - वतय वयक अहदनत ने ऩ को जभ हदमा , जसके कायण उचास खड होने ऩय बी उसके ऩ का नाश नहीॊ ह आ। इसके साथ ही वाभी जी ने भाता के क रदोष के बाव का बी वणयन ककमा है , जो सॊतान के लरए ग नत का कायण नहीॊ फनकय अग नत व् नाश का कायण फनता है। मथा : - भाता के क रदोष से न ऩ वेण अस बमे।

प ाांकु ाचा यकृत ध्रु चर त्र का व ... · 2017-07-02 · ऩाई-ऩाई धन्म हहह 2 नतनही भनाउ

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  • International Journal of Information Movement Vol.2 Issue I (May 2017)

    Website: www.ijim.in ISSN: 2456-0553 (online) Pages 52-64

    `52 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    पराांकुशाचायय कृत ध्रुव-चररत्र का ववश्ऱेषणात्मक अध्ययन सुफोध कुभाय शाॊडडल्म शोधाथी(हहन्दी ववबाग) भ० वव०, फोधगमा

    Email: [email protected]

    ध्रुव-चरयत्र स्वाभी ऩयाॊकुशाचामय की एक गीतात्भक यचना है। उन्होंने ऩौयाणणक आख्मान को गीतात्भकता प्रदान कयते हुए उसभें भौलरकता का आधान ककमा है। ध्रुव-चरयत्र श्रीभद्भागवत भहाऩुयाण के चतुथय स्कॊ ध भें सववस्ताय वणणयत है। वे शास्त्रों के सच्चे ऩायखी थे। उन्होनें शास्त्रों भें अन्न्वत तत्त्वों को भन-भानस भें यखते हुए ध्रुव-चरयत्र को रोक-सुरब बाषाओॊ भें प्रस्तुत ककमा है, ताकक आभजन इस ऩावन चरयत्र का श्रवन -बजन-भनन कय स्वमॊ के जीवन को ऩयभात्भतत्त्व भें रगाकय अऩने को कृताथय कय सकें । भहवषय व्मास ने इस हदव्म एवॊ अरौककक चरयत्र के भाध्मभ से ननम्नलरणखत रोकग्राह्म सॊदेशों को प्रकालशत ककमा है। मथा:-याजा की काभाॊधता नाश का कायण फनती है , सवनतमा डाह घय-ऩरयवाय भें अशाॊनत का सृजन कयती है, बन्ततभागय भें आमु की सीभा नहीॊ होती, कठोय तऩ के फर ऩय ऩयभात्भा को बी आने के लरए वववश ककमा जा सकता है। सॊत सभागभ का अभोघ प्रबाव होता है तथा सकाभ बन्तत ननष्काभ बन्तत से न्मून होती है। स्वाभी ऩयाङ्कुशाचामय ध्रुव-चरयत्र की शुरुआत भाता की भहहभा के गुणगान के साथ की है। वे ऻानी सॊत थे। वे भाॉ के भभत्व एवॊ भहत्त्व को फखूफी सभझते थे। वे जानते थे कक भाता लभत्र औय गुरु बी होती है। भाता के सान्न्नध्म भें असम्बव को बी सम्बव ककमा जा सकता है। मही कायण है कक वे लरखते हैं :- „भाता सुमोग्म ऩाकय सुत तमा न कय सके?‟ स्वाभी जी कहते है कक अॊजनी के प्रताऩ से हनुभान रॊका को जरा सके, नायद से ऻान ऩाकय कमाधू ने प्रह्राद जैसा ऩुत्र यत्न उत्ऩन्न ककमा, भहान ् भाता ऩृथा के कायण ही ऩाथय का आगभन हुआ, जो गीता का ऻान ऩाकय अनतशम सुन्दय हुए। सुन्दय सुनीनत भाता के कायण ही ऩाॉच वषय का फारक ध्रुव हरयचयण का ध्मान कय सका। ननमभ-वतय ऩूवयक अहदनत ने ऩुत्र को जन्भ हदमा, न्जसके कायण उन्चास खण्ड होने ऩय बी उसके ऩुत्र का नाश नहीॊ हुआ। इसके साथ ही स्वाभी जी ने भाता के कुरदोष के प्रबाव का बी वणयन ककमा है, जो सॊतान के लरए प्रगनत का कायण नहीॊ फनकय अगनत व ् नाश का कायण फनता है। मथा:-

    „भाता के कुरदोष से नृऩ वेणु अस बमे।

    mailto:[email protected]

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    Website: www.ijim.in ISSN: 2456-0553 (online) Pages 52-64

    `53 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    एक भैं हूॉ जगदीश्वय, ईश्वय न भान के।। ‟ i ध्मातव्म है कक याजा वेणु जो सुनीथा एवॊ अॊग का ऩुत्र था, फड़ा दुष्ट एवॊ अत्माचायी था। वह कहता था कक जगत ्का भालरक भैं ही हूॉ , इसलरए भुझे बज। वेणु भें मह गुण अधभय के वॊश भें उत्ऩन हुए अऩने नाना „भृत्मु‟ का अनुगाभी होने के कायण आमा। उसकी भाता सुनीथा भृत्मु की ही ऩुत्री थी। [ बागवत चतुथय स्कॊ ध, अध्माम-14 श्रोक-39 भें वणणयत ] स्वाभी जी तत्ऩश्चात ् भनु ऩुत्र उत्तानऩाद, उनकी दोनों ऩन्त्नमाॉ सुनीनत एवॊ सुरुचच तथा ऩुत्र ध्रुव व उत्तभ का ऩरयचम देते हुए सुरुचच भें ववशेष अनुयतत याजा की काभान्धता के कायण न्माम ऩथ से ववचरन के साथ -साथ ध्रुव का वऩता की गोद भें फैठने की ननयीह चाह को फड़े ही सहजता से व्मॊन्जत कयते हैं।

    „फाफूजी रो गोद हभें बी, बोरो सूयत भें अकड़ा। याजा ककॊ कत्तयव्म भूढ़,

    यानी बम नेक न फोर सके। अत्माचाय ककमे अनतशम वे, जो न रृदम ऩट खोर सके। ‟ ii

    स्वाभी जी यजोगुण का पर फताते हुए कहते हैं कक जो याजा दुष्ट घयनी के चतकय भें ऩड़ता है, उसका ऩतन ननन्श्चत है। मथा: –

    „याजा ऐसे होते ही हैं घयनी न्जनको ठगती ही है दूषण से फचते न कबी वे अऩने अमसी फनते ही हैं। ‟ iii

    यानी सुरुचच की सवनतमा डाह औय ध्रुव के प्रनत उसकी कुन्त्सत दृन्ष्ट को स्वाभी जी नें ननम्न ऩदों के भाध्मभ से वाणी दी है।

    „सौत-ऩुत्र ध्रुव को रखकय वह बृकुटी तक फक-फक कयती सुरुचच झटक ध्रुव को कहती हीन औय कटु वचन भहा।‟ iv

    सुरुचच को अऩने ऩुत्र उत्तभ के प्रनत तो अगाध स्नेह है , रेककन एक ववभाता के रूऩ भें वह ध्रुव से नपयत कयती है तथा चाहती है कक ध्रुव वऩता के आसऩास बूरवश बी बटक न सके।

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    `54 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    „ये फारक अनजान कहा तुभ जात वऩता के कोये भें ।

    चर-चर हट-हट दूय-दूय हो उधय न जाना बोये भें । ‟v

    इतना ही नहीॊ वह अऩने को फडबागी सभझती है , तमोंकक सुनीनत को ननयादय कय याजा नें जो उसे अगाध प्रेभ हदमा है , तबी तो वह कहती है :-

    „ये ध्रुव भेया ऩुत्र तुभ नहीॊ कय हहसका भत उत्तभ का ।

    चाहो भेया सुत फनना तो ध्मान कयो ऩुरुषोत्तभ का ।‟vi

    उतत ऩद भें सुरुचच की अहभ ्बावना का बी प्रस्पुटन हुआ है। महद ऐसा नहीॊ होता तो वो अऩनी कोख से जनन को ईश्वय की ववशेष अनुकम्ऩा नहीॊ सभझती। साथ ही प्रकायान्तय से प्रबु से रौ रगाने की सॊदेश बी देती है। श्री स्वाभी जी वऩता की गोद से वॊचचत्त एवॊ ववभाता द्वाया अऩभाननत ध्रुव की भन् न्स्थनत की तुरना उस नाग से की है, जो शीश ऩय चाऩ ऩड़ते ही पुॊ पकाय उठता है औय ध्रुव भें तो ऺत्रत्रमों का तेज है।

    „ध्रुव भें ऺत्रत्र का तेज यहा अऩभान बरा सहता कैसे।

    ज्मों नाग शीश ऩय चाॊऩ ऩड़ी रम्फी श्वाॊसा रेता तैसे। ‟vii

    ध्रुव ववभाता के कठोय वचनों से घामर होकय यो ऩड़ता है तथा पपकते हुए अऩनी भाॉ सुनीनत के ऩास आता है। भाता सुनीनत इस अवस्था भें ऩुत्र को देखकय व्माकुर हो उठती है तथा इस दुदयशा का कायण ऩूछती है। भाता द्वाया ऩूछे जाने ऩय ध्रुव का फार सुरब भन सफकुछ साफ़-साफ़ फता देता है। सुनते ही सुनीनत अधीय हो उठती है। आॉखों के साभने अॉधेया छा जाता है। नेत्र से अश्रु की धाय प्रवाहहत होने रगती है। तबी करुणा की प्रनतभूनत य भाॉ सुनीनत ध्रुव को अऩने अॊको भें बयकय फाय-फाय सुत का भुख चुम्फन कयती है, भानो ऩुत्र को अबम प्रदान कय यही हो। मथा:-

    „आॉसू की धाय चरी फहकय, अॊचधमारी आॉखों भें छाई।

    सुत को छाती से लरऩटाकय, भभता की ऩुतरी सी यानी।

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    `55 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    धीयज धय सुत भुख चूभ-चूभ फोरी कल्माणभमी वाणी। ‟viii

    स्वाभी जी द्वाया भभायहत भाता सुनीनत के करुणासॊवलरत वाणी को भगही भें यचचत्त एक अष्टऩदीम गीत के भाध्मभ से व्मतत ककमा गमा है। इस अष्टऩदीम गीत भें जो ध्रुव चरयत्र के ऩृष्ठ सॊख्मा-04 भें वणणयत है, भुख्मत् तीन तत्त्वों का उद्भावना हुआ है- (1) गीतोतत कभय-लसद्ाॊत (2) ऩदऩॊकज-प्रेभ औय (3) एक आमय ररना का भहनीम औय भॊगरकायी ववचाय। आगे इन तीनों तत्त्वों ऩय एक -एक कय ववचाय कयना अऩेक्षऺत होगा।

    (1) गीतोक्त कमय ससद्ाांत:- रीरा ऩुरुषोत्तभ कृष्ण नें गीता भें कहा है कक भनुष्म का कोई बी ऺण कभय से यहहत नहीॊ होता है। सबी प्राणी प्रकृनत के तीन गुणों (सत्त्व, यज औय तभ) के अधीन ऩयवश होकय कभय कयते हैं। त्रफना कभय के कोई यह ही नहीॊ सकता। गीता के अनुसाय भनुष्म को केवर कभय कयने का अचधकाय है, उसके पर ऩय नहीॊ। बगवान ् कृष्ण कभय, अकभय औय ववकभय- इन तीन रूऩों का उऩदेश देते हैं औय ननष्काभ कभय ऩय फर देते हैं। ऩुयाणों भें कभय लसद्ाॊत का उदातीकयण ककमा गमा है। बगवान ् ही कभो के हेतुबूत रूऩ हैं। वहीॊ कभों का ननमाभक हैं। देही जीव कभय का बोतता है। साये जीव कभय अनुसाय पर बोगते हैं , तमोंकक शुबाशुब कभों का कयोड़ो कल्ऩों भें बी नाश नहीॊ होता है। भनुष्म कभय से देव, कभय से भनुष्म, कभय से ऩशु, कभय से याजा औय कभय से दरयद्र फनता है। कभय से ही दु् ख औय कभय से ही सुख की प्रान्तत होती है। कभयशन्तत का नाश नहीॊ होता है। कभयशन्तत की प्रवाह भें ननयॊतयता होती है। आध्मान्त्भक दृन्ष्ट से इस कभय प्रवाह की अववयर धया को जन्भ-भयण का चक्र मा सॊसाय कहते हैं। कभय की गनत अत्मॊत गहन है , अववऻेम है। ध्रुव की भाता सुनीनत कभय की ववरऺण गनत की ओय ध्मान आकृष्ट कयती है –

    „फाफू हो कयभगनत भेटे से लभटात नाही, कैसे के फुझाऊॉ फाफू कैसे सभझाऊॉ हो।‟

    स्वाभी जी कभय-गनत की ववरऺणता को ऩौयाणणक दृष्टान्तों से ऩुष्ट कयते हैं। लशवजी अऩने भस्तक ऩय चन्द्रभा को धायण कयते हैं , ऩयन्तु उन्हें हराहर का ऩान कयना ऩड़ता है। सभुद्र स्वमॊ यत्नों का आकय अथायत ् खान है, ऩयन्तु उसका ऩुत्र शॊख घय-घय बीख भाॊगता है। मही कभय-गनत की ववरऺणता है, यहस्म है। स्वाभी जी के शब्दों भें –

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    `56 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    „फहत सुधाकय के वऩमत हराहर के, रारा मे कयभ पर कहरो न जाए हो। ऩुत यत्नाकय के घय-घय बीख भाॊगे,

    फफुआ कयभ देखो रख न रखाए हो। ‟ ix (2) प्रभु पद-पांकज में पे्रम :- इस अष्टऩदीम गीत भें भाता सुनीनत अऩने ऩुत्र

    ध्रुव को प्रबु के चयणायववॊद भें गनत-यनत कयने का उऩदेश देती है। प्रबु के चयण-कभर सॊसाय-सागय को ऩाय कयने के लरए नौका है। श्री हरय के चयण ही सेवन कयने मोग्म है , वे ही सॊतों के द्वाया फाय-फाय सेववत तथा बव-सागय से ऩाय होने के लरए साय वस्तु है। इसलरए भनुष्म को उन चयणों का आश्रम रेना चाहहए। भहाभुनन सुकदेव का सुचच ॊनतत अलबभत है कक न्जन्होंने ऩुण्मकीनतय भुकुॊ द-भुयायी के ऩद-ऩल्रव की नौका का आश्रम लरमा है , जो कक सत्ऩुरुषों का सवयस्व है, उनके लरए मह बव-सागय फछड़े के खुय के गढ़े के सभान है। उन्हें ऩयभऩद की प्रान्तत हो जाती है औय उनके लरए ववऩन्त्तमों का ननवासस्थान (सॊसाय) नहीॊ यहता।

    „सभाचश्रता मे ऩद्ऩल्रवतरवॊ भहत्त्वऩद्मॊ ऩुण्ममशो भुयाये। बावाम्फुचधवयत्सऩदभ ्ऩयॊ ऩदॊ

    ऩदॊ ऩदॊ मद् ववऩदाॊ न तेषाभ।्।‟ [ श्रीभद्भागवत 10/14/58 ] उऩमुयतत शास्त्रीम वचनों को सुनीनत के भाध्मभ से इस प्रकाय ननवेलशत ककमा गमा है –

    „हभहु कहती फाफू भन भें ववचाय देखु, हरय चयणन सेई सकर फनाऊ हो।

    जे हह चयणन सेई ब्रह्भ इन्द्र रूद्र ऩद, ऩाई-ऩाई धन्म होहहॊ नतनहीॊ भनाउ हो। छोडू फाफू सफ सुख भान अऩभान सफ, अफ बगवत ्ऩद तुभ अऩनाऊ हो। ‟x

    (3) आयय ऱऱना का महनीय ववचार :- साभान्मत् मह देखा जाता है कक भाता-वऩता अऩनी सॊतानों को अथय एवॊ काभ के लरए ही प्रेरयत एवॊ प्रवृत्त कयते हैं। ववशेषत् वे अऩने फारकों को अथोऩाजयन एवॊ उदयऩूनत य की मुन्तत ही फताते हैं। रेककन धन्म हैं , वे भाता-वऩता जो अऩने ऩुत्रों को बगवत -्सेवा भें रगने का

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    `57 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    भॊत्र देते हैं। बायतीम इनतहास भें ऐसी ररनाओॊ के वहुश् दृष्टाॊत लभरते हैं , न्जन्होंने अऩने फारकों को प्रबु-बन्तत के लरए अलबप्रेरयत ककमा है। इनभें उऩासना स्वरूऩा भाता सुलभत्रा को प्रथभ ऩॊन्तत भें स्थान हदमा जाता है। वे अऩने ऩुत्र रक्ष्भण को न केवर श्रीयाभ की सेवा भें बेजती है, वयन ्उन्हें मह बी उऩदेश देती है कक याग, योष, इष्माय, भद, भोहाहद को त्मागकय ऩूयी ननष्ठा के साथ सीतायाभजी की सेवा कयें । इस सम्फन्ध भें श्री याभचरयतभानस की ननम्न ऩॊन्ततमाॊ द्रष्टव्म है–

    „सकर प्रकाय ववकाय त्रफहाई । भनक्रभ फचन कयेहु सेवकाई ।‟

    ऐसी ही बायतीम ररनाओॊ भें भाता सुनीनत का बी नाभ श्रद्ा औय सम्भान के साथ लरमा जाता है। वास्तव भें इस अष्टऩदीम गीत ध्रुव-चरयत्र का कें द्र त्रफ ॊदु है, जहाॉ से ध्रुव ऊजाय प्रातत कय फाद भें ऩयभऩद का अचधकायी फनता है।

    भाता सुनीनत की अभृतभमी वाणी सुनकय ध्रुव भाॉ की गोद से उतयकय चयण ऩय चगय ऩड़ा। उसका भोह जाता यहा तथा बगवत्कृऩा ऩाने के लरए उद्त हो उठा। वह भाता से आशीवायद प्रातत कय वन को जाना चाहता है , तमोंकक उसके रृदम भें बगवान ्के प्रनत श्रद्ा उभड़ ऩड़ी है।

    „दे भाता शुब आशीष हभें , आऻा धय शीश चरूॊ वन भें , यह के बगवत ्ऩद सेवन भें , है श्रद्ा उभड़ ऩड़ी भन भें। ‟xi

    शास्त्र सम्भत है कक न्जस ऩय बगवान ् का अनुग्रह होता है, उसकी ववघ्न-फाधा दूय हो जाती है तथा वह ऻाननमों की शे्रणी भें चगना जाता है। स्वाभी जी के शब्दों भें –

    „ईश्वय न्जसको अऩनाता है । सो तुयत द्वीज फन जाता है ।

    x xx

    न्जसको वह जगत ्बगाता है । नतसको बगवत ्अऩनाता है ।‟xii

    भाता का आशीवायद प्रातत कय ध्रुव जैसे ही वन को जाना चाहता है, भाता सुनीनत व्माकुर हो उठती है। कहा गमा है कक न्जस व्मन्तत से न्जसका न्जतना अचधक आत्भीम सम्फॊध होता है, उतना ही अननष्ट की आशॊका ज्मादा होती है। काभामनीकाय प्रसाद जी ने बी

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    Website: www.ijim.in ISSN: 2456-0553 (online) Pages 52-64

    `58 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    लरखा है- „स्वजन-स्नेह भें बम की ककतनी आशॊकाएॉ उठ आती ‟। सूयदास ने बी वात्सल्म चचत्रण भें भाॉ मशोदा की व्मथा को इस प्रकाय वाणी दी है –

    „दूयी खेरन जनन जाहु ररा ये, भायैगी काहु की गैमा‟।xiii स्वाभी जी ने बी भाॉ सुनीनत के रृदम भें उठ यहे अननष्ट की आशॊका को कुछ इस प्रकाय शब्द दी है –

    „फाफू दुफयर अचधक तोय गात, गयभ शीत फात सहफ फन जात, भनहीॊ अकुरात

    मही से डयात हो रार। ‟xiv सबी सद्ग्रॊथो की भान्मता है कक जो बगवन्भागय ऩय अग्रसय कय दे वहीॊ सच्चा हहतैषी है तथा जो सॊसाय की सॊसारयकता भें उरझा कय चचत्तवृन्त्तओॊ को हदग्रलभत कय दे वही शत्रु है। मथा: –

    „है जननी जनक सो जो, बगवत ्भें रगा दे, वह ऩयभ लभत्र सो जो बगवत ्भें रगा दे । है ऩूज्म गुरु सो जो, बगवत ्भें रगा दे,

    जल्राद है वही जो इस जग भें पॊ सा दे । ‟ अनन्त श्री स्वाभी ऩयाङ्कुशाचामय ने भोह-भग्न भाता सुनीनत की भन्न्स्थनत का चचत्रण न्जस भगही गीत के भाध्मभ से ककमा है , उसभे एक ऩनत से त्माज्म नायी की आकुरता का दशयन तो होता ही है, साथ भें एक अफरा नायी की नैहय/ऩीहय से सहाया के आश्रम का बी दशयन होता है। मह एक भनोवैऻाननक तथ्म है कक नैहय /ऩीहय के प्रनत नायी का ववशेष रगाव होता है, जो राजभी बी है। स्वाभी जी के शब्दों भें –

    „फाफू जनवन वनचयवा, तु ऩाॉच फयस का, वऩता तोये ऐसे त्मागे , घय भें न भन रागे ,

    रारा तुभ यहा भभहयवा। तु ऩाॉच --- भाभु तोया तमाय कये नानी रे दुराय कये, सफ सुख तोये नननहयवा। तु ऩाॉच --- ‟

    मह ध्रुव सत्म है कक बावी प्रफर है। भाॉ सुनीनत के भन के अन्तद्यवॊद ऩय ववयाभ रगाते हुए ध्रुव वन जाने को तैमाय होता है। भाॉ उसे आशीवायद देती है –

    „बगवान ्सदा कल्माण कयै, सफ देवन हूॉ सम्भान कयै ।

    x x x

    ग्रह तोहहॊ सदा शुबदान कयै । ‟

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    `59 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    भाॉ, भाता के साथ-साथ गुरु बी होती है। इस रूऩ भें भाॉ का आशीवायद औय उऩदेश दोनों परदामी होता है। भाता सुनीनत ध्रुव को आशीवायद देने फाद उऩदेश देती है –

    „कफहूॉ घय का सुध ना कयना, चचत्त दे प्रबु की सेवा कयना ।

    x xx

    बगवत ्ऩद जो अऩनाता है, x xx

    वह चाय ऩदायथ ऩाता है, हरय के वप्रमतभ फन जाता है। ‟xv

    भाता सुनीनत से आशीवयचन व ् उऩदेश प्रातत कय ऩाॉच वषीम फारक ध्रुव वन के लरए प्रस्थान कयता है। यास्ते भें देववषय नायद से साऺात्काय होता है। ध्रुव प्रणाभ कय देववषय नायद से बगवत ्प्रान्तत हेतु उऩाम सुझाने का ननवेदन कयता है। मथा: –

    „वह याह फतावहु जी हभही, न्जसभें बगवान ्लभरे हभही।‟

    देववषय नायद फहुववचध ध्रुव को सभझाते है कक घय को रौट जाओ तमोंकक तुम्हायी अवस्था अबी तऩ कयने की नहीॊ है। जॊगर भें ववववध प्रकाय के हहॊसक ऩशु यहते हैं , जो भनुज को खा जाते हैं। तुम्हायी उम्र खेरने-कूदने की है। आवेशवश दुयासाध्म बगवत ्ऩद ऩाने के लरए हठ नहीॊ कयो। मोगी व ्तऩस्वी कठोय तऩ कय बी बगवान ्की प्रान्तत नहीॊ कय ऩाते है। अत् हठ त्मागकय वाऩस रौट जाओ। इसी बाव को स्वाभी जी ननम्न शब्दों भें व्मतत कयते हैं –

    „दुयासाध्म बगवत ्ऩद है ध्रुव रौट जा घय को, x xx

    मोगी जन ननलश वासय खोजत सो कफहूॉ नहीॊ ऩावे, ऻानी से जो दूय यहत है तुभ कैसे के ऩावै । ‟

    भहवषय नायद के राख सभझाने के फावजूद बी ध्रुव नहीॊ भानता है। कहा बी गमा है कक तन का घाव बय जाता है , रेककन भन का घाव नहीॊ बयता है। वह रृदम को सारते यहता है। उसकी चुबन सवयदा भहशूश होती यहती है। ध्रुव को बी ववभाता के कठोय वचन से ऐसा ही घाव हुआ है –

    „तीय गोरी का घाव तन से जाता है , घोय दुखद ववषाद बी भन से जाता है । कहठन वचन का घाव न भन से जाता है , सो मह ध्रुव का इनतहास ही फताता है । ‟xvi

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    `60 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    भहवषय नायद के सभझाने के फाद बी ध्रुव अऩने दृढ़ ननश्चम ऩय अडडग यहता है। वह कहता है कक चाहे कुछ बी हो जाए ऩय घय नहीॊ रौटूॊगा। दृढ़ ननश्चमी फारक ध्रुव के बगवत ् के प्रनत अटर स्नेह के आगे नायद को झुकना ऩड़ता है। ध्रुव नायद द्वाया री गमी ऩयीऺा भें सपर होता है , ठीक उसी प्रकाय जैसे हनुभान सुयसा द्वाया री गमी ऩयीऺा भें सपर हुए थे। ध्रुव भें ऺत्रीम का तेज औय भाता सुनीनत के उऩदेश एवॊ आशीवायद का पर यहा कक वह बगवत ्प्रान्तत के भागय से ऩीछे नहीॊ भुड़ा। परत् भहवषय नायद को बगवत ्प्रान्तत का भागय सुझाना ऩड़ा। उन्होंने उऩदेश देते हुए ध्रुव से कहा कक भधुवन(भथुया) भें जाकय श्री हरय का ध्मान शाॊतचचत्त से कयो , उनकी कल्माणभमी-हदव्म-छवव को रृदम भें फैठा कय द्वादश भॊत्र का जाऩ कयो। इसी बाव को स्वाभी जी ने इस प्रकाय प्रकट ककमा है –

    „जो तुभ बगवान ्का दशयन ककमा चाहो, ऩयभप्रेभ से हरय को ध्मान मो धयो ।

    x xx

    भॊत्र द्वादशाऺय की जाऩ ननत्म कयो , भधुवन भें जाकय तुभ काभ मह कयो । ‟

    सूयसागय भें सूयदास नें बी कुछ इसी तयह का बाव सॊप्रेवषत ककमा है – „भथुया जाई सु सुलभयन कयौ। हरय को ध्मान रृदम भें धयो । द्वादश अच्छय भॊत्र सुनामौ। औय चतुबुयज रूऩ फतामौ। ‟xvii

    भहवषय नायद का उऩदेश सुनकय ध्रुव भधुवन के लरए प्रस्थान कय जाता है। स्वाभी जी ने भधुवन गभन के प्रसॊग को एक कीतयन के भाध्मभ से प्रस्तुत ककमा है, जो भनोहायी तो है ही, साथ भें उसभे शुब कामय प्रायम्ब कयने के सन्दबय भें भॊगरकायी शकुन का बी सॊकेत ककमा है , जो सनातान सॊस्कृनत की ववशेषता है –

    „आगे भें गईमा वऩराती, दही लरए जाती, सुहाचगनी गाती, फार खेराती, कहत हरय जै जै जै। ‟

    तत्ऩश्चात ् स्वाभी जी भधुवन अथायत ् भथुया के भहत्त्व को येखाॊककत कयते हैं। मह वहीॊ ऩावन बूलभ है, जहाॉ बगवान ्श्री कृष्ण अऩनी गामों को चयामा कयते थे तथा भुननजन तृण फनकय छाए थे। भधुवन के यज-कण को कोई फडबागी ही ऩाते थे। अत् ध्रुव आनॊहदत है औय कहता है –

    “ऩाऩ भथन के कायण से भथुया कहरामे, तेहह कायण गुरुदेव हभें इहवाॉ ऩठवामे ।”

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    `61 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    भधुवन ऩहुॊचकय ध्रुव कालरॊदी के तट ऩय आसन जभा रेता है। वह मभुना जी भें स्नान कय ऩूजन कयता है औय उऩवास कयता है। ध्मातव्म है कक श्रीभद्भागवत भें ऩाॉच भास ध्मान रगाने का वणयन है, जफकक स्वाभी जी छ् भास का उल्रेख कयते हैं। इस अवचध भें ध्रुव ववववध ववचधमों से ध्मान रगाता है तथा अल्ऩाहाय से प्रायम्ब कय आहाय का ननषेध कय देता है। इस प्रकाय के सभाचध का गुणगान सबी कयते हैं।

    „मह ननयोध-प्रेभा बन्तत को, रऺण भुननजन गाते हैं, वैहदक रौककक कक्रमा कभय सफ , आऩ आऩ छुट जाते हैं ।‟

    ध्रुव की घोय तऩस्मा के परस्वरूऩ सभस्त रोक एवॊ रोकऩारों भें हरचर होने रगी। सबी घफया गए तथा सबी का श्वास-प्रवास रुक गमा। सबी श्री हरय की शयण भें गए। बगवान ्शयणागत वत्सर हैं। अत् वे भथुया ऩधाय कय देवताओॊ के बम का हयण कयते हैं। स्वाभी जी ने सभाचधस्थ ध्रुव का सभाचध बॊग कयने हेतु बूतों-प्रेतों के डयावने कयतूत के साथ-साथ जॊगरी ऩशुओॊ मथा:, फाघ-लसॊहाहद का ध्रुव के प्रनत प्रेभ का बी मोजना की है, जो उनका भौलरक चचॊतन है।

    „काटू-काटू कह खाऊॊ -खाऊॊ सफ, बीभ रूऩ हदखराते हैं , प्रेत-बूत सफ ववववध बाॉनत से, भारू-भारू गुहयाते हैं ।

    x x x

    उस ध्रुव को रख फाघ-लसॊह आते हैं , ऩय फैय छाड़ प्रेभ को फढाते हैं । ‟xviii

    स्वाभी जी ध्रुव भें दृढ़ता औय अरौककक शन्तत के सॊधायण का बी वणयन कयते हैं। उन्होंने इसके लरए चाय कायकों को न्जम्भेवाय भानते हैं – (1) स्वमॊबू भनु के वॊश का प्रबाव (2) भाता के ऩववत्र सॊस्काय (3) नायद जैसे गुरु का दशयन एवॊ (4) उऩदेश का प्रबाव। याभानॊद सागय द्वाया ननदि लशत याभामण भें बी कौशल्मा याभ से ऩूछती है कक ऩुत्र भेये भन भें एक सॊशम है „तुभ भेया ऩुत्र याभ हो मा बगवान?्‟ इस प्रश्न के उत्तय भें याभ कहते हैं कक महद भाता की कृऩा औय आशीवायद हो तो ऩुत्र बगवान ्बी हो सकता है। स्वाभी जी ध्रुव-चरयत्र के भाध्मभ से उतत आशम को ही सॊप्रेवषत ककमा है , न्जसका हदग्दशयन महाॉ होता है। स्वाभी जी कहते है कक उतत चायों के प्रबाव का ही ऩरयणाभ है कक ध्रुव को धभय, अथय, काभ औय भोऺ की प्रान्तत हो यहा है। मथा :–

    „भनु स्वमॊबू वॊश का प्रबाव आ यहा, भाता रृदम ऩववत्र सॊस्काय छा यहा , नायद के दशयन के फड़ ऩुण्म बी यहा, तैसेहहॊ सदुऩदेश से ऩववत्र भन यहा,

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    `62 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    मह चायों ही लभरकय वह चाय दे यहा ‟xix स्वाभी जी तऩस्मायत ध्रुव के भानस-ऩटर ऩय उबयते ववलबन्न त्रफम्फों का बी वणयन ककमा है। ध्रुव को भूनत य द्वाया रृदम भें बगवान ्का दशयन तथा षोडशोऩचाय द्वाया श्री हरय का भानलसक ऩूजन कयना बी वणणयत हैं।

    „कही हदनकय कही ननलशकय कही ववद्मुत चभकते, कही हैलभ कही यजनी कही उड़गन दभकते ,

    x x x

    अघ्मायदी उऩचाय सकर भन ही भन कयते x x x

    दे आचभन प्रेभ कऩूयय ननयाजन कयते, तुरसीदर रे सहस्र नाभ से अचयन कयते । ‟

    तदुऩयाॊत स्वाभी जी बगवान ्की दीन वत्सरता का गुणगान कयते हैं – „बीरनी को भैमा कहके तुभ,

    जूठे फैय चफामे हो। मो त्रफदुयानी कय केरे के,

    तुभ नछरके बोग रगामे हो। मह गुण गण से बगवान ्सदा, तुभ दीनफॊधु कहरामे हो ।‟

    बतत वत्सर बगवान ् श्री हरय की असीभ कृऩा ध्रुव ऩय होता है तथा उसे सततवषयमों, नवग्रहों से ऊऩय स्थान प्रातत होने का वयदान लभरता है। साथ ही छतीस हजाय वषय तक ऩृथ्वी ऩय धभय ऩूवयक याज कयने का बी आशीवायद लभरता है। इतना ही नहीॊ, ध्रुव को साॊसारयक ववघ्न-फाधाओॊ से ववजम प्रातत कय हदव्म ववयजा नदी xx ऩाय कय वैकुण्ठरोक आने का बी ननभॊत्रण श्री हरय से लभरता है। स्वाभी जी के शब्दों भें –

    „सूमय चन्द्र औ बौभ फुधो गुरु सुकय नहीॊ जो ऩा सकते, x x x

    ता ऊऩय स्थान भनोहय है तहवाॉ तुम्हये यखते, ववयजा हदव्म ऩाय होकय तुभ हभायी सेवा कय सकते,

    छतीस सहस्र वषय बूलभ ऩनत होकय, वऩता अऩभानी से सम्भाननत होकय , भातु करही से बी ऩून्जत होकय,

    x x x

    कपय आना बी फच्चा तुम्ह हभये घय ।‟

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    `63 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    ध्रुव को जैसे ही श्री हरय द्वाया वयदान की प्रान्तत होती है, भाता सुनीनत को स्वतन के भाध्मभ से बान हो जाता है। वह बोय के स्वतन भें देखती है कक ध्रुव हाथ भें सफ़ेद ऩुष्ऩ औय गरे भें गजया धायण ककमे हुए ऩूयफ हदशा की ओय जा यहा है। ऩवयत ऩय चढ़कय सभय भें दुश्भन को जीत लरमा है तथा हदव्म सॊतों के साथ वऩता के बवन भें ऩधाय चुका है। जफ स्वतन बॊग होता है तो यानी सुनीनत को आबास हो जाता है कक दु् ख का अॊत औय सुख का साम्राज्म आने वारा है। स्वाभी जी के शब्दों भें –

    „सुत चच ॊतन कय सुतरी सुनीनत देखेरे ध्रुव के लबनुसहये सऩनवा ।

    श्वेत कुसुभ कय गजया ऩहहयरे, तुयॊग चढ़ी के हदलश ऩूयफ गवनवाॊ ।

    ऩवयत चढ़ रयऩु जीते सभय भें , गहरे अऩने बगवत ्के चयणवाॉ ।

    सुन्दय सन्तन के सॊग रेरे, अईरे अऩने वऩतु केय बवनवाॉ ।

    देखत सऩन उठी जफ यानी सऩन परे हे मह सुख के अवनवाॉ। ‟xxi

    इस ऩद भें स्वाभी जी ने स्वतन अवस्था भें ध्रुव की भाता के लरए सुनीनत शब्द का प्रमोग ककमा है, रेककन स्वतन बॊग के फाद यानी शब्द का प्रमोग ककमा है , जो स्वाभी जी के फेजोड़ दृन्ष्ट का द्मोतक है , तमोंकक ऩनत से ऩरयत्मतत सुनीनत का ऩुयानी यानी वारी रुतवा की वाऩसी का सॊकेत है। सद्ग्रॊथों का लशऺण है कक बगवान ् के अनुकूर होने से सफ अनुकूर हो जाता है। ध्रुव को बी बगवत ् प्रान्तत हो चुकी है, अत् जो वऩता भुख से फोरने से ऩयहेज कयता था, वह आगवानी कय घय रे जाता है। ववभाता सुरुचच, जो ध्रुव को कठोय वचन से दुतकायती थी, वह गोदी भें रेकय दुराय कयती है। सुनीनत अऩने प्राणों से बी तमाया ऩुत्र को गरे रगाकय साया सॊताऩ बूर जाती है। ध्रुव के गृह आगभन हेतु जगह-जगह चौके औय यॊगोरी फनामी जाती है। दयवाजे -दयवाजे ऩय करश स्थावऩत ककमे जाते हैं। याजा उत्तानऩाद ववप्रगण को फुरवाते हैं तथा सबी ववचधमों से ऩूजन कयाकय ध्रुव को याज लसॊहासन सौऩ देते हैं। भॊगर गान होता है। स्वाभी जी के शब्दों भें –

    „सोई उत्तानऩाद ध्रुव के हहत, ववप्र गणन फुरवाते हैं ।

    सफ ववध उऩचाय कया कयके ,

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    `64 | P a g e सुफोध कुभाय शाॊडडल्म& ऩयाॊकुशाचामय कृत धु्रव-चरयत्र का ववश्रेषणात्भक अध्ममन&

    शुब लसॊहासन त्रफठाते हैं ।‟ ध्रुव के याज लसॊहासन ऩय आसीन होते ही प्रजा के सबी दु् ख-ददय दूय हो जाते हैं। श्री हरय का ऩया प्रेभxxii से ऩूजन होने रगता है। प्रजाजनों भें ननत्म प्रेभ की फढ़ोतयी होने रगती है। वैहदक धभय-कभय के कायण ऩयस्ऩय स्नेह एवॊ सुख-सभृवद् भें वृवद् होती है। देव औय भुननगण प्रसन्न होते हैं। ध्रुव की सवयत्र जम-जमकाय होने रगती है। इस प्रकाय स्वाभी जी ने ध्रुव चरयत्र का वणयन सयर ओय सहज शब्दों भें कयके ईश्वयीम बन्तत बावना को ऩरयऩुष्ट ककमा है। श्रीभद्भागवत ् के न्तरष्ट श्रोकों को सयर-सुगभ बाषा भें अॊकन कय साभान्म जनों को बी इस बन्ततऩूणय चरयत्र को रृदमॊगभ कया हदमा है। मही कववकभय की सपरता है। 4.0 lanHkZ iधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-01 से उदृ्त. iiधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-02 से उदृ्त. iiiधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-02 से उदृ्त. ivधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-03 से उदृ्त. vधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-03 से उदृ्त. viधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-03 से उदृ्त. viiधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-03 से उदृ्त. viiiधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-04 से उदृ्त. ixधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-04 से उदृ्त. xधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-05 से उदृ्त. xiधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-05 से उदृ्त. xiiधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-05 से उदृ्त. xiiiसूय की काव्म चतेना, रेखक- डॉ फलरयाभ नतवायी(अलबव्मन्तत प्रकाशन) ऩषृ्ठ सॊख्मा- ३० से साबाय । xivधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-06 से उदृ्त. xvधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-08 से उदृ्त. xviधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-10 से उदृ्त. xviiओइभ ्नभो बगवत ेवासुदेवाम, प्रकाशक सस्ता साहहत्म भॊडर के धु्रव गीत से साबाय, जो सूय सागय से री गमी है। xviiiधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-13-14 से उदृ्त. xixधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-13 से उदृ्त. xxववयजा फैकुण्ठरोक की हदव्म ऩववत्र नदी है,न्जसभें स्नान कयने से प्राणी भात्र के सबी कष्ट दयू हो जात ेहैं तथा प्राणी हदव्म चतुबुयज शयीय धायण कय रेता है। xxiधु्रव-चरयत्र, ऩ०ृ-17-18 से उदृ्त. xxiiबन्तत के दो प्रकाय हैं- गौणी औय ऩया। गौणी साभन्म जनों की बन्तत है, जफकक ऩया आध्मान्त्भक औय शे्रष्ठ बन्तत है। अनुकूर बाव से ईश्वय का स्भयण ही ऩया बन्तत है।